असित कुमार मिश्र
चाउर कहते ही भारत का कोई भोजपुरिया गाँव, गाँव के किसी कच्चे मकान के खुले आँगन में मिट्टी का चूल्हा, चूल्हे से उठता धुआँ और धुएँ के बीच बटुली में भात पका रही किसी औरत का चित्र सा बन जाता है। और खूबी ये कि उस चित्र में एक भोजपुरिया औरत के देह में सैकड़ों हाथ होते हैं। किसी हाथ से गोबर के कंडे बनाते हुए,किसी हाथ से बच्चे को नहलाते हुए,किसी हाथ से स्वेटर के भूले बिसरे डिजाइन को मर चुके ऊन में जिलाते हुए…लेकिन जब अचानक ख्याल आता है कि भात पक चुका होगा तो उन्हीं सैकड़ों हाथों में से एक हाथ कल्छुल पकड़ता है और दूसरा हाथ बड़ी खूबसूरती से बटुली में से चावल का एक दाना निकाल कर छूता है। इस छुवन में हाथों की उंगलियाँ जलती तो हैं, लेकिन वह मसला जा चुका चावल का एक दाना गवाही दे जाता है कि भात पक गया।
आज इसी भोजपुरी क्षेत्र में जब भोजपुरी साहित्य,भोजपुरी गीत और भोजपुरी फिल्मों की बात चलती है तो अनायास मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की सचिव डॉ0 Nusrat Mehdi साहिबा का एक शे’र याद आ जाता है –
जिस सिम्त भी देखूं, है सराबों की सलीबें।
फैला है अजब रेत का दरिया मेरे आगे।।
यह ‘अजब रेत का दरिया’ भोजपुरी का वर्तमान है। भोजपुरी फिल्मों का अधिकांश भाग फिल्म के नाम पर लचर कहानी, गुंडई से भरे संवाद और नायिका के कमर या वक्ष पर कैमरे की गड़ी नज़र से ही भरी होती है। गानों के नाम पर द्विअर्थी बोल और अश्लीलता तो जैसे किसी ब्लू फिल्म का गायन में सीधे-सीधे रुपांतरण हो गया हो। भोजपुरी के नाम पर खुली अकादमियों की रिपोर्टिंग करने गए बिहार के वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र आश्चर्यचकित रह गए, जब उन्होंने देखा कि भोजपुरी अकादमी पटना के कमरे में बैठकर दो चार लोग गाँजा पी रहे थे। अगल-बगल अन्य भाषाओं की अकादमियों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी।
ऐसे ‘अजब रेत के दरिया’ में ही अपनी कश्ती लेकर निकले हैं बिहार के ऊर्जावान युवा फिल्मकार Amit Mishr। अश्विनी ‘रुद्र’ की कहानी पर इन्होंने फिल्म बनाई है ‘ललका गुलाब’।
ललका गुलाब में अपनी दिवंगत पत्नी को हमेशा याद करने वाले विधुर बाबा हैं और उनका दस-बारह वर्षीय पौत्र। दोनों एक दूसरे के सुख-दुख के साथी हैं।इस साथ में, साथ-साथ खेलना, खाना, नहाना, अपनी-अपनी कहानियाँ और तेरह के पहाड़े सुनना-सुनाना भी शामिल है। एक दिन सोते समय लड़का पूछ बैठता है – बाबा! दादी को सबसे ज्यादा क्या पसंद था?
बाबा के सामने जैसे नव ब्याहता के रूप में उनकी प्राणप्रिया चलीं आतीं हैं और वो कहीं अतीत में खोये हुए से हुए कहते हैं – “जानते हो!वो थोड़ी नये जमाने की थीं न! उन्हें लाल गुलाब बहुत पसंद था”।
यह एक वाक्य भोजपुरी क्षेत्र की पूरी करुण-गाथा कहने में सक्षम है। जहाँ सूरज की किरणों से लेकर विकास की किरण तक बहुत देर से पहुँचती है जहाँ ‘गिरमिटिया’ बनना आज भी नियति नहीं सौभाग्य है। वहाँ बस किसी औरत का लाल गुलाब पसंद करना ही प्रगतिशीलता है।
पत्नी का अचानक छोड़ कर चले जाना बाबा के लिए दुखदायी तो है लेकिन इस दुख में भी उन्हें विश्वास है कि वो एक दिन मेरे लिए आएंगी और मुझे भी ले जाएंगी अपने साथ। यह विश्वास उन्हें किसी और दुनिया का नागरिक बना देता है जहाँ उनका बेटा और पतोहू उनकी इस स्थिति पर दुख तो व्यक्त करते हैं लेकिन उनके अंदर का एकनिष्ठ प्रेम समझ नहीं पाते। दरअसल बाबा इस दुनिया के ‘अनिवार्य सत्य’ को समझ नहीं पाते कि – सूली ऊपर सेज पिया की। किस विधि मिलणा होय…
एक रात बाबा से लड़का पूछ ही बैठता है – बाबा! आप रोज दादी का इंतजार करते हैं आखिर दादी कब आएंगी?
बाबा जैसे आदेश देने वाले रूप में वैरागी हुए कहते हैं – आज ही रात को आएंगी वो। अगर आज नहीं आईं तो फिर कभी नहीं आएंगी। तुम हमारा सामान तैयार कर दो।
लड़के ने एक बैग में उनका सारा सामान रख दिया और सो गया। रात को दादी आतीं भी हैं लड़का उन्हें छोड़ने भी जाता है अचानक दुआर पर महक रहे ललका गुलाब को देखकर तोड़ लेता है और बाबा को देते हुए कहता है – “ए बाबा! लीजिए ललका गुलाब। आपने कहा था न कि दादी को ललका गुलाब बहुत पसंद है” ….
पता नहीं बाबा और दादी का मिलन होगा या नहीं? ललका गुलाब अपने मेअयार तक पहुँच सका या नहीं? प्रकृति के अनसुलझे सवाल मानव सुलझा भी सकता है या नहीं? इन सवालों के जवाब तो पूरी फिल्म देखने के बाद ही मिल सकेंगे।
यह कहानी शुरू होती है न्यूयॉर्क में एक समन्दर के किनारे से। जहाँ लड़का अपने बाबा की कहानी के द्वारा प्रकृति के कुछ अनसुलझे रहस्यों से अकेला लड़ रहा है लेकिन फिल्म के खत्म होने पर दर्शक उन सवालों से लड़ने लगता है। एक कहानीकार या एक फिल्मकार की कुल योग्यता यही है कि वो अपने सवाल संदेश और उद्देश्य दर्शकों के दिमाग़ में भर ही दे।
एक फिल्म के रुप में ललका गुलाब अपने उद्देश्य में सफल ही नहीं है बल्कि यह वर्तमान भोजपुरी की बटुली का वही पहला ‘चाउर’ है, जिससे भविष्य की भोजपुरी पूर्णत: पकी हुई दिख रही है।हालांकि इस चाउर को पकाने में अमित मिश्र की भी उंगलियाँ जली हैं। एक समय ऐसा भी आया जब अमित को अपनी लगन और अपना जमीर छोड़कर सब कुछ गिरवी रखना पड़ा ताकि फिल्म पूरी हो सके। कहा भी तो है न कि – ‘दाना खाक में मिलकर गुलेगुलज़ार होता है’।
और तभी भोजपुरी के एक नये स्वरूप और कलेवर का उदय किया है इस नये लड़के ने और वो भी पूरी गंभीरता से।
फिल्म का छायांकन हो या पार्श्व गीत, वातावरण हो या संवाद हर जगह उत्कृष्ट और यही कारण है कि’ ललका गुलाब’ फिल्म कुछ चुनिंदा फिल्मों के समांतर खड़ी है। अमेरिका के लाॅस एंजिल्स में हो रहे ‘बिग शाॅर्ट्स इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ के सेमीफाइनल में जगह बनाने वाली कुछ फिल्मों में एक ललका गुलाब भी है।
भोजपुरी साहित्य में अकादमिक उदासीनता का रोना रोने वालों के सामने भी अमित मिश्र एक उदाहरण बन कर उभरे हैं। इन्होंने बताया है कि लाखों-करोड़ों अकादमियाँ बनाने से बेहतर है एक दर्जन अमित मिश्र बना देना। भोजपुरी आठवीं अनुसूची में ही नहीं विश्व भर में पढ़ी बोली और समझी जाने लगेगी।
भारत में यह शाॅर्टफिल्म अप्रैल में रिलीज़ होगी। बधाई भोजपुरी में एक नये युग का सूत्रपात करने के लिए अमित…