खतरनाक है घड़ी की सुइयों में बांधना बच्चे का बचपन
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेस के अध्ययन में सामने आया है कि 20 फीसदी स्कूली बच्चे क्लिनिकल डिप्रेशन के शिकार हैं। यानी उनके मानसिक स्वास्थ्य को मेडिकल देखभाल की जरूरत है। इसका कारण सामने आया कि मल्टीटास्किंग के नाम पर बच्चे हद से ज्यादा तनाव और दबाव झेल रहे हैं। जीवनशैली भी कुछ ऐसी हो चली है कि फुर्सत का समय भी गैजेट्स के साथ बीतता है।
हाल ही में सोशल मीडिया पर घूमते हुए अचानक एक अपडेट देखा, जो आजकल के बच्चों की दिनचर्या बताने को काफी था। नन्ही सी जान, कितने सारे काम कैप्शन के साथ साझा किया गया इजुमी का टाइम टेबल आज के समय में हर उस बच्चे का टाइम टेबल है, जिनकी पीठ पर भारी बस्ता और मन पर जबरन की व्यस्तताओं का बोझ लदा है। ऐसे शेड्यूल देखकर लगता है कि कभी अल्हड़-सा, बेतरतीब-सा, बिखरा-सा रहने वाला बचपन अब नियम-कायदों और घड़ी की सुइयों से बंधा है। आज की प्रतियोगी दुनिया में उस खिलंदड और मनचाहे बिखराव की अब कोई गुंजाइश नहीं दिखती। अब तो सब कुछ बस ट्यूशन, असाइनमेंट, होमवर्क, प्रोजेक्ट और परीक्षा तक ही सिमटा है। सोने-जागने से लेकर पढऩे-लिखने और खेलने-खाने तक, तयशुदा समय सारिणी में उनका पल-पल कैद है। बस, कुछ गुम गया है तो बेवजह का बतियाना, हुड़दंग मचाना और बचपन की आलस भरी मासूम जिद।
पल-पल का हिसाब
बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब किसी तनाव और समय के बंधन के बिना मस्ती से जिंदगी का आनंद लिया जा सके। मासूम चेहरों पर खिलती हंसी और शरारतों से भरा रूठना-मनाना आज के बचपन की पहचान नहीं है। अब तो बच्चे बड़ों से भी ज्यादा बोझ तले दबे हैं। आज आपके बच्चों का वो बेखौफ बचपन गायब है। आज जहां एक ओर मुस्कुराहट की जगह अव्वल आने की चिंता ने ले ली है, वहीं दूसरी ओर मौज-मस्ती से भरे खेलों की जगह सब कुछ सीखने के दबाव ने इन मासूम चेहरों को उदासी व तनाव की सौगात दी है। जिंदगी के मैदान में अब प्रतिस्पर्धा ही है। अभिभावकों ने जाने-अनजाने अपने हर अधूरे सपनों और ख्वाहिशों को इन मासूमों की क्षमता और रुचि की परवाह किए बिना उन पर लाद दिया है। अब इसे माता-पिता का दबाव कहें या साथियों से पीछे छूट जाने का भय, बच्चों का बचपन जरूर बंध कर रह गया है। नतीजा, बच्चे और अभिभावक दोनों ही जूझ रहे हैं। ऐसी भागमभाग मची है, जो बच्चों के लिए शारीरिक और मानसिक पीड़ा का सबब बन रही है।
बदला-बदला बचपन
व्यस्तता के अंदाज ने बचपन के मिजाज भी बदल दिए हैं। बच्चे अब हाइटेक हो गए हैं। भावनात्मक लगाव की जगह चिड़चिड़ेपन ने ले ली है। बुद्धिमत्ता मापने के पैमाने आईक्यू यानी इंटेलीजेंस कोशेंट ने इमोशनल कोशेंट यानी भावनात्मक क्षमता और संतुलन की जगह ही छीन ली है।
पढ़ाई ही नहीं, अब तो खेलों में भी दिमाग की धार तेज करना ही सिखाया जा रहा है। आजकल बाजार में गेम्स फॉर द ब्रेन जैसे जुमले आम हैं। स्क्रेबल या पजल गेम हो या वीडियो गेम। पेरेंट्स बच्चे से उम्मीद करते हैं कि खेल के दौरान भी वो अपने दिमाग की धार तेज करता रहे।
यह बच्चों और अभिभावकों के लिए दुविधा भरा समय है। अधिकतर परिवार एकल हैं और दोनों ही अभिभावक कामकाजी हैं। ऐसे में उन्हें लगता है कि बच्चे जितने व्यस्त रहें, उतना ही अच्छा है। कई सारे क्लासेस तो इसीलिए जॉइन करवाए जाते हैं।
बच्चे की खुद की रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए यह जरूरी है कि उन्हें बिना आपकी और इंटरनेट की मदद के स्वयं कुछ सोचने-समझने का मौका दिया जाए। बच्चों की क्रिएटिविटी को निखारने के लिए जरूरी है कि खेल के समय वे प्रकृति, दोस्तों और स्वयं अपने साथ बिना किसी बंधन के वक्त बिताएं।