स्मृति की जगह प्रकाश और नई शिक्षा नीति का सवाल
केन्द्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार और फेरबदल में मानव संसाधन विकास मंत्रालय से स्मृति ईरानी को लेकर हटाए जाने को लेकर की गई तमाम तरह की बातों में शिक्षा और शिक्षा नीति पर कुछ बातें राजनीतिक-अकादमिक क्षेत्रों में कही-सुनी गई हैं। जब यह बातें हो रही हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परफार्मेंस के आधार पर मंत्रियों को हटाया अथवा लिया है तो इसका साफ अर्थ यह निकाला गया कि स्मृति ईरानी ने अच्छा परफार्म नहीं किया होगा, इसीलिए उनसे सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों में से एक माना जाने वाला उनका मंत्रालय उनसे छीन लिया गया। यह वह मंत्रालय है जिसे शिक्षा मंत्रालय के रूप में माना जाता है। तभी यह सवाल कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया कि क्या शिक्षा के क्षेत्र में कुछ ऐसा रह गया जो वह ठीक से नहीं कर पा रही थीं। क्या जैसा सरकार या संघ-भाजपा चाह रहे थे वैसा वह नहीं कर पा रही थीं या नहीं करना चाहती थीं। यह सवाल भी उठ रहा था कि क्या रोहित बेमुला और कन्हैया कुमार जैसे मामलों के मद्देनजर विश्वविद्यालयों में जिस तरह का विवाद हो रहा था, वह कोई कारण था। यह और इस तरह के सवाल इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं कि क्या अब नए मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर वे सभी काम अच्छी तरह करेंगे जो अभी तक नहीं किए जा सके। यहां यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह मंत्रालय एनडीए के जमाने में डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी और कांग्रेस के जमाने में अर्जुन सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं के पास रहा है। यह भी कि प्रकाश जावडेकर की पृष्ठभूमि संघ की है जबकि स्मृति ईरानी का संघ से उस तरह का नाता नहीं रहा है और न ही उनका कोई अकादमिक इतिहास रहा है। इसके साथ ही यह मुद्दा भी हो सकता है कि जिस तरह की संस्कार आधारित शिक्षा नीति और शिक्षा व्यवस्था भाजपा और सरकार चाहती रही होगी, वह न हो पाने से भी यह बदलाव अवश्यंभावी हो गया हो, अन्यथा माना तो यही जाता रहा है कि स्मृति ईरानी बहुत ताकतवर मंत्री हैं।
हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि उनके कार्यकाल के दौरान कई ऐसे विवाद उठ खड़े हुए जिनकी वजह से न केवल उनकी बल्कि सरकार की भी काफी फजीहत हुई। लेकिन इसके लिए सिर्फ वही अकेले दोषी नहीं ठहराई जा सकती हैं। यह चाहे विश्वविद्यालयों में और उससे संबंधित उठे विवादों का मामला हो अथवा आईआईएफटी में नियुक्ति का अथवा उनकी खुद की डिग्री का। लेकिन कुछ तो ऐसा रहा ही होगा जो वह नहीं कर पा रही थीं और उन्हें मंत्रालय से जाना पड़ा होगा। अब यह देखने की बात है कि आखिर वे कौन-कौन से सवाल हो सकते हैं। इस संबंध में दो-तीन मुख्य बातों से अंदाजा लगाया जा सकता है। एक तो नई शिक्षा की तैयारियां चल रही थीं और यह जल्दी ही आने वाली है। दूसरे जब मंत्रिमंडल में बदलाव होने वाला था, ठीक उससे पहले एक घटना छत्तीसगढ़ में हो रही थी जहां संघ के पदाधिकारी कुलपतियों की बैठक बुलाकर उन्हें दीक्षा दे रहे थे। इसके अलावा समान पाठ्यक्रम, अंक पद्धति और नकल तथा अधिकाधिक नंबर देने जैसे कई ऐसे सवाल थे जिन पर काम किया जाना था। यह भी महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि नए मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर कार्यभार संभालने के बाद सबसे पहले उस कार्यक्रम में जाते हैं जिसे भाजपा से जुड़ी एक संस्था द्वारा शिक्षा के मुद्दे पर आयोजित किया गया था। संभव है वह कार्यक्रम पहले से तय रहा हो और बतौर मंत्री उसमें स्मृति ईरानी को जाना रहा हो लेकिन हुआ तो ऐसा ही कि उसमें प्रकाश जावडेकर गए। बाद में उन्हें इस पर कुछ सफाई भी देनी पड़ी और यह कहना पड़ा कि इसमें कोई राजनीति नहीं खोजी जानी चाहिए। निश्चित रूप में इसमें कोई राजनीति नहीं खोजी जानी चाहिए लेकिन अगर उस संस्था के मुताबिक चीजें भविष्य में सामने आएंगी तब जरूर यह सवाल उठ सकता है कि आखिर वहां क्या हुआ होगा। जिस कार्यक्रम में जावडेकर शामिल हुए उसमें एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक भी शामिल थे जिन्हें संघ के विचारों का समर्थक माना जाता है। भारत शिक्षण मंडल के मुकुल कनितकर ने इस कार्यक्रम में कहा कि पाठ्यक्रमों में केवल विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को ही नहीं बल्कि भारत से भी पाठ्यक्रमों को शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि केवल भारत में ही विश्व का नेता बनने की क्षमता है। शिक्षा मंत्री अथवा सरकार इन विचारों को पता नहीं कितना मानेगी, लेकिन विरोधियों के लिए यह मानने का मौका मिल गया है कि नई शिक्षा नीति में क्या होने वाला है।
शिक्षा नीति हमेशा से विवाद का विषय रही है। चाहे वह लार्ड मैकाले की रही हो अथवा भारत की किसी भी सरकार की। अब केन्द्र की एनडीए सरकार की नई शिक्षा नीति को लेकर भी विवाद उसके सामने आने से पहले ही गहराने लगे हैं। शिक्षा, शिक्षण संस्थाएं, पाठ्यक्रम और भगवाकरण आदि को लेकर झगड़े इस सरकार के बनने के समय से शुरू हो गए थे। दीनानाथ बत्रा की किताबों को गुजरात में थोपा जाना, इतिहास बदलने की कोशिशें, मध्यप्रदेश के मदरसों में गीता पढ़ाना अनिवार्य करना, योग के नाम पर सूर्य नमस्कार को अनिवार्य बनाना, स्कूल शिक्षकों के लिए ऋषि संबोधन, मिड डे मील के पहले मंत्र जाप, संघ की पत्रिका ‘देवपुत्र’ को सभी स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य करना, शिक्षण और साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में संघ से जुड़े लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाना आदि ऐसे उदाहरण रहे हैं जिनकी चौतरफा आलोचना हुई थी। हालांकि इनमें से कई फैसले विरोध के चलते वापस ले लिए गए थे। इसके अलावा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय आदि अनेक उच्च शिक्षण संस्थानों में और उनको लेकर विवाद भी चर्चाओं में रहे हैं। विपक्षी कांग्रेस, कम्युनिस्ट और अन्य पार्टियों की ओर से शिक्षा के भगवाकरण के आरोप लगातार लगाए जाते रहे हैं। इसी बीच सरकार ने नई शिक्षा नीति के लिए ड्राफ्ट तैयार करने के लिए अक्टूबर 2015 में टीआर सुब्रमण्यन के नेतृत्व में एक कमेटी गठित की थी। कमेटी अपनी ‘नेशनल पॉलिसी फॉर एजुकेशन 2016’ शीर्षक से रिपोर्ट सौंप चुकी है। अब इसको लेकर इस पर भी विवाद खड़ा हो गया है कि यह ड्राफ्ट पॉलिसी देने वाली थी या केवल इन्हें संस्तुति माना जाए। ऐसा इसलिए कि मंत्रालय की ओर से इसे केवल संस्तुति करार दिया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि पूर्व मंत्री स्मृति ईरानी इसे ड्राफ्ट तैयार करने वाली कमेटी कहती रही हैं। राज्य सरकारों की ओर से रिपोर्ट को सार्वजनिक करने और ड्राफ्ट व संस्तुति को लेकर आपत्तियां उठाई जाती रही हैं। उनकी शंकाओं का आधार शायद यह रहा हो कि पता नहीं सरकार इस रिपोर्ट के माध्यम से शिक्षा नीति के साथ क्या करने जा रही है। लोगों में यह सवाल गहरा होता जा रहा है कि उन्हें निकट भविष्य में किसी तरह की शिक्षा नीति से सामना करना होगा। यह संघ के पदाधिकारियों द्वारा कुलपतियों के साथ बैठक करने और शिक्षा मंत्री के संघ से संबद्ध किसी संस्था के शैक्षिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने से और भी बढ़ जाता है। इससे भी कि क्या यह नई शिक्षा नीति वस्तुपरक शिक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी सवालों को भी संबोधित करेगी अथवा केवल ‘राष्ट्रीयता’ के इर्द-गिर्द ही खुद को सीमित रखेगी।
अभी कुछ दिन पहले समाचार पत्रों में इस आशय की खबर आई थी कि गुजरात में किए गए एक शोध से पता चला है कि गौ मूत्र में सोना मिला है। जूनागढ़ एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने गिर की 400 गायों के मूत्र के विश्लेषण के बाद पाया कि उसमें सोने के अंश हैं। गाय के एक लीटर मूत्र में तीन मिलीग्राम से लेकर 10 मिलीग्राम तक के सोने के कण पाए गए। ये सोना आयोनिक रूप में मिला जो पानी में घुलनशील गोल्ड साल्ट है। अब वैज्ञानिकों ने शोध किया है तो इसका खंडन भला कौन करेगा लेकिन सवाल यह है कि क्या पौराणिक कथाओं को पुष्ट कर देने मात्र से यह आसानी से स्वीकार किया जा सकेगा कि वाकई गौ मूत्र में सोना हो सकता है। अगर ऐसा होगा तो भारत आर्थिक रूप से कितना मजबूत हो जाएगा और गाय का महत्व और कितना अधिक बढ़ जाएगा, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। रही बात भारतीयता को बढ़ावा देने और भारत को दुनिया का सिरमौर बनाने की तो यह इस तरह शायद ही संभव हो सके। तथ्य बताते हैं कि हमारे विश्वविद्यालय वैश्विक स्तर पर शीर्ष विश्वविद्यालयों में नहीं आते हैं और हमारे यहां कोई ऐसा शोध नहीं हो रहा है जिससे कुछ नया निकल रहा हो। ऐसा सरकार भी स्वीकार करती है। बुनियादी शिक्षा का हाल बेहाल है। छात्रों को सौ प्रतिशत अंक अवश्य मिल जा रहे हैं लेकिन उन्हें उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नहीं मिल पा रहा है। नौकरियों का हाल यह है कि चतुर्थ श्रेणी के लिए दहाई-सैकड़े में निकलने वाली वैकेंसीज में डाक्ट्रेट की उपाधि वाले, इंजीनियर और चिकित्सा आदि तक की डिग्री धारी आवेदन करते हैं। इसके बाद भी रोजगार नहीं मिल पाता। अच्छा होगा कि नई शिक्षा नीति में इन सवालों के जवाब खोजे गए हों।
अब कुछ बातें समान पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली को लेकर। मुफ्त, समान और स्तरीय शिक्षा पर भले ही अभी कोई काम न हो पा रहा हो लेकिन लगता है सरकार पूरे देश में पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली एक करने पर जोर देगी। इसके पीछे सबसे मुख्य कारण यह माना जा रहा है कि राज्यों के शिक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली से निकलकर आने वाले छात्र केंद्रीय शिक्षा बोर्ड वाले छात्रों से पिछड़ जा रहे हैं। यह चिंता वाजिब कही जा सकती है और इसका समाधान निकाला ही जाना चाहिए। इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। सीबीएसई के परीक्षा परिणामों को अगर देखा जाए तो पता चलता है कि बहुत छात्रों को मिलने वाला अंक प्रतिशत 99 से लेकर करीब 100 प्रतिशत तक होता है। इसके विपरीत राज्यों के बोर्डों के परीक्षार्थियों को मिलने वाला अंक प्रतिशत इससे काफी कम होता है। इससे सबसे बड़ी समस्या विश्वविद्यालयों में प्रवेश की होती है। प्राय: ऐसा पाया जाता है कि दिल्ली जैसे विश्वविद्यालय में बाहरी छात्रों को प्रवेश मिल पाना काफी मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में इंटरमीडिएट के अंकों का भी महत्व होता है। कुछ अन्य मौकों पर इन अंकों का महत्व होता है। ऐसे में यह समस्या बड़ी मानी जा सकती है। संभव है सरकार कभी इस दिशा में भी सोचे लेकिन फिलहाल अगर उसे पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली एक करने की जरूरत महसूस हो रही है तो कम से कम यह तो माना जा सकता है कि उसे समस्याओं की जानकारी है और वह उन्हें हल करना चाहती है। अब एक रोचक उदाहरण इस समस्या को समझने का आधार मुहैया करा सकता है। अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली की ओर से जारी की कटआफ में पांच विषयों में 100 प्रतिशत अंक पाने वाले छात्रों को ही मौका देने की बात कही है। यह पांच विषय हैं समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास, अंग्रेजी और सामाजिक विज्ञान। दरअसल इस साल विश्वविद्यालय में प्रवेशार्थियों की 173 प्रतिशत तक बढ़ गई है। विश्वविद्यालय को स्नातक में प्रवेश के लिए इस साल 26,777 आवेदन प्राप्त हुए हैं। पिछले साल यह संख्या 9,778 थी। इससे समझा जा सकता है कि स्थिति क्या हो गई है। इस बीच दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की प्रक्रिया को बेतुकी करार दिया। उनका कहना है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए न तो स्थानीय छात्रों का कोटा तय है और न ही प्रवेश परीक्षा होती है। उल्लेखनीय है कि राज्यों की यह शिकायत रही है कि सेंट्रल बोर्ड का पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली उनके मुकाबले काफी आसान है, जिसमें 90 फीसदी से भी ज्यादा अंक लाना कोई बड़ी बात नहीं। सच भी है कि स्टेट बोर्ड से 12वीं पास करने वाले प्रतिभाशाली बच्चे भी राजधानी दिल्ली के प्रतिष्ठित कालेजों की कट-ऑफ लिस्ट में जगह नहीं बना पाते।
केन्द्र सरकार ऐसी योजना पर काम कर रही है जिसके माध्यम से जल्द ही देश के सभी एजुकेशन बोर्ड में एक जैसा पाठ्यक्रम और एक जैसी परीक्षा प्रणाली हो सकती है। विभिन्न राज्यों के एजुकेशन बोर्ड के प्रतिनिधियों की बनी एक कमिटी ने अपनी सिफारिश की है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय निकट भविष्य में इस बाबत बैठक बुलाने वाली है। माना जा सकता है कि सरकार निकट भविष्य में इस पर कोई फैसला कर ले लेकिन यह सवाल बाकी रह जाता है कि क्या इससे संबद्ध तमाम सवालों के जवाब भी मिल जाएंगे और छात्रों को सहूलियत हो जाएगी। इस संदर्भ में अंकों के खेल और परीक्षा में नकल की समस्या को भी समझना जरूरी हो जाता है। केंद्र सरकार अगर इन सवालों पर भी विचार करेगी और इससे निपटने का कोई रास्ता निकाल सकेगी तो छात्रों और शिक्षा का शायद ज्यादा भला हो सकेगा।
अभी कुछ समय पहले बिहार में परीक्षाओं में नकल का मुद्दा बहुत जोर-शोर से उठा था। हाल-फिलहाल बिहार से ही टॉपर को लेकर न केवल विवाद बढ़ा बल्कि गिरफ्तारियां भी की गई हैं। पंजाब में छात्रों को अंक बढ़ाकर देने और ग्रेस माक्र्स का खेल उजागर हुआ है जिसके बारे में शिकायतें मिली हैं कि निजी शिक्षण संस्थाओं की मिलीभगत काम कर रही है। काफी संख्या में जगह-जगह खुले इंजीनियरिंग, मेडिकल और अन्य शिक्षण संस्थाओं को छात्रों की जरूरत होती है। छात्र तभी मिलेंगे जब उत्तीर्ण होंगे और अच्छे अंक से पास होंगे। यह भी आरोप रहे हैं कि इसी को ध्यान में रखते हुए बच्चों को फेल न करने और अधिकाधिक अंक देने की नीति पर काम शुरू किया गया और यह लगातार बढ़ता जा रहा है। क्या यह सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं है कि इतनी काफी संख्या में छात्र कैसे करीब 99 या 100 प्रतिशत अंक प्राप्त कर सकते हैं। क्या वाकई छात्र इस लायक हो गए हैं। एक-दो छात्र तो इतने तेज हो सकते हैं लेकिन बहुतायत का होना स्वाभाविक नहीं लगता।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कई राज्यों के शिक्षा बोर्ड शिक्षा की गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान भी देते हैं। कभी उत्तर प्रदेश बोर्ड से हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर लेना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। प्रथम आना अथवा डिक्टेंशन तो उससे भी बड़ी होती थी। लेकिन अब वहां भी यह बात नहीं रही। इसके पीछे नकल की समस्या रही है। कभी वहां बोर्ड की परीक्षा में व्यापक नकल की शिकायत मिली। बाद में आई दूसरी सरकार ने सख्ती की तो उस सरकार की लोकप्रियता काफी कम हो गई थी क्योंकि छात्र और अभिभावक दोनों सख्ती से नाराज हो गए थे। अब धीरे-धीरे वहां भी हालात काफी बदल गए हैं। इसके अलावा पूरे देश में और विभिन्न राज्यों में निजी शिक्षण संस्थान इतने ज्यादा खुल गए हैं और उनमें पढ़ाई और अंक देने में इतनी उदारता बरती जाने लगी है कि सरकारी स्कूलों को इससे काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसके साथ ही राज्य सरकारों पर भी दबाव बढ़ता गया। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा का स्तर सुधारने के बजाय अंक बढ़ाने और किसी को फेल न करने का दबाव बढ़ता गया। यह एक तरह से स्वीकार्य फार्मूला भी बन गया। इसके पीछे एक तर्क छात्रों के असफल होने पर आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं भी रही हैं। इसका समाधान शायद सरकारों ने इस रूप में खोजा कि किसी को फेल न किया जाए। इस सब का परिणाम यह हुआ कि शिक्षा का स्तर लगातार गिरता गया। यह अलग बात है कि इसके विपरीत शिक्षा का धंधा बढ़ता जा रहा है। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी युवाओं को रोजगार नहीं मिल पा रहा है। ऐसी खबरें आती रहती हैं कि चपरासी की वैकेंसी आने पर इंजीनियर, डॉक्टर और पीएचडी वाले भी आवेदनकर्ताओं में शामिल होते हैं। कई लाख रुपये खर्च कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले या तो बेरोजगार हैं अथवा 10-12 हजार रुपये की नौकरी करने को मजबूर हैं। ऐसी अनगिनत विसंगतियां हैं जो हमारी शिक्षा व्यवस्था के बारे में नए सिरे से सोचने को मजबूर करती हैं। वैसे तो फिलहाल ऐसी कोई उम्मीद नहीं नजर आ रही है कि सरकारें इसमें कोई बुनियादी बदलाव करने वाली हैं। इसके बावजूद यह आशा की जा सकती है कि अगर मानव संसाधन विकास मंत्रालय इस दिशा में कुछ भी करने की योजना बना रहा है तो संभव है निकट भविष्य में व्यापक बदलाव के बारे में भी सोचे जिससे छात्रों का भविष्य उज्ज्वल हो सके। फिलहाल यह देखने की बात होगी कि नए शिक्षा मंत्री प्रकाश जावडेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मापदंडों पर कितना खरे उतरते हैं और शिक्षा के क्षेत्र में कितना अच्छा कर पाते हैं। वैसे उनके पुराने मंत्रालय के कामकाज से प्रधानमंत्री खुश बताए जाते हैं। संघ और भाजपा के नेता भी उनकी क्षमताओं से परिचित और खुश रहते हैं। ऐसे में यह तो माना जा सकता है कि वह इस मंत्रालय में भी उनकी इच्छा के अनुरूप अच्छा ही करेंगे। सवाल यह बचा रह जाता है कि आम लोगों के लिहाज से वह कितना अच्छा कर पाते हैं। उनकी असली परीक्षा तभी होगी जब वह लोगों को संतुष्ट कर पाएंगे और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ अच्छा कर सकेंगे। ल्ल