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हिंदी फिल्मों में हिंदी भाषा का कंफ्यूजन

मनीष ओझा

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

मुबंई: बात कुछ दिन पहले की है मैं टीवी पर एक कार्यक्रम देख रहा था। ये कार्यक्रम था ‘एजेंडा आज तक’। इस शो के होस्ट थे सईद अनवर और मेहमान थे जावेद अख्तर साब व अशोक बाजपेयी जी, चर्चा का विषय था ‘हिन्दी भाषा’ पर एक नज़र। शो में जावेद साब ने कहा ‘ज़बान सिर्फ़ कम्युनिकेशन का ज़रिया नहीं बल्कि इससे बहुत आगे की चीज़ है। ज़बान हमारी पहचान ही नहीं, हमारी संस्कृति को प्रदर्शित करने का भी माध्यम है।’

उसी शो में आगे अशोक बाजपेयी जी ने कहा “भाषा में भी अब एक तरीके की जाति व्यवस्था बनी हुई है जैसे जो अंग्रेज़ी बोले वो ब्राह्मण (उनका मतलब जाति से नहीं एलिट वर्ग से था) और जो हिन्दी या क्षेत्रीय बोले वो शूद्र (देशी, देहाती गंवई)। ये जो स्तरीकरण है इसने हिन्दी का बड़ा नुकसान किया है।”

अब इन दोनों कथनों को मद्देनज़र रखते हुए यदि हिन्दी फिल्मों पर प्रकाश डाला जाए तो बात ज़्यादा ढंग से समझ में आती है। 14 मार्च साल 1934 से हिन्दी फिल्में बननी शुरू हुईं। तब हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर में हम ख़ालिस हिन्दी संवाद सुनते थे। जो संवाद ऐसे लिखे होते थे कि वे हमें यह एहसास कराते थे कि हम कोई फ़िल्म देख रहे हैं। यहां ध्यानार्थ है कि तब हम दो एहसासों को अलग—अलग किन्तु एक साथ लेकर चलते थे।

पहला कि हम कोई फ़िल्म देख रहे हैं दूसरा उसके पात्रों को हम खुद से जोड़कर भी देखते थे। फिर जैसे जैसे समय आगे बढ़ता रहा ढेरों प्रतिभा सम्पन्न कलाकारों की आमद हुई और फ़िल्मों में तमाम तऱीके के प्रयोग किये जाने लगे। भाषा को लेकर भी महत्वपूर्ण प्रयोग हुए। 70 के दशक तक हिन्दी फिल्मों में शहरी किरदार लगभग शुद्ध हिन्दी बोलता था, एलिट वर्ग अँग्रेज़ी मिश्रित हिन्दी और ग्रामीण किरदार उत्तर भारत से चाहे कहीं का भी हो अवधी बोलता था।

जैसे ‘साहेब बीवी और ग़ुलाम’ में गुरुदत्त, गंगा जमुना में दिलीप कुमार, वैजंतीमाला व कुछ अन्य मुख्य पात्र, फ़िल्म शिकार में जॉनी वॉकर, फ़िल्म लगान में कुछ कुछ अमीर ख़ान, मुज़फ्फर अली की फ़िल्म गमन में फ़ारूक़ शेख़ आदि ग्रामीण किरदारों ने अच्छी अवधी बोलकर अभिनय को सजीव बना दिया था। लेकिन इस स्तरीकरण से आम जन मानस पर दो ताऱीके के प्रभाव देखने को मिले एक तो ये हुआ कि अनुसन्धानपरकता व अच्छे कलाकारों का साथ पाकर क्षेत्रीय भाषाओं ने अपनी पहचान तो स्थापित की किन्तु इस भाषा को बोलने वाले किरदार का स्तर हर बार ग्रामीण गंवई या गरीब होने की वजह से ये पहचान ही इन भाषाओं के प्रति एक तरह का मोहभंग करने का काम करने लगी और इसका व्यापक परिणाम ये देखने में आया कि लोग अपने बच्चों को क्षेत्रीय भाषा बोलने पर नकारात्मक ढंग से टोकने लगे और धीरे—धीरे उत्तर भारत की नई पीढ़ी अपने भाषाओं से अलग होने लगी।

दूसरा प्रभाव ये हुआ कि लोग अंग्रेज़ी की तरफ़ बहुतायत में आकर्षित हुए तत्पश्चात हिन्दी की उन्नति के बजाय अवन्नति ही अधिक हुई। फ़िर बाद के दिनों में हिन्दी सिनेमा अपडेशन के तीव्रतम गति में आया। फिल्में अधिक रीयलिस्टिक बनने की दिशा में आगे बढ़ीं। इस यात्रा में, हिन्दीभाषी फिल्मों में एक जो सबसे बड़ा परिवर्तन आया वो ये कि फिल्मों में सरल व ज़्याद वास्तविक लगने वाले यहां तक कि पहले से प्रतिष्ठित स्तरीकरण को तोड़कर आवश्यकतानुसार क्षेत्रिय प्रभाव लिए हिन्दी संवाद तक लिखे जाने लगे।

अब फिल्मों में ग्रामीण को प्रदर्शित करने के लिए सिर्फ़ अवधी भाषा को न बोलकर, उस किरदार के वास्तविक क्षेत्र की भाषा का इस्तेमाल किया जाने लगा। जिसमें बाज़ार (1982), हासिल, पान सिंह तोमर, गैंग्स ऑफ वासेपुर, तनु वेड्स मनु, मांझी, कमोवेश दंगल, सिंह इज किंग सरीख़ी अलग—अलग क्षेत्रों से रिलेटेड बहुत सी उत्कृष्ट फिल्में बनकर सामने आईं। लेकिन फिर दुर्भाग्य से बॉलीवुडिया आदत अनुसार कॉपी पेस्ट की होड़ लग गयी।

अब लगभग हर फ़िल्मों में क्षेत्रीय किरदार होते हैं और वहां उनके क्षेत्र की बोली से प्रभावित हिन्दी संवाद लिखने की कोशिश में कचरा परोसा जाता है की भाषा बदलती जा रही है। कुछ एक को छोड़ दिया जाए तो अब हमारे हिन्दी फ़िल्मों में उपस्थित किरदार की भाषा और उसकी संस्कृति में ताल मेल जैसी कोई बात नहीं दिखती वो रहने वाला कहीं और का होगा। भाषा कहीं और की बोलेगा और जीने का अंदाज़ कहीं और का होगा।

रिसर्च की परंपरा समाप्त कर कुछ लोगों ने बेवजह उल्टा सीधा संवाद लिखना शुरू कर दिया है, जिसका सबसे बढ़िया उदाहरण है सिद्धार्थ मल्होत्रा अभिनीत फिल्म ‘जबरिया जोड़ी’ फ़िल्म में बिहार की पृष्ठभूमि दिखाई गई है किंतु भोजपुरी प्रभावित हिन्दी बोलने की जगह सिद्धार्थ मल्होत्रा क्या बोलते हैंसमझ से परे हो जाता है। इस अंधी दौड़ ने हिन्दी सिनेमा को पूर्ण व्यवसायिक बनाते हुए प्रयोग के नाम पर कुमार्ग पर ले जाने का काम किया है। अगर कहा जाए कि यह भाषा को लेकर हिन्दी सिनेमा का बुरा दौर है तो अतिश्योक्ति कदापि न होगी।

फिल्मों को रियलस्टिक बनाने के उद्देश्य से क्षेत्रिय प्रभाव को महत्व दिया जाता है, ये अच्छी बात है। लेकिन अगर ये महत्व अनुसन्धानपरक नहीं है तो उस क्षेत्र व उसकी भाषा के साथ अन्याय है। जैसे कि यदि अवधी बोली के नाम पर भोजपुरी संवाद बोला जाना या फिर अवधी भाषी क्षेत्र को प्रदर्शित करते वक़्त उसके किरदार की भाषा भोजपुरी पुट लिए होना, ऐसे ही हरियाणवी के नाम पर पंजाबी रंग लिए भाषा परोस देना, जैसा कि अक्षय कुमार अभिनीत फ़िल्म ‘बॉस’ में किया गया या फिर बघेली के नाम पर अवधी पुट लिए संवाद लिख देना।

ये ग़ैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार है उस क्षेत्र या क्षेत्रवासी की भाषा के साथ। क्योंकि साहित्य व फिल्में समाज का आईना होती हैं वे सिर्फ़ मनोरंजन नहीं बल्कि उस समाज की संस्कृति को परोसती हैं उसकी पहचान स्थापित करती हैं। जिसमें भाषा सबसे प्रमुख भूमिका निभाती है।

भाषा को लेकर हो रही इस गड़बड़ की सबसे मुख्य वजह ये है कि राइटर्स एसी कमरों में बैठकर किरदार गढ़ते हैं, इधर—उधर से प्राप्त वीडियोज़ या फिल्मों से किरदार की भाषा चुनते हैं और फिर निर्देशक कहीं अलग सेट बनाकर, अलग अलग पृष्ठभूमि से आये कलाकारों को लेकर फ़िल्म बनाता है, किरदार संबंधित भाषा भाषी क्षेत्र भ्रमण न राइटर करता है न निर्देशक और न ही कलाकार जिससे ऐसी त्रुटियां आती हैं तत्पश्चात हिन्दी सिनेमा दर्शक वर्ग में भाषाभ्रम उत्पन्न होता है।

दिल्ली या पंजाब में रहने वाला हिन्दी भाषी दर्शक अवधी को भोजपुरी समझता है या भोजपुरी को ही अवधी समझ बैठता है ऐसे ही उत्तर प्रदेश या बिहार का दर्शक वर्ग जो हरियाणा या पंजाब की भाषा फिल्मों से ही सुनता और जानता है, वो भी भ्रमित हो जाता है। किरदारों के साथ प्रयोग बहुत बड़े रिसर्च की मांग करता है अगर रिसर्च संभव न हो तो निर्देशकों को अपने किरदार की भाषा हिन्दी ही रखनी चाहिए। शौक़िया तौर पर क्षेत्रीय बनाने से बचना चाहिए।

यहां एक और बिंदु उभर कर आता है कि कलाकारों के अलग—अलग क्षेत्रों से होने की वजह से फ़िल्मों में शुद्ध रूपेण क्षेत्रीय बोल पाना संभव नहीं है। ये बिंदु शत प्रतिशत सही है। और कमोबेश भाषा का थोड़ा इधर—उधर होना तो चल सकता है और चलता भी है, किंतु उसकी शैली ही बदल देना उसके पूरे स्वरूप को बदल देता है, जो मान्य नहीं हो सकता। जैसे अक्सर भोजपुरी और अवधी के साथ होता है।

ऐसे मामलों में भाषा विभाजन की जो सबसे महीन रेखा है उसे पहचानना बहुत ज़रूरी है और जो कलाकार या निर्देशक इस बारीक़ धागे को ना पहचान पाए उसे क्षेत्रीय तरंगों को छेड़कर बेसुरा राग परोसने से बचना ही चाहिए। किसी भी भाषा में नए शब्दों का स्वागत बहुत ज़रूरी कदम है लेकिन उसकी शैली को बदल देना उसकी पहचान को बदल देने का अपराध है।

(लेखक फ़िल्म स्क्रीन राइटर, फ़िल्म समीक्षक, फ़िल्मी किस्सा कहानी वाचक है)

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