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“ऊंची अटरियों की सिसकियां”

पुस्तक-समीक्षा
श्री के. डी. सिंह
साहित्यकार एवं व्यंग्यकार
अलीगढ़

समीक्षा : बिम्मी कुंवर पेशेवर लेखिका नहीं हैं, न ही उनका दावा साहित्यकार होने का है, लेकिन उनका गद्य सरल और प्रवाहमान है। संग्रह की कहानियां मुख्यतः स्त्री विमर्श पर हैं, जिनमें समाज के दोयम दर्जे के पात्र हैं, जो हालांकि परिस्थितियों को हरा नहीं सकते, लेकिन लड़ने की जिजीविषा बरकरार है। बिम्मी कुंवर ने इसी केंद्रीय संवेदना को भली भांति ग्रहण कर कभी देशज, तो कभी दार्शनिक शब्दों में उकेर दिया है। एक सजग लेखकीय भावना, पात्र के अन्तरतम तक जाकर उसके दर्द को कुछ यूं जान लेने को आतुर है।

“इस कुचैली सी देहता और भटकी हुई चेतना में प्रवेश करके देखूं कि इसकी ओर से दुनिया कैसी लगती है, कितनी तुच्छ? कितनी हेय? कितनी क्रूर?
कायांतरण करोगी? प्रश्न ध्वनि में नहीं घट पाया था, बल्कि भीतर ही किन्ही तंतुओं में बस स्फुटन सी जगी थी!”

दर्द को पकड़ पाने की यह जिजीविषा जो कायांतरण की हद तक है, लेखिका को “ऑथेंटिक” बनाती है। जैसा कि “अपनी बात” में बिम्मी कुंवर खुद लिखती हैं। “नानी और मां के मुंह से सुनी हुई ये सारी कहानियां परत दर परत मेरे बालमन पर तह लगाती चली गईं!” लेखिका की यह स्वीकारोक्ति, इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इन कहानियों की जड़ें काल्पनिक नहीं हैं।

बावजूद इसके कि कथा संग्रह की सभी कहानियां स्त्री पात्रों की पीड़ा, संघर्ष और जिजीविषा पर केंद्रित हैं, इस पूरी पुस्तक को महज “स्त्री विमर्श” कहने के खिलाफ खुद काउंटर करते हुए, बिम्मी कुंवर की एक कहानी “फेरूआ” मानवीय संवेदना के उस पक्ष को शब्दबद्ध करती है, जो किसी नस्ल या स्त्री-पुरुष विमर्श से परे, केवल उस मानवीय भावना को परिभाषित करती है जो मनुष्यता से जुड़ी है। सरल और देशज भाषा में लिखी गयी ये कहानियां निश्चित रूप से पढ़ने योग्य हैं।

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