ज्ञानेंद्र शर्मादस्तक-विशेषसंपादकीयस्तम्भ

छोटे पड़ते कानून के हाथ

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: दो सितम्बर 2013 को धर्मगुरु आसाराम बापू बलात्कार के एक मामले में जेल भेजे गए थे। तब से वे जेल में हैं और उनकी तरफ से उनके वकीलों ने तमाम अदालतों के दरवाजे खटखटाए, वे हाई कोर्ट गए, सुप्रीम कोर्ट गए लेकिन उन्हें न तो जमानत मिली और न ही पैरोल। इस दौरान घटना से जुड़े कुछ गवाह भी मारे गए और कुछ को आतंकित किया गया लेकिन शिकायतकर्ता बहादुरी दिखाते हुए अपनी शिकायत पर डटे रहे। नतीजा यह हुआ कि एक बड़े धर्मात्मा होने का आसाराम बापू का गरूर टूट गया और कुछ अखबारों ने यह तक लिखा कि अब उन्हेे आजीवन जेल में ही रहना पड़ेगा।

एकबारगी लगा कि कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं पर बात उत्तर प्रदेश और उसके कुख्यात अपराधियों तक आते आते पूरी तरह उलट गई और विकास दुबे के मामले में खुद सुप्रीम कोर्ट को एक तरह से परोक्ष रूप में यह कहना पड़ा कि कानून के हाथ इतने लम्बे नहीं हैं।

अब उसने नवनियुक्त न्यायिक आयोग से कहा है कि वह विकास दुबे के एनकांउटर के अलावा यह भी जॉच करे कि उसे पैरोल कैसे मिली और इस पैरोल को रद कराने की कार्यवाही प्रोसीक्यूशन ने क्यों नहीं की और कि वे कौन सी परिस्थितियॉ थीं कि वह आजाद कर दिया गया। ऐसा ही हाल रहा कासगंज की घटना में जिसमें बलात्कार के जमानत पर चल रहे एक अपराधी ने बलात्कार की शिकार युवती और उसकी मॉ को टै्रक्टर से कुचलकर मार डाला।

पहले बात विकास दुबे की। उसके खिलाफ 64 आपराधिक मामले हैं जिनमें 5 हत्या के और 8 हत्या के प्रयास के मामले भी शमिल हैें। उस पर गैगस्टर एक्ट लगा, गुंडा एक्ट लगा, रासुका की कार्रवाई भी हुई फिर भी वह बचता रहा, छूटता रहा। 12 अक्टूबर 2001 को उसने अपने आतंक को नई उॅचाइयों तक पहुॅचाते हुए शिवली थाने में घुसकर मंत्री का दर्जा प्राप्त संतोष शुक्ला की गोली मारकर हत्या कर दी।

थाने के अंदर जब यह हत्या हुई तो वहॉ 5 सब इंस्पेक्टर और 25 सिपाही मौजूद थे। लेकिन उसके आतंक का आलम यह था वे कुछ नहीं कर पाए। यही नहीं पुलिस के लोग इतने डरे हुए थे कि उन्होंने कोर्ट में उसके खिलाफ गवाही ही नहीं दी और वह छूट गया। वह इस हत्याकांड के बाद चार महीने फरार रहा और पुलिस इस बीच उसे पकड़ नहीं पाई। बाद में अदालत में कई वकीलों के साथ वह हाजिर हुआ।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे दुर्दान्त अपराधी को, जिस पर ढेरों केस चल रहे हों, जमानत देना संस्थागत विफलता को दर्शाता है। कोर्ट ने कहा कि यह जॉच भी हो कि 64 एफआईआर होने के बाद भी उसे जमानत/पैरोल कैसे मिल गई। यह हैरानी की बात है कि उसे जमानत या पैराल देतेे समय अभियोजन पक्ष ने विरोध नहीं जताया। पैरोल रद कराने का प्रयास भी नहीं किया।

यही हाल कासगंज की उस हृदयविदारक घटना से जुड़ा हुआ है जिसमें एक बेटी और उसकी मॉ की हत्या कर दी गई। हुआ यह था कि 13 साल की एक बालिका का तीन लोगों ने बलात्कार किया। पुलिस ने तीनेां को पकड़ लिया और उन पर प्रोटेक्शन आफ चिल्ड्नि फ्राम सैक्चुअल ओफेन्सिज एक्ट के तहत मुकदमा कायम कर उन्हें जेल भेज दिया।

उनमें से एक मुख्य आरोपी पैरोल पर छूट गया। उसने छूटने के बाद बलात्कार की शिकार हुई उस 17 साल की हो गई लड़की और उसकी मॉ की थाना अमांगंज के अंतर्गत उस समय टै्रक्टर से कुचलकर हत्या कर दी जब वे खेत से लौट रही थीं। आरोप यह है कि उक्त आरोपी ने बदला लेने की नीयत से और उन्हें रास्ते से हटाने के लिए यह जघन्य हत्याकांड कर डाला। हालॉकि वह फिर पकड़ लिया गया और उसे जेल भी भेज दिया गया।

अब इस मामले में भी यह सवाल उठता है कि 13 साल की लड़की के साथ बलात्कार करने वाले को और बच्चों के खिलाफ यौन अपराध के सख्त कानून में मुकदमा होने के बाद भी पैरोल कैसे दे दी गई। जेल से वह कैसे छूट गया। पैरोल वास्तव में किसी भी अपराधी को अपने को सुधरने का अवसर देने के लिए करुणा के आधार पर दी जाती है। ऐसे अपराधी पर करुणा कैसे दिखा दी गई जो इतने जघन्य अपराध में जेल में था?

अब समय आ गया है जब पैरोल और जमानत देने के मामलों में नियमों को बहुत सख्ती से लागू किया जाय और देष की अदालतें नए सिरे से इससे जुड़े प्रावधानों की पुनर्समीक्षा करें ताकि ऐसी घटनाओं को रोका जा सके। विकास दुबे के जघन्य अपराधों के बाद भीे जेल से छूट जाने की इन ताजी घटनाओं से अभियोजन पक्ष की जिम्मेदारी संभालने वाले वकीलों की कार्यक्षमता पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है।

सरकार को यह देखना होगा कि राजनीतिक व दूसरे कारणों से सरकारी वकील नियुक्त किए जाने सम्बंधी नियमों और उनकी प्रक्रियाओं का सख्ती से पुनर्मूल्यांकन हो। विकास दुबे के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणियॉ की हैं और चिंताएं प्रकट की हैं, उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। की भी नहीं जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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