नई दिल्ली : 150 साल पुराने एडल्ट्री कानून की कमियां सामने आने के बाद उसकी समीक्षा की जरूरत भी अब महसूस की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस पर सुनवाई कर रही है। महिला-पुरुष समानता की दृष्टि से ये धारा 497 में बदलाव खासा अहम माना जा रहा है।
एडल्टरी या धारा 497 : धारा 497 केवल उस व्यक्ति के संबंध को अपराध मानती है, जिसके किसी और की पत्नी के साथ संबंध हैं। पत्नी को न तो व्यभिचारी और न ही कानून में अपराध माना जाता है, जबकि आदमी को पांच साल तक जेल का सामना करना पड़ता है, यदि कोई पुरुष किसी विवाहित महिला के साथ उसकी सहमति से शारीरिक संबंध बनाता है लेकिन उसके पति की सहमति नहीं लेता है तो उसे पांच साल की जेल होगी, लेकिन जब पति किसी दूसरी महिला के साथ संबंध बनाता है तो उसे अपने पत्नी की सहमति की कोई जरुरत नहीं है। यह वास्तव में दिलचस्प है कि ‘एडल्टरी’ के अपराध को 1837 में थॉमस बाबिंगटन मैकॉले यानि लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में तैयार भारतीय दंड संहिता के पहले ड्राफ्ट में स्थान नहीं मिला था। हालांकि, कानून आयोग ने 1847 में दंड संहिता पर अपनी दूसरी रिपोर्ट में एक अलग विचार लिया और लिखा- जबकि हम सोचते हैं कि व्यभिचार का अपराध संहिता से नहीं छोड़ा जाना चाहिए, हम विवाहित महिला के साथ व्यभिचार के लिए अपनी संज्ञान को सीमित कर देंगे और इस बात पर विचार करते हुए कि इस देश में महिला की हालत, इसके प्रति सम्मान में, हम अकेले पुरुष अपराधी को दंड के लिए जिम्मेदार ठहराएंगे। हालांकि, कानून आयुक्तों द्वारा यह सिफारिश स्वीकार नहीं की गई थी, और 1860 में आई धारा 497 के रूप में आज जो हमारे सामने है, इसे लागू किया गया था।
पीआईएल ने अदालत के समक्ष निम्नलिखित प्रश्न उठाए
– क्या रिश्ते में मनुष्य अकेला महिला को रिझा सकता है?
– क्या एक महिला व्यभिचार करने में असमर्थ है?
– क्या पुरुष को ही जेल जाना होना अगर उसके किसी और की पत्नी के साथ संबंध हैं?
– अगर पति अपनी पत्नी के साथ रिश्ते के लिए अपनी सहमति देता है तो क्या यह जायज़ हो जाएगा?
– क्या पति की सहमति का कानून किसी महिला को एक वस्तु की तरह नहीं आंक रहा?
सीआरपीसी की धारा 198(2) : इस अपराध में सिर्फ पति ही शिकायत कर सकता है, पति की अनुपस्थिति में महिला की देखभाल करने वाला व्यक्ति कोर्ट की इजाजत से पति की ओर से शिकायत कर सकता है। जोसेफ शाइनी की जनहित याचिका में आइपीसी की धारा 497 और सीआरपीसी की धारा 198(2) को चुनौती दी, दलील थी कि आज औरतें पहले से मज़बूत हैं। औरत को किसी भी कार्रवाई से छूट दे देना समानता के अधिकार के खिलाफ है। आपराधिक कानून लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता लेकिन यह धारा एक अपवाद है, इस पर विचार की ज़रूरत है। पति की मंजूरी से किसी और से संबंध बनाने पर इस धारा का लागू न होना दिखाता है कि औरत को एक संपत्ति की तरह लिया गया है।
इससे पहले 1954, 2004 और 2008 में आए फैसलों में सुप्रीम कोर्ट आईपीसी की धारा 497 में बदलाव की मांग को ठुकरा चुका है, यह फैसले 3 और 4 जजों की बेंच के थे इसलिए नई याचिका को 5 जजों की संविधान पीठ को सौंपा गया है। न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ समेत पीठ ने नोट किया कि धारा 497 महिलाओं को सभी स्थितियों में पीड़ित के रूप में ही देखती हैं और आपराध के लिए केवल पुरुष ही जिम्मेदार हैं। अदालत ने जोर दिया कि जब समाज प्रगति करता है और लोगों पर नए अधिकार प्रदान किए जाते हैं, तो नए विचार भी बढ़ने चाहिए और इसलिए धारा 497 की समीक्षा अब की जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को फैसला दिया कि एडल्ट्री यानी व्याभिचार को महिलाओं के लिए अपराध नहीं बनाया जा सकता। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने यह भी कहा कि वह इस पर भी विचार करेगी कि एडल्ट्री को अपराध बनाए रखना चाहिए या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया है वह आईपीसी की धारा 497 के उस हिस्से से छेड़छाड़ नहीं करेगा जिसके तहत किसी और की पत्नी के साथ अवैध संबंध रखने वाले पुरुष को दोषी बनाया जाता है। बेंच ने आगे कहा कि वह इस बात की जांच करेगी कि आईपीसी की यह धारा कहीं ‘समानता के अधिकार’ का उल्लंघन तो नहीं करती है क्योंकि इसके तहत व्याभिचार करने वाली महिला को कानून के तहत सजा देने का कोई प्रावधान नहीं है। इस मामले में केंद्र सरकार ने शपथपत्र दिया था कि IPC की धारा 497 और CPC की धारा 198(2) को खत्म करने का सीधा असर भारत की संस्कृति पर पड़ेगा, जो कि शादी की संस्था और उसकी पवित्रता पर जोर देता है।पिछले साल दिसंबर में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने केंद्र सरकार को धारा 497 की वैधता के संबंध में नोटिस भेजते हुए कहा था कि यह कानून बेहद प्राचीन लगता है और यह महिला को पुरुष के समकक्ष नहीं मानता है। हालांकि केंद्र ने अपने शपथपत्र में कहा कि धारा 497 एक उचित प्रावधान है और इसका होना अनिवार्य है।