उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में 2012 की तर्ज पर इस बार भी दलों भाजपा और कांग्रेस ने महिलाओं पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं किया।
देहरादून: विधानसभा से लेकर लोकसभा और तमाम अन्य मंचों से राजनीतिक दल महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और 33 फीसद आरक्षण की पैरवी तो करते हैं, लेकिन जब बात हक देने की आती है तो हाथ बांध लेते हैं।
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में 2012 की तर्ज पर इस बार भी दलों भाजपा और कांग्रेस ने महिलाओं पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं किया। भाजपा ने जहां सात फीसद हिस्सेदारी रखी, वहीं कांग्रेस की पहली सूची में महिलाओं को 12 फीसद सीटें ही मिल पाईं।लंबे इंतजार के बाद कांग्रेस ने 70 में से 63 सीटों पर प्रत्याशियों के नाम घोषित किए। इनमें से कुल आठ सीटों पर महिलाओं को प्रत्याशी बनाया गया। कांग्रेस ने मौजूदा विधायक ममता राकेश (भगवानपुर), सरिता आर्य (नैनीताल) और कैबिनेट मंत्री इंदिरा हृदयेश (हल्द्वानी) के साथ ही गोदावरी थापली (मसूरी), लक्ष्मी राणा (रुद्रप्रयाग), गंगा पचोली (सल्ट), सुनीता बाजवा(बाजपुर) और मालती बिश्वास (सितारगंज) को मैदान में उतारा है।
2012 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने 70 में से आठ (11 फीसद) सीटों पर महिला प्रत्याशी उतारे थे। वहीं, भाजपा ने छह (नौ फीसद) सीटों पर, उक्रांद ने 44 में से तीन और बसपा ने 70 में से तीन सीटों पर ही महिला प्रत्याशी उतारे। मौजूदा चुनाव में भी पार्टियां केवल जिताऊ महिला दावेदारों पर ही दांव लगाने की रणनीति पर चलीं।
ये तस्वीर बताती है कि राजनीतिक दलों में महिलाओं को प्रतिनिधित्व का दावा केवल चुनावी मंचों से महिलाओं को लुभाने तक ही सीमित है। इन दावों और वादों को लागू करने में कोई दल रुचि नहीं लेता।यही कारण है कि तमाम महिला नेता लंबे संघर्ष और काम करने के बाद भी राजनीति की मुख्य धारा से दूर ही रह जाती हैं। कारण, कोई भी दल उन्हें इस स्तर तक जाने का न जोखिम उठाना चाहता।