अद्धयात्म

अनोखा गांव! यहां एक सप्ताह पहले मनाते हैं दिवाली

दस्तक टाइम्स/एजेंसी :

diwali2-1446883620मूल रूप से बस्तर की दियारी पर्व का अर्थ फसल व पशुधन की रक्षा और अभिवृद्धि से होता है और यह संपूर्ण दियारी पर्व का केंद्र बिन्दु होता है। धोरई चरवाह जो प्राय: महार जाति का होता है, इस धोरइयों के द्वारा गाय चराई के रूप में पैसे नहीं लिए जाते हैं। बस्तर में पशुधन स्वामियों द्वारा धोरई परिवार को भरण-पोषण के रूप में भांड देने की भी प्रथा है।

छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के एक गांव सेमरा (सी) में 5 नवंबर को दिवाली मनाई गई। पूरे देश में यह पहला ऐसा गांव होगा, जहां हर त्योहार सप्ताह भर पहले ही मना लिया जाता है। ग्राम देवता की प्रसन्नता के लिए ग्रामीण ऐसा करते हैं। एक तरफ गांव के सभी लोग दीपावली का उत्सव मनाने के लिए एकजुट हैं। वहीं, आस-पास के गांव और काफी संख्या में लोगों के रिश्ते-नातेदार सेमरा (सी) पहुंचे हैं। यह गांव अपनी विशेष परंपराआें के लिए जाना जाता है। यहां प्रमुख त्योहार करीब एक सप्ताह पहले ही मना लिए जाते हैं।

छत्तीसगढ़ पूरे भारतवर्ष में अपनी विशिष्ट परंपराओं और सभ्यता-संस्कृति के लिए पहचाना जाता है। यहां मनाए जाने वाले पर्व और त्योहारों की भी अपनी विशिष्टताएं हैं। छत्तीसगढ़ में दिवाली को देवारी पर्व के रूप में जाना जाता है, तो बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में लोग इसे दियारी के रूप में मनाते हैं। दियारी का अर्थ फसल व पशुधन की रक्षा और अभिवृद्धि है।

 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हेमू यदु ने बताया कि प्राय: दिवाली या दीपावली हिंदी के शब्द हैं, वहीं छत्तीसगढ़ में देवारी के रूप में दिवाली मनाई जाती है। देवारी पूर्णरूप से छत्तीसगढ़ी भाषा का शब्द है। वरिष्ठ पुरातत्वविद् लक्ष्मीशंकर निगम ने बताया कि दिवाली और देवारी में सिर्फ उच्चारण का फर्क है, दोनों एक ही हैं। निगम ने बताया कि लक्ष्मी पूजा के दूसरे दिन मनाए जाने वाला गौरा-गौरी पर्व शक्तिपूजा से संबंधित है। गरियाबंद के दुर्गा मंदिर के पंडित खड़ानन दुबे ने बताया कि ग्रामीण अंचलों में बरसों से दिवाली पर्व पर आकाशदीप जलाने की परंपरा थी, लेकिन अब लाइट व झालरों के चलते यदा-कदा ही यह दिखने को मिलता है।

 

वहीं, मगरलोड के रहने वाले फगुवाराम साहू ने बताया कि छग में देवारी का त्योहार दशहरे के बाद घरों की साफ-सफाई से ही शुरू हो जाता है। बस्तर के सामान्यजन जहां कार्तिक मास की अमावस्या को रामकथा के अनुरूप लक्ष्मीजी की पूजा के बाद पटाखे फोड़कर रोशनी के साथ दीपावली पर्व मनाते हैं, वहीं बस्तर का आदिवासी इन सभी परंपराओं से सर्वथा अछूता रहकर क्वार-कार्तिक मास में लक्ष्मी पूजा के स्थान पर लक्ष्मी फसल, विवाह, लक्ष्मी जगार का आयोजन कर अन्न व पशुधन पर केंद्रित दियारी मनाता है, जिसका केंद्र होता है बस्तर का धोरई तथा चरवाह। बस्तर के आदिवासी भी प्राय: तीन दिन तक दियारी मनाते हैं।

 

सामान्यतः दीपावली के पहले दिन धनतेरस, दूसरे दिन गोवर्धन पूजा और तीसरे दिन लक्ष्मी पूजा का अनुष्ठान किया जाता है। बस्तर के आदिवासी भी लक्ष्मी की पूजा करते हैं, लेकिन उनके लिए खेतों में खड़ी फसल ही लक्ष्मी का स्वरूप होती है और आदिवासी जनजीवन में माटी पूजा का महत्व होता है। गांव के पुजारी की अनुमति से ही ग्राम प्रमुखों की बैठक बुलाई जाती है और इसमें दियारी बनाने का दिन सुनिश्चत किया जाता है।

 

 

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