साहित्य

डबडबायी आंखें

आदित्य राज

कविता

मानवता एक लाश
सांसे चल रही है जिसकी अब तक
घसीट कर लाया जा रहा जिसे
शमशान से शहर, जद्दोजहद है कि
खाली करवाया जाए

एक बड़े से अस्पताल का इमरजेंसी बेड
किसी तरह जोड़ा जाए उसके हाथ-पांव
नाखूनों के पास रखा जाए निरन्तर एक ऑपरेशनल ब्लेड
पलटता है बार-बार, ऑक्सीजन सिलेंडर से भरा ट्रक

पैसों के पहाड़ को पार करते हुए
जा गिरता है खून के बोतलों के ढेर पर
सांसे थमने लगती हैं
आती है आवाज अचानक शीशे टूटने की
धड़ाम से गिरता है मानवता

दबाता है एक हाथ से अपना मुंह
दूसरे हाथ से अपना कमर
नौ दो ग्यारह की शक्ल में भाग पड़ता है सड़कों पर
ठिठक पड़ता है, दिखता है जब ठिठुरता हुआ एक कंकाल

पेश करता है कंबल, वो करता है साफ इंकार
ठंड मांस को छूता है, हड्डियां तो सिर्फ ठिठुरने में सहायक होते हैं
बढ़ता है आगे जैसे, सरकारी काफ़िले से छूटता एक सफेद पोशाकधारी
चौंधियाने लगती हैं उसकी आंखें

खाली कटोरे की चमक देखकर
टटोलता है जेबें, याद आता है वो पैसों का पहाड़
विलीन होने लगती है, धीरे-धीरे सारे अंग
किसी तानाशाह के कलम में
बदलने लगता है लिंग

उगलने लगता है वीर्य की नदी
जिसे मिसाइल की ईंधन होने में देर नहीं लगती
बरसाया जाता है ईरान के मैदानों में
खून से सनी बोटियां, जिस-जिस को छूती है यह बो फिर
बचती नहीं किसी की बोटियां

श्वेत ध्वज लहराते हुए
कुछ लोग अभी भी चिल्ला रहे हैं रोटियां.. रोटियां.. रोटियां
पर ठूंसी जा रही, इंसानी मुंह में इंसानी बोटियां
युद्ध के मैदान से लहूलुहान

आ पड़ता है विश्वविद्यालय के चौखट पर
सहसा दबोच लेता है कोई उसका मुंह
मसलता है उपाधियों का स्तन
जीभ और दांत भी शांत नहीं होते

कुतर रहा होता है कोने में सिमटा जिस्म
भाग पड़ता है जंगलों की ओर
झूलसता है अंग-अंग, खून का जलना आसान है
आसान नहीं होता आंखों की नमी का यूं ही चले जाना
झूलसे जिस्म के बीच बची रहती हैं

उनकी डबडबाई आंखें, ताकता है- ‘लोकतंत्र’ एकटक
विश्व का सबसे बड़ा जुमला, सींचा जाता है जिसे मानवता के लहू से
मर जाती है भावना, होती है टक्कर विश्वास और धोखे की
उठती है चिंगारी, झुलसती है मानवता
असंख्य बार, हर रोज

(स्नातकोत्तर छात्र- काशी हिंदू विश्वविद्यालय/ यह कवि की स्वतंत्र भावनाएं है)

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