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इसरो के ‘फैट बॉय’ पर क्यों न इतराए देश?

राजीव रंजन तिवारी
बेशक, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का ‘फैट बॉय’ देश की शान बन चुका है। इस बड़ी कामयाबी पर देश इतरा रहा है। इतराए भी क्यों नहीं, तेरह मंजिला इमारत जितना ऊंचा और तीन सौ करोड़ रुपए की लागत से बना देश का सबसे बड़ा और शक्तिशाली स्वदेशी रॉकेट भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यानी जीएसएलवी-एमके-3 पांच जून को निर्धारित समय शाम 05.28 बजे सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में प्रक्षेपित जो कर दिया गया। ‘फैट बॉय’ उपनाम वाले इस यान का कुल वजन 460 टन यानी दो सौ हाथियों के बराबर है। इसमें चार टन के भारी-भरकम संचार उपग्रह जीसैट-19 को भेजा गया है। पच्चीस घंटे की उलटी गिनती पूरी होने के बाद इसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की देखरेख में श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से छोड़ा गया। निश्चित रूप से यह देश के लिए ऐतिहासिक दिन था। ऐसा कहना कतई गलत भी नहीं है, क्यों इसे अंतरिक्ष में भारत की लंबी छलांग के तौर पर देखा जा रहा है। निश्चित रूप से इसरो ने भारत विरोधियों को चिढ़ने का एक मौका दे दिया है, जो अच्छा लग रहा है। इस कामयाबी का पहला और सबसे बड़ा लाभ देश को यह होगा कि भविष्य में अंतरिक्ष यात्री भेजे जा सकेंगे। इंटरनेट की गति बढ़ेगी।
जानकार मानते हैं कि इसरो ने अपना सबसे शक्तिशाली रॉकेट सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर एक अहम मुकाम हासिल कर लिया है। यह रॉकेट मानव मिशन के लिए पृथ्वी की निचली कक्षा में10 टन वजनी कैप्सूल को भी ले जा सकता है। भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान-मार्क 3 या जीएसएलवी-एमके 3 का उपनाम ‘फैट बॉय’ रखा गया है। इसके जरिये इसरो ने अपने रॉकेटों के लिए घरेलू समाधान डिजाइन करने में अपनी महारत दिखा दी है। रॉकेट अपने साथ 3,136 किलोग्राम का एक जीसैट-19 उपग्रह लेकर गया। इस उपग्रह में संचार ट्रांसपोंडर लगे हुए हैं। यह उपग्रह मिनिएचराइज्ड हीट पाइप, फाइबर ऑप्टिक जायरो, माइक्रो इलेक्ट्रो-मैकेनिकल सिस्टम्स (एमईएमएस) एक्सेलरोमीटर, कू-बैंड टीटीसी ट्रांसपोंडर और स्वदेशी लिथियम आयन बैटरी जैसी तकनीकों का परीक्षण करेगा। 16 मिनट की उड़ान के बाद रॉकेट ने जीसैट-19 को निर्धारित कक्षा में स्थापित कर दिया। अकेला जीसैट-19 अंतरिक्ष में मौजूद पुराने 6 से 7 संचार उपग्रहों के बराबर होगा। आज कक्षा में मौजूद 41 भारतीय उपग्रहों में से 13 संचार उपग्रह हैं। बताते हैं कि इसरो के नियंत्रण कक्ष में खुशी का मौहाल था, जहा वैज्ञानिक पिछले कुछ हफ्तों से दिन-रात काम कर रहे थे। इसरो के चेयरमैन एएस किरण कुमार ने अपने बयान में कहा कि यह हमारे लिए ऐतिहासिक दिन है। इसरो ने इस मिशन को सफल बनाकर अपनी क्षमता दिखा दी है। जीसैट-19 की आयु 10 साल है। यह मल्टी-बीम उपग्रह है। इसरो ने अपने जीएसएलवी-एमके2 के जरिये 2 टन के उपग्रहों को प्रक्षेपित करने की क्षमता विकसित कर ली थी।
आपको बता दें कि भारत ने पिछले साल ही मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) में प्रवेश किया है। इसरो ने रूसी इंजन के साथ पहला जीएसएलवी रॉकेट बनाया और इसे 2001 में प्रक्षेपित किया। लेकिन इसकी गति इतनी नहीं थी कि यह उपग्रह को कक्षा में प्रक्षेपित कर पाता। उसके बाद इसरो ने रूसी तकनीक के प्रभाव वाले अपने क्रायोजेनिक स्टेज पर काम किया और बीते वर्ष इसे परिचालन में लाने से पहले कई जीएसएलवी एमके-2 रॉकेट छोड़े। अब तक इसरो 10 जीएसएलवी रॉकेट छोड़ चुका है, जिनमें तीन क्रायोजेनिक स्टेज वाले भी हैं। ये इसरो ने ही बनाए हैं। दिसंबर 2014 में इसरो ने डिजाइन के प्रदर्शन के लिए बिना क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी एमके3 के छोटे संस्करण का परीक्षण किया था। कक्षा से नीचे की उड़ान में यह रॉकेट एक ऐसी तकनीक को साबित करने के लिए 3,775 किलोग्राम का क्रू-मॉड्युल एटमोसफियरिक री-एन्ट्री एक्सपेरिमेंट (केयर) ले गया, जिसका इस्तेमाल भविष्य के मानव मिशन में किया जाएगा। जीएसएलवी-एमके-3 से इसरो को अपने भारी उपग्रहों के लिए विदेशी रॉकेटों की जरूरत नहीं पड़ेगी। यह देश के लिए गर्व की बात है। इसरो जीएसएलवी-एमके-3 रॉकेट में तीसरे चरण में गैस कंबस्टर साइकल का इस्तेमाल करता है, जिसमें घरेलू स्तर पर विकसित डिजाइन सीई-20 का इस्तेमाल किया गया है। इस डिजाइन का विकास महेंद्रगिरि स्थित लिक्विड प्रोपलशन सिस्टम सेंटर (एलपीएससी) ने किया है। इसका इंजन रूसी डिजाइन से प्रभावित इंजनों की तुलना में कम जटिल है। भारत का शुरू में क्रायोजेनिक तकनीक खरीदने को रूस से करार किया था। लेकिन 1990 के दशक की में अमेरिका ने एमटीसीआर का हवाला देते हुए इसमें रोड़ा अटका दिया। बाद में रूस ने अपना रुख नरम कर तकनीक हस्तांतरित किए बिना 6 क्रायोजेनिक इंजन दिए।
उल्लेखनीय है कि दूरसंचार के तेज गति से विकास ने दुनिया के अंतरिक्ष बाजार में 3500 किलोग्राम से अधिक वजन वाले उपग्रहों की मांग अचानक बढ़ा दी है। जीएसएलवी मार्क-3 के कामकाज शुरू करने के बाद हम संचार उपग्रहों के प्रक्षेपण में आत्मनिर्भर हो जाएंगे और विदेशी ग्राहकों को लुभाने में भी सफल होंगे। इस रॉकेट में स्वदेशी तकनीक से तैयार हुआ क्रायोजेनिक इंजन लगा है, जिसमें ईंधन के तौर पर द्रव ऑक्सिजन और हाइड्रोजन का इस्तेमाल होता है। इस प्रॉजेक्ट को पूरा करने में 15 साल लगे हैं। आगे यह रॉकेट भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को स्पेस में ले जाने का काम भी करेगा। दुनिया में उपग्रह प्रक्षेपण का बाजार तेजी से बढ़ रहा है और भारत इसमें तेजी से जगह बना रहा है। यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन हमें अपनी गति को और तेज करने की जरूरत है। अभी इस बाजार में कमाई के लिहाज से अमेरिका की हिस्सेदारी 41 प्रतिशत है जबकि भारत का हिस्सा बामुश्किल चार फीसदी तक ही पहुंचता है। चीन साल में कम से कम 20 प्रक्षेपण करता है। इस दृष्टि से भी हमें अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। हालांकि इसरो ने पिछले कुछ वर्षों की उपलब्धियों से यह साबित किया है कि अगर काम करने का माहौल और स्वतंत्रता मिले तो हमारे संस्थान भी विश्वस्तरीय प्रदर्शन कर सकते हैं। लेकिन इसरो की हर कामयाबी यह सवाल भी उठाती है कि भारत के बाकी वैज्ञानिक संस्थान इस स्तर का प्रदर्शन क्यों नहीं कर पा रहे? सेटेलाइटों और अंतरिक्ष यानों में भारत अमेरिका, रूस और चीन को टक्कर दे रहा है, लेकिन परमाणु ऊर्जा से लेकर हाईटेक सैनिक साजो-सामान तक के मामले में हम विदेश पर निर्भर हैं। इसमें भी सुधार होनी चाहिए।
बहरहाल, एमके-3 के निर्माण में देरी हुई है और इसे एक दशक पहले ही निर्मित हो जाना चाहिए था। लेकिन क्या यह बात कई और भी उपलब्धियों की बाबत नहीं कही जा सकती? जो हो, अब अपने भारी-भरकम उपग्रहों के लिए विदेशी रॉकेटों पर इसरो की निर्भरता खत्म हो गई है। वह अब दो से चार टन के संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने में सक्षम है। लिहाजा, अब भारत को इसके कारोबारी लाभ के बारे में भी सोचना चाहिए। यह उम्मीद भी है देश की शान बढ़ाने वाले वैज्ञानिकों को यदि सरकार भरपूर सुविधाएं दे तो वे निश्चित ही दुनिया में देश का नाम रोशन करेंगे।

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