अगर करते हैं ऐसा काम तो आप भी हैं मन के गुलाम!

दस्तक टाइम्स/एजेंसी: ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि की उत्पत्ति का मूल मन को माना गया क्योंकि मन के बिना कोई क्रिया सम्भव नहीं है तो सृष्टि की उत्पत्ति कैसे सम्भव है- मनसो रेत: प्रथमं यदासीत। सृष्टि के मूल में मन था। इस मन का प्रथम तेज काम था।
यह काम ही सृष्टि की उत्पत्ति की प्रथम कामना थी। कामना मन का प्रसार है। मन हृदय तत्व का केन्द्र बिन्दु है। संसार में किसी भी प्राणी के मन का विस्तार वैसा दिखाई नहीं देता, जैसा मनुष्य में है। मन उभयात्मक है अर्थात् सृष्टि की ओर भी प्रवृत्त होता है एवं अपने मूल की ओर भी।मनुष्य में मन की प्रबलता है इस कारण मनुष्य ही मोक्ष का अधिकारी बनता है। ब्रह्मबिन्दु-उपनिषद् में भी कहा है कि मन ही मनुष्य के बन्ध एवं मोक्ष का कारण है। सृष्टि की ओर प्रवृत्त हुआ मन बन्ध का कारण बनता है तथा सृष्टि से विमुख मन मोक्ष का कारण बनता है। मन ही कल्याण का केंद्र है।
कामना का प्रसार करता मनकामना मन का धर्म है। यह कामनामय मन मायापुर कहलाता है। इस मन पर अनेक बल निरन्तर पड़ते हैं। ये बल ही संस्कार रूप में दृढ़ होते हैं, इन्हें ही ग्रन्थि कहा जाता है। पुरुष पर जितने बल पड़ते हैं, उतने ही बन्धन अधिक होते हैं, क्योंकि बन्ध मन का ही होता है यही कारण है कि मनुष्य गहरे बन्धनों में बंधता है। जब मन का बन्ध खुलता है तो मायापुर का नाश हो जाता है तब उस परात्पर का साक्षात्कार हो जाता है यही मुमुक्षु या मुक्तिसाक्षी मन है।सृष्टि की ओर उन्मुख मन कामना का प्रसार है, प्रतिक्षण हम कामनाओं के अधीन होकर भिन्न-भिन्न कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। विभिन्न पदार्थों, वस्तुओं एवं पदों को पाने की लालसा हमें अधिक से अधिक कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। विविध विषयों का निरन्तर चिन्तन उन विषयों के प्रति आसक्ति उत्पन्न करता है।
किन्तु प्रयासों के पश्चात् भी जब हमें उन भोगों की प्राप्ति नहीं होती, जिनमें हमारी आसक्ति है तो मन में क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध हमारे विवेक को नष्ट कर देता है एवं अहंकार उत्पन्न करता है। आसक्ति कर्म के प्रति निष्ठा की अपेक्षा कर्मफल के प्रति निष्ठा उत्पन्न करती है।
– महिषासुर वध के लिए किस देवता ने दुर्गा को दिए थे अस्त्र?
आसक्त मनुष्य की कर्म निष्ठा न होने से फलप्राप्ति ही सन्दिग्ध हो जाती है। ऐसी स्थिति में उत्पन्न अहंकार के कारण अनेक विपत्तियां आती है। अहंकार के कारण ही सकल विपत्तियां, सकल मनोव्याधियां एवं सकल रोग उत्पन्न होते हैं। अहंकार बढऩे से क्रोध उत्पन्न होता है। उससे सम्मोह की स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे सत् एवं असत् में भेद करने के सामर्थ्य का नाश होता है।
प्रकृति है त्रिगुणात्मक
श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित योग आन्तरिक अनुशासन के ज्ञान व मनुष्य जाति के नए अर्थ तक ले जाते हैं। भगवान् कृष्ण ने कहा है कि मनुष्य एक क्षण के लिए भी कर्म के बिना नहीं रह सकता। कर्मप्रधान मनुष्य सृष्टि के लिए प्रेरणा बनता है।
न हि कश्चित् क्षणमपि
जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म
सर्वप्रकृतिजैर्गुणै:।।
प्रकृति त्रिगुणात्मक है, गुणत्रय के प्रभाव से किसी भी मनुष्य का क्षणभर भी कर्महीन रहना सम्भव नहीं है। कर्म ही मनुष्य को सक्रिय बनाता और न केवल इस जन्म बल्कि अगले जन्म को भी संवारता है। यह कहना भी गलत नहीं है कि सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही कर्म जुड़ा है।
श्रुति परंपरा में यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है- यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। यज्ञ का अर्थ अग्नि में आहुति देना ही नहीं है। वस्तुत: सम्पूर्ण सृष्टिचक्र में अग्नि में सोम की आहुति निरन्तर लग रही है एवं उससे अदृष्ट की सृष्टि हो रही है। पेट में जठराग्नि है, इसमें भोज्य पदार्थ रूपी सोम की आहुति देने से शरीर की पुष्टि होती है। रसादि का निर्माण होता है यही अदृष्ट है, जो अग्नि में सोम की आहुति से उत्पन्न हुआ।
गीता में बताए तीन प्रकार के योग
गीता में मुख्य रूप से तीन प्रकार के योग माने गए हैं- ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग। गीता में मनोविज्ञान का अत्यन्त गम्भीर व विस्तृत विवेचन है। इसकी विवेचना से कई प्रकार के अनुत्तरित सवालों का भी जवाब मिलता है। इसे हम ज्ञानप्रधान कहें, कर्मप्रधान या भक्तिप्रधान, मूल में एक मन को ही देखते हैं। इन तीनों योग में मन की प्रवृत्ति-निवृत्ति एवं लय का वर्णन है। मन ही है जो योगों को साधने का काम करता है, विज्ञान को समझता है।
मन की गति पर करें विचारइस मन की गति का विचार करके श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि कर्म में ही तेरा अधिकार है कर्मफल में नहीं। अत: कर्मफल के कारण कर्म के प्रवृत्त नहीं होना है न ही अकर्म में प्रवृत्ति होनी चाहिए। वस्तुत: ऋषि मानव मन की प्रवृत्तियों को समझने में निपुण थे अत: कर्म से पूर्व कर्मफल के प्रति आसक्ति के दुष्प्रभावों को जानते थे।- रक्षा कवच है शिव का यह यंत्र, मौत को भी दे सकता है मात
यही कारण है कि मन की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए ही भोग की अपेक्षा त्याग को महत्व दिया। कर्म फल की आसक्ति से निश्चयात्मक बुद्धि का विनाश होता है एवं कर्म के प्रति उदासीनता मनुष्य को अकर्मण्य बना देती है। ऐसी स्थिति में अनेक कुत्सित प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं एवं अनेक दुष्परिणामों को उत्पन्न करती हैं। इस प्रकार मनुष्य का आत्मस्वरूप की अभिव्यक्ति से कोई सम्बन्ध न होकर, आहार-निद्रा-भय-मैथुन मात्र ही प्रयोजन रह जाता है। मन की प्रवृतियों को समझें
ऐसा मानव बुद्धिरहित एवं कुंठित हो जाता है तथा जडता के कारण कुत्सित कर्मों में प्रवृत्त होता है। वह व्यक्ति अपने स्वार्थ के कारण बन्धुजनों के प्रति अत्यन्त कू्रर बन जाता है। कू्ररता के कारण श्रद्धा जड हो जाती है व ऐसा व्यक्ति अपने लोगों के प्रति घोर प्रतिक्रियावादी हो जाता है।अतः मन की इन प्रवृत्तियों को समझकर लोभ एवं क्रोध को नियन्त्रित करना ही मनुष्य जन्म की सार्थकता है। अन्यथा सभ्यता, संस्कृति एवं राष्ट्रों के संघर्ष के रूप में मानवता को एक कल्पनातीत विनाश का सामना करने से रोकना अत्यन्त कठिन होगा।