दस्तक टाइम्स/एजेंसी:
यह कुछ ही दिनों के भीतर दूसरी बार है जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दाल और तेल की आसमान छूती क़ीमतों के अपने ज़रूरी मुद्दे पर सफ़ाई देने की जगह बुद्धिजीवियों पर मिथ्या आरोप लगाने में अपनी ऊर्जा जाया की है। लेकिन ये आरोप ख़ुद ही अपनी राजनीतिक सीमाओं की कलई खोलते हैं।
उनका पहला आरोप है कि विरोध करने वाले यह बताने में जुटे हैं कि भारत में सामाजिक सहिष्णुता नहीं है। यह झूठ है। भारत के लेखक और बुद्धिजीवी इस सामाजिक सहिष्णुता और सहनशीलता पर सबसे ज़्यादा यकीन करते हैं और इसी को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। बुद्धिजीवी यह नहीं कह रहे कि इस देश में सामाजिक सहिष्णुता की परंपरा नहीं है, वे बस यह कह रहे हैं कि जो लोग इस परंपरा को तार-तार करने में लगे हैं, सरकार उनका बचाव कर रही है, उनको संरक्षण दे रही है।
ऐसा संरक्षण पाने वाले लोगों में गोहत्या के नाम पर जान लेने और ज़हर उगलने वाले कार्यकर्ताओं से लेकर गोमांस खाने वालों को देश छोड़ देने और मोदी को वोट न देने पर पाकिस्तान चले जाने की सलाह देने वाले मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री तक शामिल हैं। सरकार ने सबको फटकार लगाने का बयान देने के अलावा कुछ किया हो, किसी को नहीं मालूम। आरएसएस और बीजेपी की वैचारिक खाद पर पली तरह-तरह की सेनाएं कहीं लव जेहाद के नाम पर युवाओं के साथ मारपीट कर रही हैं, कहीं गोमांस को लेकर बुज़ुर्गों के चेहरे पर कालिख पोत रही है – और वित्त मंत्री इन्हें अपवाद और फ्रिंज एलिमेंट्स मानते हुए, उन लेखकों और वैज्ञानिकों को असहिष्णु बता रहे हैं जिन्होंने सिर्फ़ अपना सम्मान लौटाने या किसी ज्ञापन पर दस्तख़त करने के अलावा कुछ नहीं किया – कायदे से सड़क पर भी नहीं उतरे। यह बगावत नहीं है, नितांत शाकाहारी किस्म की असहमति है जो अगर स्वीकार्य न हो तो फिर हमारे लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं बचता है। लेकिन वित्त मंत्री इसे बनावटी विरोध और कागजी क्रांति करार देते हुए न सिर्फ इस लोकतांत्रिक असहमति का अपमान करते हैं, बल्कि अपने इस वक्तव्य से उन लोगों को बढ़ावा देते हैं जो अपनी हरक़तों से इस देश की सामाजिक समरसता को ज़्यादा बड़ी चोट पहुंचा रहे हैं।
वित्त मंत्री का दूसरा झूठ यह है कि ये वे लोग हैं जो दशकों से बीजेपी के पीछे पड़े हैं और 2002 के बाद प्रधानमंत्री उनकी वैचारिक असहिष्णुता के सबसे ज़्यादा शिकार हुए हैं। गुजरात में 2002 की विकराल हिंसा के बाद लेखक और बुद्धिजीवी अगर नरेंद्र मोदी की आलोचना नहीं करते तो किसकी करते? और यह आलोचना भी नहीं हुई होती तो गुजरात का क्या होता? फिर जितनी ख़ौफ़नाक यह हिंसा थी, उससे कहीं ज़्यादा खौफ़नाक इसको लेकर सरकारी रवैया था। यहां बीजेपी समर्थकों के इस सवाल का जवाब भी जरूरी है कि गुजरात पर बोलने वाले गोधरा पर ख़ामोश क्यों रहते हैं।
गोधरा निस्संदेह एक बेहद तकलीफदेह अपराध था। वह जिन लोगों ने किया, उनको सज़ा मिलनी चाहिए। लेकिन गोधरा में मारे गए कारसेवकों के शव उनके शोकग्रस्त घरों को भेजने की जगह अहमदाबाद मंगवा कर उनके सार्वजनिक जुलूस का फ़ैसला जिन लोगों ने किया, उन्होंने पूरे गुजरात को अगले दो महीनों के लिए एक जलती हुई ट्रेन में बदल डाला। इस राक्षसी प्रतिशोध का कोई विरोध न करे तो वह बुद्धिजीवी क्या, सहज मनुष्य होने का अधिकारी नहीं है। सच तो यह है कि गोधरा में मारे गए लड़कों के इस राजनीतिक इस्तेमाल पर उनके घरवालों ने बाद में सवाल खड़े किए। गुजरात में ऐसे परिवार मिल जाते हैं जिनके बच्चे मारे गए और जिनके नाम पर स्मारक बनाने से लेकर किसी तरह की मदद पहुंचाने का अपना वादा संघ परिवार भूल गया। 2002 की इस हिंसा के बचाव में 1984 की हिंसा को पेश किया जाता है – जैसे एक बीजेपी की हिंसा हो और दूसरी कांग्रेस की। जबकि सच्चाई यह है कि दोनों के पीछे मानसिकता एक ही थी, और तबका भी एक ही था। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि पंजाब में हिंदुओं के क़त्लेआम से दुखी संघ ने तब राजीव गांधी और कांग्रेस का साथ दिया था और नानाजी देशमुख ने बाकायदा भाषण देकर 84 की हिंसा का बचाव किया था। यह वह दौर था, जब अटल बिहारी वाजपेयी बीजेपी को गांधीवादी समाजवाद से जोड़ने की कोशिश कर रहे थे और दो सीटों तक सिमट कर रह गए थे।
बहरहाल, अरुण जेटली के आरोप पर लौटें। क्या यह सच है कि लेखकों और बुद्धिजीवियों ने दशकों से सिर्फ बीजेपी का विरोध किया है? क्या यह सच है कि वे कांग्रेस और लेफ्ट के एजेंडे पर काम करते रहे हैं? वे कौन लोग थे जिन्होंने 2007 में सिंगूर और नंदीग्राम को लेकर सीपीएम का विरोध किया? उनमें एक भी भाजपाई लेखक और संस्कृतिकर्मी नहीं था। तब भी यही रोमिला थापर थीं और तब भी यही इरफ़ान हबीब थे जिन्होंने उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई। महाश्वेता देवी, सुनील गंगोपाध्याय, जय गोस्वामी, गुजरात में जिनके बाल खींचे गए, वे मेधा पाटकर, बंगाल के ही राज्यपाल रहे गोपालकृष्ण गांधी, फिल्मकार अपर्णा सेन और तपन सिन्हा, रंगकर्मी शांवोली मित्र और गायक कबीर सुमन- इन तमाम लोगों ने सीपीएम की बर्बरता का तीखा प्रतिरोध किया। नंदीग्राम डायरी लिखने के लिए एक युवा लेखक पुष्पराज को जेल जाने की नौबत आई। इनमें कबीर सुमन बाद में तृणमूल के सांसद भी बने। लेकिन अंततः सत्ता में बैठी ममता से उनकी नहीं बनी। आज वे अकेले हैं। लेखक और संस्कृतिकर्मी हमेशा प्रतिपक्ष में ही रह सकते हैं।
लेकिन अरुण जेटली यह देखने को तैयार नहीं होते। वे यह भी नहीं देखते कि इमरजेंसी के दौरान कितने लेखकों ने जेल भुगती और इन तमाम वर्षों में लेखक कितनी बार सड़क पर उतरे। इमरजेंसी में फणीश्वरनाथ रेणु और शिवराम कारंत ने अपने पद्मसम्मान लौटाए। रेणु, नागार्जुन, रघुवंश, हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह जैसे लेखकों, कुमार प्रशांत जैसे गांधीवादी और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों सहित अलग-अलग भाषाओं से जुड़े ढेर सारे प्राध्यापकों और बुद्धिजीवियों ने जेल काटी। यह सिलसिला हमेशा बना रहा है। 2009 में शीला दीक्षित सरकार के ख़िलाफ़ सात लोगों ने अपने घोषित पुरस्कार लेने से इनकार किया जिनमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल था।
तो अरुण जेटली का यह झूठ अपने-आप तार-तार हो जाता है कि ये लेखक और बुद्धिजीवी सिर्फ बीजेपी के विरुद्ध रहे हैं। बेशक बीजेपी जिस विचारधारा के साथ खड़ी है, उसे एक सहिष्णु, मिलनसार भारत मंज़ूर नहीं है। यह उसकी मजबूरी है कि वह समरसता और सदभाव की बात करती है- वरना गुरु गोलवलकर से लेकर मोहन भागवत तक अपनी वैचारिक समझ से और आडवाणी से लेकर मोदी तक अपने आचरण से इस समग्र भारत को ख़ारिज करते रहे हैं। लेखक उनसे इस अधूरे, एकांगी, हिंदू भारत के साथ खड़े नहीं हो पाते, इसलिए वे गद्दार हो जाते हैं। धर्मनिरपेक्षता इसलिए गंदा शब्द हो जाती है।
जेटली यह भी नहीं देखते कि लोकतंत्र और असहमति का सम्मान करने वाली सरकारें कितनी दूर तक जाकर यह काम करती हैं। साठ के दशक में हॉलीवुड की अभिनेत्री जेन फॉन्डा ने हनोई रेडियो पर अमेरिकी सैनिकों से अपील की कि वे वियतनाम के विरुद्ध युद्ध में हिस्सा न लें। यह सीधे-सीधे देशद्रोह की श्रेणी में आता, लेकिन अमेरिका की एक कमेटी ने माना कि फॉन्डा ने गलत किया था, मगर नतीजा यह निकाला कि इससे अमेरिका में अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान दुनिया भर में बढ़ा है। इसी तरह जब ज्यां पॉल सार्त्र ने अल्जीरिया की आज़ादी के हक़ में बयान दिया तो फ्रांस में उनकी गिरफ़्तारी की मांग होने लगी। तब फ्रांस के राष्ट्रपति रहे चार्ल्स द गाल ने कहा था कि फ्रांस अपने वाल्टेयर को गिरफ़्तार नहीं कर सकता।
लेकिन जेटली अपने लेखकों की बात सुनने की जगह, उनकी असहमति का सम्मान करने या उसको सहन भर करने की जगह उन्हें बागी करार देते हैं, उन पर साज़िश का इल्ज़ाम लगाते हैं, उन्हें प्रायोजित विरोध का मुजरिम ठहरा देते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह प्रवृत्ति किस राजनीतिक प्रशिक्षण से आती है। संघ परिवार में उनके पितृ पुरुषों के आदर्श रहे हिटलर के सखा गोएबेल्स का काम भी ऐसा ही कुछ था- एक झूठ को बार-बार बोलना, ताकि वह सच लगने लगे। यह काम जेटली ने फिलहाल दूसरी बार किया है।
जेटली की टिप्पणी का सबसे विडंबनापूर्ण वाक्य यह है कि प्रधानमंत्री लेखकों की वैचारिक असहिष्णुता के सबसे बड़े ‘विक्टिम’ या शिकार रहे हैं। जेटली इस एक वाक्य से ‘शिकार’ शब्द से उसका पूरा अर्थ छीन लेते हैं, उसकी पूरी पीड़ा नष्ट कर देते हैं। जो सबसे ‘बदतरीन शिकार’ है, वह इस देश का प्रधानमंत्री बन जाता है। अगर मोदी विक्टिम हैं, शिकार हैं, पीड़ित हैं- तो ऐसा विक्टिम, ऐसा शिकार, ऐसा पीड़ित होना कौन नहीं चाहेगा? और अगर मोदी यह सब हैं- तो गुजरात की बेस्ट बेकरी में झुलस कर मारे लोग क्या हैं? नरोदा पटिया में क़त्ल कर दिए गए लोग कौन हैं? वे लेखक और विचारक क्या हैं जिनकी बीते सालों में हत्या कर दी गई? जिनकी किताबें जलाई गईं, जिनको धमकाया गया, जिन्हें देश छोड़कर परदेस में मरने की नियति झेलनी पड़ी, जिनके चेहरे पर कालिख पोती गई, वे क्या हैं?
यह दरअसल शब्दों को अर्थहीन बना देने की राजनीति है। यह समाज को स्मृतिविहीन बना देने का खेल है। यह नई ‘स्मृति’ गढ़ने का खेल है। अरुण जेटली नया कुछ नहीं कर रहे, बीजेपी की जानी-पहचानी राजनीति पर अमल कर रहे हैं। देश, धर्म और राजनीति के अर्थ बदलने का वह खेल, जिसके जरिए वह सत्ता तक पहुंचने में कामयाब रही है। मगर यह खेल कब तक छुपा रहेगा, यह देखने की बात है।