ज्ञानेंद्र शर्मादस्तक-विशेषसंपादकीयस्तम्भ

हम तुम चोरी से बंधे इक डोरी से

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधारने के लिए योगी जी ने बहुत सख्ती दिखाई। लेकिन 3 जून को एक झटके में यह सख्ती उस समय धरी की धरी रह गई जब अपराधियों के एक गैंग ने उलटे 8 पुलिस वालों को बिना मुठभेड़ ही मार डाला।

मार्च 2017 में जब योगी जी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी तो उन्होंने बड़े जोरशोर से घोषणा की कि अपराधियों के खिलाफ बहुत सख्ती से सरकार पेश आएगी और पेश आई भी। मार्च 2017 और मई 2019 के बीच पुलिस और अपराधियों के बीच 5178 मुठभेड़ें हुईं जिनमें 103 अपराधी मारे गए जबकि 1859 घायल हो गए। 

कुल 5 पुलिस वाले भी मारे गए जबकि 642 घायल हो गए। कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधारने के लिए योगी जी ने बहुत सख्ती दिखाई। लेकिन 3 जून को एक झटके में यह सख्ती उस समय धरी की धरी रह गई जब अपराधियों के एक गैंग ने उलटे 8 पुलिस वालों को बिना मुठभेड़ ही मार डाला। जब इन पुलिस वालों को मारे जाने की खबर आई तो पहले तो यह समझ में ही नहीं आया कि यह खबर कहाॅ की है।

छत्तीसगढ के सुकुमा या जगदलपुर की या फिर आन्ध्र प्रदेश के नक्सल प्रभावित क्षेत्र की या फिर अपने चित्रकूट के जंगलों की। कभी-कभी यह भी लगा कि हम इतिहास के पन्ने पलटते हुए कहीं भिंड, जालौन या इटावा का फूलन देवी, मलखान या छविराम यादव का रिकार्ड तो नहीं देखने लग गए।

आखिर हाल के सालों में कभी ऐसा नहीं हुआ कि इतने पुलिस वालों को तालाब के किनारे बैठी हुई बतखों की तरह गोली से उड़ा दिया गया हो। इससे पहले इतनी बड़ी घटना तब हुई थी जब राजनीतिक लोगों से गहरे सम्बंधी रखने वाले छविराम ने 1981 में नौ पुलिस वालों को गोलियों से छलनी कर दिया था।

अपने राज्य से बाहर छतीसगढ़ की बात करें। 11 मार्च 2014 को नक्सलवादियों ने घात लगाकर 15 पुलिस सवालों को मार डाला था और इससे एक साल पहले हुई एक घटना ने पूरे देश के रोंगटे खड़े कर दिए थे। 25 मई 2013 को अपनी राजनीतिक परिवर्तन यात्रा से लौट रहे कांग्रेसियों और उनके समर्थकों की घेराबंदी करके नक्सलियों ने 27 लोगों को मार डाला था।

छत्तीसगढ़ के नक्सल -प्रभावित सुकुमा की दरभा घाटी में आतंकियों ने 25 वाहनों में सवाल 200 कांग्रेसियों को घेरकर उन पर हमला किया था जो अभूतपूर्व था। मारे गए लोगों में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, पूर्व मंत्री महेन्द्र करमा जैसे कई नेता थे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ला बुरी तरह जख्मी हुई थे और बाद में दिल्ली के एक अस्पताल में उनकी मौत हो गई थी।

जिस विकास दुबे ने अभी कानपुर नगर जिले में यह कारनामा किया, वह कोई नक्सली नहीं था पर उसके चेहरे पर एक और खौफनाक अक्स झलकता था, वह था- राजनीतिक लोगों से यारी दोस्ती का, उनसे अंतरंग सम्बंधों का और 30 साल के आपराधिक कैरियर के दुर्दान्त इतिहास का- ऐसा इतिहास कि थाने के अंदर एक प्रमुख नेता की हत्या उसने कर दी और उसके खिलाफ कोई गवाही देने नहीं आया और वह जेल से छूट गया।

बापू आसाराम भले ही कई साल से जेल में बंद हों पर विकास दुबे को अदालतों से बराबर जमानतें मिलती रहीं। उसके साथ कई राजनीतिक नेताओं के फोटो धीरे-धीरे वायरल हो रहे हैं जो एक बार फिर राजनीतिक-अपराधी गठजोड़ की कहानी को उजागर कर रहे हैं और साथ ही यह भी बता रहे हैं कि हम इस गठजोड़ के आगे कितने निस्सहाय हैं।

और जिस तरह विकास दुबे और उसके गैंग ने यह कारनामा किया, वह चोैकाने वाला था। बताया गया कि जो रास्ता उसके घर की तरफ जाता है, उस पर एक रोड रौलर खड़ा करके सड़क अवरुद्ध कर दी गई थी। लेकिन यह साधारण सा पेंतरा छापा मारने और विकास को पकड़ने गए दल को, जिसमें एक उपाधीक्षक भी था, समझ में नहीं आया। उन्हें अवरुद्ध मार्ग पर रुक जाना पड़ा और यही अपराधी चाहते थे।

उन्होंने छत पर चढ़कर पुलिस वालों को गोलियों से भेद दिया और उनके पास इसके लिए एकके 47 जैसे खतरनाक हथियार भी थे। सवाल यह जरूर उठेगा कि अपराधियों ने किसके संकेत पर मार्ग पर रुकावट खड़ी की थी। क्या पुलिस का ही कोई भेदिया था या कोई राजनीतिक व्यक्ति था? उसके सभी दलों से अच्छे सम्बंध थे और सालों चलने वाले मुकदमे भीे उसके शास्त्रागार में शामिल थे। विकास दुबे अपराध की दुनिया में रहकर भी पुलिस से ज्यादा बलवान ऐसे ही नहीं हुआ था। पूरा सिस्टम उसका मददगार साबित हुआ?

यह एक बार फिर गौर करने लायक विषय बनकर उभरा है कि धनबल और बाहुबल के धारदार गठबंधन ने राजनीति के चेहरे को कैसे कुरूप किया है। जरा गौर करिए 2004 में ऐसे सांसदों की संख्या 60 थी जिन पर गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज थे। 2009 में यह संख्या बढ़कर 86 और 2014 में बढ़कर 115 हो गई। ऐसे विधायकों की संख्या 2004 में 12 प्रतिशत थी जो दस साल में 2014 में बढ़कर 21 प्रतिशत हो गई।

2013 और 2018 के बीच भारतीय जनता पार्टी ने 47 ऐसे लोगों को अपना टिकट दे दिया जिन पर महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज थे। इसी अवधि में बसपा ने 35 तो कांग्रेस ने 24 ऐसे ही लोगों को टिकट दिए।

श्री नरेन्द्र मोदी जब पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने तो आशा की नई किरण जागी। उन्होंने 11 जून 2014 को राज्यसभा में कहा भी कि अपराधीकरण के कलंक को दोनों सदनों से मुक्त करने और इस कलंक को समाप्त करने के लिए सब मिलकर काम करें और जिनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हो उन पर एक साल में फैसला हो।

इसके लिए एक ज्यूडिशियल मैकेनिज्म तैयार हो ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाय। श्री मोदी ने कहा था कि कम से कम 2015 के अंदर ऐसा हो जाय कि लोकसभा या राज्यसभा में कोई भी व्यक्ति ऐसा न हो कि उस पर दाग लगा हो। फिर इस प्रक्रिया को धीरे—धीरे विधानसभा और नगरपालिका स्तर पर ले जाएं। लेकिन हुआ क्या, जरा गौर करिए 2014 से 2019 की तुलना करिए।

एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अपनी एक रिपार्ट में कहा कि 2014 की तुलना में 2019 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक रिकार्ड वाले निर्चाचित सदस्यों की संख्या 26 प्रतिशत बढ़ गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में 43 प्रतिशत यानी लगभग आधे ऐसे नवनिर्वाचित सांसद चुने गए जिन पर आपराधिक केस दर्ज थे।

29 प्रतिशत ऐसे थेे जिन पर गंभीर अपराधों के मुकदमे दर्ज थे। गंभीर मुकदमों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, महिलाओं के खिलाफ अपराध शामिल थे। इस विश्लेषण में बताया गया 2009 के चुनाव के बाद से अब तक ऐसे सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत यानी दुगुने से भी अधिक की वृद्धि हुई है।

और कोई भी दल दूध का धुला नहीं है। अपराधिक मामलों वाले जो सांसद चुने गए उनमें से भाजपा के 39 प्रतिशत, कांग्रेस के 57 प्रतिशत, जदयू के 81 प्रतिशत, द्रमुक के 43 प्रतिशत और तृणमूल कांग्रेस के 41 प्रतिशत सांसद थे।

जिन 11 पर हत्या के मुकदमे थे, उनमें भाजपा के 5, बसपा के 2, कांग्रेस, एनसीपी और वाईएसआर कांग्रेस के एक एक सांसद शामिल थे। तो अब आगे क्या हो- मुठभेड़ें पहले की तरह जारी रखी जाएं या फिर जरा दम लेकर इस राजनीति-अपराध के मजबूत हो रहे गठबंधन को तोड़े जाने की भी फिक्र की जाय?

और अंत में,
जजः इस उम्र में लड़की छेड़े हो, माफ करने लायक नहीं हो
80 साल का बूढ़ाः साहब मेरी भी तो सुनिए
जजः कोई 20-22 के लड़के नहीं हो कि माफ कर दिया जाय
बूढ़ाः साहब ये 60 साल पुराना केस है,
तारीख पर तारीख इसकी वजह है
जिसे छेड़ा था, वो भी अपने पोते के साथ आई है!!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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