दस्तक-विशेष

गाय के नाम पर महाभारत

गोमांस के नाम पर दादरी में जो हुआ, उससे शर्मसार करने वाली दूसरी कोई बात नहीं हो सकती। क्या गोमांस के नाम पर अफवाह फैलाकर किसी की हत्या की जा सकती है। यह बात हम क्यों नहीं समझ लेते यदि असहिष्णु है तो हिन्दू कदापि नहीं हो सकते।

Captureबृजेश शुक्ल
मांस को लेकर पूरे देश में भारी वाद-विवाद हो रहा है। हिसंक घटनायें हो रही है, किसी के मुंह पर कालिख पोती जा रही है। तो कोई गोमांस की पार्टी करता दिख रहा है। आकस्मात गाय भारत की राजनीति के केन्द्र में आ गई है। वैसे तो इस देश में संवाद और शास्त्रार्थ अति प्राचीन परम्परा रही है। मनीषियों ने समाज की हर समस्या के निदान के लिए संवाद को अपना प्रमुख हथियार बनाया था। लेकिन आज जो शास्त्रार्थ हो रहा है, वह समाज को तोड़ने वाला है। इसमें जोड़ने की गुंजाइश कहीं नहीं दिखती। अतिवादी एक दूसरे के विपरीत ऐसे छोर पर खड़े है। जहां पर सिर्फ ललकारने की आवाजे आ रही है। लोगों के अपने-अपने तर्क है। इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि किसान को आर्थिक उन्नति करनी है। तो गोवंश की रक्षा भी करनी होगी, लेकिन बहस इस बात पर जरूर होनी चाहिए कि गोवंश रक्षा के तरीके क्या हो,क्या आरोप-प्रत्यारोप से गोवंश की रक्षा हो जाएगी, यदि नहीं तो कौन सा तरीका होना चाहिए।
भारत कृषि प्रधान देश है। यहां पर यदि पशुधन नहीं बचा तो किसान कंगाली में पहुंच जाएगा, लेकिन कम होते हुए गोवंश के लिए कौन जिम्मेदार है। क्या किसी वर्ग विशेष को जिम्मेदार ठहराकर हम अपनी इस समस्या का निदान खोज लेंगे। असल में कम होते गोवंश के लिए वे लोग ज्यादा जिम्मेदार है, जो गोवंश की रक्षा की कसमें खाते हैं।
इस समाज में एक ऐसा भी वर्ग है, जो यह साबित करने में जुटा रहता है कि ऋषि-मुनि भी गोमांस खाते थे और वेदों में गोमांस भक्षण की बात लिखी है। इतिहास का हवाला दिया जाता है, शास्त्रों की बात की जाती है। वास्तव में यह वह वर्ग है, जिसे देश की आर्थिक स्थितियों से कुछ लेना-देना नहीं और किसान की समस्याओं को वे समझते तक नहीं। दुधारू पशुओं से घटती संख्या से उनका कोई मतलब नहीं। वह अपने को प्रगतिशील बताने के चक्कर में मूर्ख जैसी बातें करते हैं। इन्हें भारत केेकिसान व उससे जुड़े अर्थतंत्र की जानकारी नहीं। किसी दूसरे को चिढ़ाने में उन्हें मजा आता है। पहले इन्हीं बुद्धिजीवियों पर चर्चा कर लें बाद में उन लोगों पर भी जो अपने को गोवंश का सबसे बड़ा पहरूवा बता रहे है और सबसे ज्यादा गाय को पीड़ा भी वहीं दे रहे हैं।
गोमांस के नाम पर दादरी में जो हुआ, उससे शर्मसार करने वाली दूसरी कोई बात नहीं हो सकती। क्या गोमांस के नाम पर अफवाह फैलाकर किसी की हत्या की जा सकती है। यह बात हम क्यों नहीं समझ लेते यदि असहिष्णु है तो हिन्दू कदापि नहीं हो सकते। सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया का जाप करने वाला यह समाज उन मुट्ठी भर लोगों के आगे कैसे झुक सकता है, जो गो हत्या पर किसी मनुष्य की हत्या की वकालत करते हैं, लेकिन वह लोग भी कम कट्टरवादी नहीं है, जो सहिष्णुता की माला जपने के नाम पर यह साबित करने में जुटे है कि भारत के ऋषि-मुनि गोमांस खाते थे।
दादरी घटना की निन्दा हो रही है और होनी भी चाहिए, लेकिन इस घटना की आड़ में यह साबित करने का प्रयास करना गोमांस भक्षण बहुत ही बेहतर है, आश्चर्य पैदा करता है। उसका यह आधार लिया जाये कि प्राचीन काल में ब्राह्मण और ऋषि-मुनि भी गोमांस खाते थे। वास्तव में अपने कथन के पक्ष में तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना है। सत्य तो यह है कि मनुष्य लम्बे समय तक निर्वस्त्र जंगलों में घूमता था, पशु-पक्षियों का शिकार कर उसे कच्चा खा जाता था, कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं थी। फिर क्या पूरे समाज को उसी युग में लौट जाना चाहिए। युग धर्म के अनुसार समाज परिवर्तनशील रहा है। मनुष्य जंगलों से निकल कर बस्तियों में आया। मांसाहार के बाद शाकाहार भी ढूंढ़ लिया गया। कृषि जीवन का मुख्य आधार बनी। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जीवन के दो आधार बने, एक कृषि धन और दूसरा पशुधन। बढ़ती चेतना ने लोगों को यह महसूस करा दिया कि गाय को यदि मार कर खा लिया जाएगा तो उससे पूरे समाज को आर्थिक दृष्टि से भारी नुकसान होगा। गाय से दूध मिलता था, बैल खेतों में जुताई करते थे, उन्हीं से फसलों की मड़ाई भी होती थी। गोबर खाद और ईधन का मुख्य आधार था। इन तमाम आर्थिक लाभों के चलते गाय पवित्र घोषित हो गई, जो जीवन दे और जीने में मदद करे,उसे मां माना गया। भारतीय समाज कभी भी अहसान फरामोश नहीं रहा जो उसे जीवन दे उसी की हत्या करें। क्या केवल मनुष्यों में ही जीव दर्शन किया जाए, पशुओं में नहीं। बलिप्रथा का विरोध भी इन्हीं कारणों से हुआ। इस तरह के बदलाव समाज की जीवंतता को साबित करते हैं। इस्लाम में सुअर को हराम घोषित किया गया है। इसका बहुत मजबूत वैज्ञानिक आधार है, तो क्या यह तर्क उठाये जाएंगे कि पूर्वज कभी सुअर का मांस खाते थे, इसलिए आज भी खाया जाये।
आधुनिक भारत में एक फैशन बन गया है कि दलितों और आदिवासियों से जोड़ कर अपनी बात को मजबूती दो। यह शर्मनाक है कि दलितों और आदिवासियों को गो भक्षक बता दिया गया है। हकीकत इससे अलग है। आदिवासियों और दलितों के बीच गाय कहीं ज्यादा पवित्र मानी जाती। मैं ऐसी तमाम पंचायतों में गया हूं, जहां दलितों के बीच गाय की पूंछ पकड़ कर कसम खिलाई जाती है। सवर्ण के बीच गाय की जो पवित्रता नहीं है वह दलितों और आदिवासियों के बीच है, लेकिन हमारी सामन्ती सोच है और हम अपने स्वार्थ को दलितों और आदिवासियों के सर डाल देना चाहते हैं। एक लेखक ने एक लेख में लिखा था कि कि वह बड़े ब्राह्मण के तौर पर ऋषि वशिष्ठ के पद चिन्हों का अनुसरण कर गोमांस खाने की आजादी चाहते हैं। ऋषि वशिष्ठ को गोमांस भक्षक बताना अज्ञानता नहीं तो क्या है। शायद उन्हें मालूम नहीं कि वशिष्ठ के पदचिन्हों का अनुसरण करने के लिए उन्हें मांसाहार छोड़ना होगा। शायद वह अज्ञानता के चलते वशिष्ठ व विश्वामित्र के बीच अंतर नहीं कर पाए। उन्हें नहीं मालूम कि वशिष्ठ ने कभी मांसाहार नहीं किया। भूख के कारण मृत्यु से बचने के लिए विश्वमित्र ने गाय का नहीं कुत्ते का सड़ा मांस खाया था और बाद में इसका प्रायश्चित किया था। शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम कि जब अयोध्या के राजा दिलीप को पुत्र प्राप्ति नहीं हुई तब वह निराश होकर गुरु वशिष्ठ के पास गए थे। वशिष्ठ ने उन्हें नंदिनी नाम की गाय देते हुए कहा था कि इसकी सेवा करो तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। कालिदास ने रघुवंशम में इसका विस्तृत वर्णन किया है। यह समाज समय के अनुसार चलाए समय के अनुसार बदला। अब पूरी दुनिया में मांसाहार की जगह शाकाहार पर जोर दिया जा रहा है। क्या इस पर भी यह कह कर डंडा लेकर खड़ा होना होगा कि कुछ दिन पहले तक तो मांसाहार कर रहे थे, अब शाकाहार कहां से आ गया। अब गो रक्षकों की भी बात कर ली जाये। गो-रक्षकों को क्या यह नहीं दिखाई देता कि शहर की गलियों-गलियों में आवारा गाय घूम रही है। इन स्वयं गो-रक्षकों ने गाय पाल रखी है, उनका दूध दुह लेना इनका कर्तव्य है। इसके बाद वे गाय को आवारा छोड़ देते हैं। फिर यह गाय पन्नियां खाती घूमती है। शहरों में ज्यादातर गाय इसलिए मर रही है, क्योंकि उनके पेट में प्लास्टिक की पन्नियां भरी हुई है। कानपुर से झांसी राजमार्ग पर शाम होते ही सैकड़ों गाय सड़कों पर आ जाती है। ट्रक उन्हें कुचल देते हैं। बुन्देलखण्ड में अन्ना प्रथा चलती है। इस प्रथा के तहत फसल कटते ही गायों को आवारा छोड़ दिया जाता है। वे बिना पानी और चारे के भटकती रहती है। कई दुधारू पशुओं की मौत हो जाती है। इस प्रथा को रोकने के लिए अब तक किये गये सारे प्रयास निरर्थक हो चुके है। आखिर यह गाय के प्रति कैसी भक्ति है, जो पशुओं को आवारा छोड़ने की अनुमति देती है। आखिर हम इस बात पर क्यों नहीं विचार करते कि जो पशु हमें दूध देता है, गोबर देता है, हमारी आर्थिक स्थिति को मजबूत करता है, उसे हम घर से बाहर भटकने के लिए छोड़ देते है।
राजस्थान से लेकर गुजरात तक बड़ी-बड़ी गोशालायें खोली गई। इनमें दान के नाम पर करोड़ों रुपये आ रहे है। इन गोशालाओं में भी गायों को बेहतर ढंग से नहीं रखा जाता। क्या हम गोरक्षा के नारे को कमाई का साधन नहीं बना रहे। यदि वास्तव में हमें गाय से प्रेम है,तो गाय सेवा के नाम पर आये एक-एक पैसे को हम गो सेवा में क्यों नहीं लगा देते। पहले किसान बैलों से खेती करते थे,लेकिन जब से टै्रक्टर आये तब से बैल गायब हो गये। एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था थी, जो गांवों के अर्थदण्ड को मजबूत करती थी। हर घर में गाय बंधी थी, बैल थे, गाय दूध देती थी, बैलों से खेती होती थी, उनका गोबर खाद और ईधन के काम आता था। अब छोटी खेती भी टै्रक्टर से हो रही है। किसानों के पास काम कम बचा है। सिर्फ मशीनों का उपयोग कर हम अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत नहीं कर सकते। इस बात का उत्तर सरकार को भी देना होगा कि आजादी के समय कुल दुधारू पशुओं का 51 प्रतिशत गोवंश था, लेकिन अब यह 33 प्रतिशत कैसे बचा और समाज को भी कि वे उन गायों को दूसरे के हाथ क्यों बेच देते है,जो दूध नहीं देती। लोग पशुओं को अपने परिवार की तरह रखते थे, लेकिन अब यह भावना समाप्त हो चुकी है। बूढ़ी होते ही गाय-बैलों को बेच दिया जाता है। 

गो-वंश की रक्षा के लिए सबसे पहले हमें संकल्पित होना पड़ेगा। आजकल कूड़े के ढेर पर सबसे ज्यादा गाय नजर आती हैं। यह सब आवारा नहीं हैं, यह पालतू हैं जिन्हें लोग दूध दुहने के बाद छोड़ देते हैं। यह कूड़ा और पॉलीथिन खाती रहती हैं। गोपालन और गो रक्षा हमारी संस्कृति रही है। प्राचीनकाल से गाय को पूज्य और मां कहा गया है। अभी पिछले माह हमने गोरक्षा करने वाले एक मुस्लिम युवक को मंदिर बुलाकर सम्मानित भी किया। इस मुद्दे पर सभी धर्मगुरु हमारे साथ हैं। हमें गाय को किसी धर्म संप्रदाय में नहीं बांधना चाहिए, क्योंकि वह धर्म और जाति देखकर दूध नहीं देती। सबसे पहले हमें गाय की देखरेख और उसके पालन का ख्याल रखना चाहिए। सामथ्र्य है तो गाय पालें अन्यथा उसे सड़कों पर कूड़ा खाने के लिए न छोड़ें। मैं पहले भी कह चुकी हूं जो पालन में असमर्थ हैं वह लखनऊ के दारापुर में स्थित हमारी गोशाला में दे दें। गोपालन और गोरक्षा के लिए सबसे पहले हमें जागृत होना होगा।
महंत देव्यागिरि, मनकामेश्वर मंदिर

Related Articles

Back to top button