एशियाई फलक को बदलेगी नयी साझेदारी
जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के भारत दौरे के साथ जिस नयी साझेदारी की शुरूआत हुयी है उसे भारत, जापान और चीन की मीडिया ने अलग-अलग तरीके से देखने की कोशिश की है। भारत और जापान की मीडिया इस दोस्ती को चीन के खिलाफ एक अहम कदम के रूप में देखने की कोशिश के रूप में प्रदर्शित कर रहा है। एक जापानी अखबार ने एक लेख के जरिए भारत और जापान के शीर्ष नेताओं की मुलाकात को चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकने की कोशिश बतायी है। उसने लिखा है कि ’चीन जिस तरह से हिंद महासागर में अपना क्षेत्र का विस्तार कर रहा है, ऐसे में भारत और जापान के नेता मिलकर अपनी समुद्री सुरक्षा को बढ़ाना चाह रहे हैं।’’
भारत और जापान के बीच ऐतिहासिक सांस्कृतिक जीवंतताएं तो मौजूद ही हैं साथ ही आस्थाओं की ऐसी अन्योन्याश्रित बुनियादें भी हैं जिनकी कड़ियों को यदि सही से जोड़ लिया जाए, जो प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में फेविकोल के जोड़ से भी मजबूत जोड़ बनता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि दोनों देश यदि इन अन्योन्याश्रित सम्बंधों को सहेजने में सफल हो जाएं तो एशिया में ही नहीं बल्कि दुनिया में परस्पर, विकास एवं रणनीति की साझेदारी की नयी नजीर बन सकती है। अब दोनों देश इससे भी कुछ कदम आगे बढ़कर ‘टू प्लस टू’ की स्ट्रैटेजी पर चलने की तैयारी कर रहे हैं। तो क्या अब दो देश एशिया की रक्षा रणनीति में कुछ नए आयाम जोड़ेंगे? यदि ऐसा होता है तो फिर कुछ प्रश्नों का समाधान भी होना जरूरी होगा। पहला यह कि जब एशिया स्ट्रैटेजिक रिशेपिंग से गुजर रहा हो तब भारत-जापान एशिया के रक्षा वातावरण में किस तरह के तत्वों को संयोजित करना चाहेंगे? द्वितीय यह कि चीन पूरब में भारत के प्रयासों को लगातार चीन के विरुद्ध रणनीति का हिस्सा मानता आया है और भारत की लुक ईस्ट नीति को उसे घेरने की रणनीति (इनसर्कल टू चाइना) के रूप में देखता आया है, तब क्या भारत-जापान रक्षा रणनीति शांति के लिए कारगर सिद्ध हो पाएगी अथवा इससे स्थितियां कुछ और बिगड़ेंगी? क्या इन कदमों से भारत और जापान दोनों ही एशिया-प्रशांत में शक्ति संतुलन को बीजिंग से नई-दिल्ली या टोक्यो की ओर शिफ्ट करने में सफल हो पाएंगे? एक प्रश्न यह भी है कि क्या जापान इस शक्ति संतुलन में चीन के विरुद्ध भारत का साथ दे पाएगा अथवा भारत जापान का या फिर बहुत से संकोच दोनों के साथ बने रहेंगे?
जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के भारत दौरे के साथ जिस नयी साझेदारी की शुरूआत हुयी है उसे भारत, जापान और चीन की मीडिया ने अलग-अलग तरीके से देखने की कोशिश की है।
भारत और जापान की मीडिया इस दोस्ती को चीन के खिलाफ एक अहम कदम के रूप में देखने की कोशिश के रूप में प्रदर्शित कर रहा है। एक जापानी अखबार ने एक लेख के जरिए भारत और जापान के शीर्ष नेताओं की मुलाकात को चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकने की कोशिश बतायी है। उसने लिखा है कि ’चीन जिस तरह से हिंद महासागर में अपना क्षेत्र का विस्तार कर रहा है, ऐसे में भारत और जापान के नेता मिलकर अपनी समुद्री सुरक्षा को बढ़ाना चाह रहे हैं।’’ इसमें कोई संशय नही कि चीन जिस तरह से हिन्द महासागर में अपनी गतिविधियां चला रहा है, वह भारत के लिए सामरिक चुनौती की तरह है इसलिए भारत हर हाल में चीन को काउंटर करना चाहेगा। यदि जापान के साथ ‘टू प्लस टू’ रणनीति सफल हो जाती है तो भारत अपने इस उद्देश्य में सफल हो जाएगा। यही वजह है कि चीनी मीडिया भारत-जापान दोस्ती से तिलमिलाया हुआ है। हालांकि टू प्लस टू रणनीति के लिए जापान पहले से ही काफी इच्छुक है। भारत इसके लिए पहले ही अमेरिका के साथ अपनी सहमति व्यक्त कर चुका था। यदि जापान भी इसका हिस्सा बनता है तो भारत और जापान के हितों को अमेरिका के साथ-साथ एक ही फलक पर साध सकता है। ध्यान रहे कि टू प्लस टू डायलॉग भारत और जापान के बीच सुरक्षा सहयोग सम्बंधी पहले है जो यह संकेत करता है कि अब भारत और जापान सुरक्षा सहयोग में टू प्लस टू डायलॉग, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय मैरीटाइम एक्सरसाइज तथा हथियारों की बिक्री शामिल होगी। सबकेबिनेट/सीनियर ऑफिसियल्स के स्तर पर टू प्लस टू डायलॉग के लिए नई दिल्ली और टोक्यो के बीच सहमति बनाने का प्रयास 2009 में ही शुरू हो गया था लेकिन अभी तक यह अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाया। जबकि जापान को उत्तर कोरिया की उद्दंडता को देखते हुए इस डायलॉग को जल्द ही सम्पन्न करने का इच्छुक है। हम सभी जान रही रहे हैं कि उत्तर कोरिया हाइड्रोजन बम बनाने के बाद एक बड़ी ताकत बन गया है जिसके निशाने पर दक्षिण कोरिया और जापान ही नहीं बल्कि अमेरिका भी है।
लेकिन सच तो यह है कि प्योंगयांग यह ‘मसल पॉवर गेम’ अपने बूते पर नहीं खेल रहा है। बल्कि उसे असल ताकत बीजिंग से मिलती है। दरअसल उत्तर कोरिया ताकतवर बम के जरिए कम से कम अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया को अपनी ताकत का एहसास कराना चाहता है। लेकिन असल पक्ष कुछ और है। असल पक्ष यह है कि चीन हिन्द महासागर (अथवा दक्षिण एशिया) में पाकिस्तान और एशिया-प्रशांत में उत्तर कोरिया को उसी रूप में विकसित करना चाहता है जैसा कि अमेरिका ने दिएगो गर्सिया में अथवा बगदाद पैक्ट, मनीला ट्रीटी….आदि के तहत पाकिस्तान जैसे कई देशों अथवा मध्य-पूर्व इजरायल को विकसित किया था। यही वजह है कि चीन उत्तर कोरिया पर केवल अपनी थोथी नैतिकता दिखाने हेतु दबाव बनाने का नाटक करता है लेकिन सही अर्थों में वह उसका सहयोग करता है और तब तक करता भी रहेगा जब तक कि उत्तर कोरिया स्वयं उसके लिए खतरा नहीं बन जाएगा। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तानी मेटलरजिस्ट अब्दुल कादिर खान ने वर्ष 2004 में यह स्वीकार किया था कि पाकिस्तान ने चीन की सहायता से न केवल अपना परमाणु कार्यक्रम विकसित किया था बल्कि उत्तर कोरिया को भी सेंट्रीफ्यूज एनरिचमेंट प्रौद्योगिकी उपलब्ध करायी थी। अभी भी चीन उत्तर कोरिया को मदद कर रहा है अन्यथा इतने प्रतिबंधों के बाद यह देश सीधे खड़े होने के लायक नहीं रह जाता। इसका मतलब तो यही हुआ कि चीन एशिया प्रशांत में उत्तरी कोरिया के जरिए अपने मकसद पूरे करना चाहता है और पाकिस्तान के जरिए दक्षिण एशिया में। ऐसी स्थिति में भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया रणनीतिक त्रिकोण अथवा भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया-अमेरिका रणनीतिक चतुर्भुज का निर्माण बेहद जरूरी है। लेकिन क्या जापान भारत पर पूरी तरह से विश्वास करता है?
जापान के विदेश मंत्रालय के एक सीनियर अधिकारी ने निक्केई एशियन रिव्यू से 2015 में कहा था कि, ’’इस चिंता से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जब जापान मजबूती से चीन के खिलाफ आएगा तो भारत अपना कदम पीछे खींच लेगा।’’ लेकिन जापान भारत के साथ मजबूत साझेदारी चाहता है। हिन्द महासागर में चीन के विस्तार के मद्देनजर यह काफी अहम है। जापान के एक अखबार द मइनिची ने लिखा है, ’’पूर्वी और दक्षिणी चीनी सागर के साथ हिन्द महासागर में चीन की बढ़ती सक्रियता के बीच शिंज़ो अबे भारत में सुरक्षा उपकरणों के साथ अमरीका, जापान और भारत के बीच साझा सैन्य अभ्यास पर बात कर सकते हैं……।’’ दरअसल जब से चीन एक वैश्विक आर्थिक ताकत बनने के बाद जिस तरह से दक्षिण-पूर्व एशिया या पूर्वी एशिया में अपनी हरकतों को अंजाम दे रहा है। यही नहीं वह जापान की कई मामलों में खिल्ली भी उड़ाता है। अत: उस पर अंकुश लगाने की जरूरत है। चूंकि इससे भारत आर्थिक और रणनीतिक रूप से मजबूत होगा, इसलिए चीन इसके खिलाफ प्रोपोगैंडा करेगा और उत्तेजित भी होगा। इसलिए भारत यह ध्यान रखना होगा कि चीन को बेवजह उत्तेजित होने का अवसर न दे अन्यथा वह सीधे अथवा पाकिस्तान के जरिए भारत को अशांत करने की कोशिश करेगा।