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खानापूर्ति का फेरबदल और मजबूरी का विस्तार

मंत्रिपरिषद के ताजा विस्तार में कुछ पुराने मंत्रियों को अक्षम बताकर बाहर कर उनकी जगह नए चेहरों को ‘योग्यता’ और ‘अनुभव’ के नाम पर शामिल किया गया है। लेकिन इस पूरी कवायद को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सत्तारूढ दल की विशेष तैयारी के तौर पर ही देखा जा रहा है। मंत्रिपरिषद के तीसरे विस्तार में राज्यमंत्री स्तर के रूप में नौ नए चेहरों को जगह दी गई है, जबकि छह मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाकर उनकी ‘क्षमताओं’ का उपयोग पार्टी संगठन के काम में लेने की बात कही गई। इस फेरबदल और विस्तार का एक अहम पहलू है- एनडीए में सहयोगी दलों की सिरे से उपेक्षा। शिवसेना एनडीए में भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी है। उसे उम्मीद थी कि मंत्रिपरिषद के विस्तार में उसके प्रतिनिधित्व में बढोतरी होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अपनी इस उपेक्षा पर उसने अपनी नाराजगी भी तल्ख लहजे में जाहिर कर दी है। हाल ही में एनडीए के कुनबे में दोबारा शामिल हुआ नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला जनता दल यू भी केंद्र की सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को लेकर उम्मीद लगाए बैठा था लेकिन उसे भी निराश होना पड़ा।

 

-अनिल जैन

‘मिनिमम गवर्मेंट-मैक्सिमम गवर्नेंस!’ पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपनी लगभग हर चुनावी रैली में इस सूत्र वाक्य को दोहराया था। उनका कहना था कि उनकी सरकार बनने पर उनका जोर अपने मंत्रिमंडल का आकार बेहद छोटा रखते हुए ज्यादा से ज्यादा परिणाम देने पर रहेगा। उनकी सरकार भी बन गई और उसने अपने कार्यकाल का दो तिहाई समय पूरा भी कर लिया। इस दौरान उन्होंने अपनी मंत्रिपरिषद का तीन मर्तबा विस्तार और फेरबदल भी कर लिया, लेकिन ‘मिनिमम गवर्मेंट-मैक्सिमम गवर्नेंस’ वाला उनका सूत्र वाक्य भी महज चुनावी जुमला ही साबित हुआ। न तो वे अपनी सरकार का आकार छोटा रख पाए और न ही कामकाज के स्तर पर वैसे परिणाम दे पाए जिसका वायदा उन्होंने सत्ता में आने से पहले किया था। तीसरे विस्तार और फेरबदल के बाद अब उनकी मंत्रिपरिषद में उनके सहित 76 सदस्य हो गए हैं। यह संख्या निर्धारित सीमा से छह कम है, यानी अभी छह मंत्री और बनाए जा सकते हैं।

हर प्रधानमंत्री अपनी मंत्रिपरिषद के गठन में आमतौर पर जातीय, क्षेत्रीय और गुटीय संतुलन, व्यक्तिगत निष्ठा आदि के साथ ही चुनावी राजनीति के तकाजों का पूरा ध्यान रखता है, लेकिन दावा योग्यता और अनुभव को तरजीह देने का ही किया जाता है। इस लिहाज से नरेंद्र मोदी भी अपवाद नहीं हैं। उनके द्वारा अपनी मंत्रिपरिषद में किए गए हर फेरबदल या विस्तार पर चुनावी तकाजों की छाया रही है। हर बार राज्य विधानसभाओं के चुनावों से पहले वे यही कवायद करते रहे हैं। जिन राज्यों में चुनाव हो चुके होते हैं वहां के अतिरिक्त या फालतू प्रतिनिधित्व को बाहर कर दिया जाता है और जहां चुनाव होने होते हैं उन राज्यों को कुछ अतिरिक्त प्रतिनिधित्व दे दिया जाता है, ताकि चुनाव जीतने में मदद मिल सके। पिछले कुछ समय से जिस तरह केंद्र सरकार के प्रदर्शन को लेकर जिस तरह सवाल उठ रहे थे, उससे माना जा रहा था कि मंत्रिपरिषद में बदलाव करते समय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने और योजनाओं में गतिशीलता लाने के मद्देनजर कुछ नए लोगों को लाया और कुछ की जिम्मेदारियों में बदलाव किया जाएगा। मगर ताजा फ़ेरबदल में यह मकसद नजर नहीं आता। बस कुछ पुराने मंत्रियों के विभाग बदल दिए गए और जिन नौ नए चेहरों को बतौर राज्यमंत्री शामिल किया गया, उनसे भी बहुत उम्मीद बंधती नजर नहीं आती। नौ में से चार राज्यमंत्री पूर्व नौकरशाह हैं। इनमें से भी दो- पूर्व राजनयिक हरदीप पुरी और पूर्व प्रशासनिक अधिकारी अल्फॉन्स कन्नाथम तो संसद के सदस्य भी नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि क्या भाजपा के भीतर काबिल नेताओं की कमी है, जो बाहर से नौकरशाहों को लाकर मंत्री बनाया जा रहा है। सवाल यह भी है कि क्या जिन लोगों के कामकाज से प्रधानमंत्री खुश नहीं थे या जिनके चलते सरकार के सामने मुश्किलें खड़ी होती रही है, उनके विभाग बदल देने भर से उनका प्रदर्शन बेहतर हो जाएगा!

देश की विकास दर (जीडीपी) घटी है। निर्यात में अभूतपूर्व गिरावट आई है। यानी सरकार के लिए अर्थव्यवस्था के अपने लक्ष्य तक पहुंचना कठिन लगता है। कालेधन और आतंकवाद की समस्या से निबटने के नाम पर की गई नोटबंदी की कवायद पूरी तरह फेल हो गई है। लेकिन इसके लिए वित्त मंत्री के नाते जिम्मेदार माने जाने वाले अरुण जेटली इस फेरबदल की कवायद से बिल्कुल अछूते रहे। इसी तरह सीमा पर लंबे समय से लगातार तनाव का माहौल बना हुआ है। प्रतिरक्षा के मामले में चौकस रहने की जरूरत है। इसलिए निर्मला सीतारमण को वाणिज्य से हटा कर रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपे जाने पर सवाल उठ रहे हैं। उनके वाणिज्य मंत्री रहते निर्यात दर में अभूतपूर्व गिरावट आई है। रक्षा मंत्रालय का काम वाणिज्य मंत्रालय से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है, इसलिए वे अपनी नई जिम्मेदारी में कितनी सफल साबित होंगी, देखने की बात है। इसी तरह मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में स्मृति ईरानी का कामकाज असंतोषजनक ही नहीं बल्कि बेहद विवादास्पद रहा है। कपड़ा मंत्री रहते हुए भी वे कोई उल्लेखनीय काम नहीं कर पाईं, अब उन्हें सूचना प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी सौपी गई है। वहां वे अपनी योग्यता कहां तक साबित कर पाती है, इस पर सवाल और संदेह होना स्वाभाविक है। पिछले कुछ समय में हुए बड़े रेल हादसों और निरंतर महंगी, असुविधाजनक और असुरक्षित हो रही रेल यात्रा की वजह से सुरेश प्रभु के कामकाज को लेकर लोगों में असंतोष बना हुआ है, तो प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी गंगा सफाई योजना ‘नमामि गंगे’ को लेकर उमा भारती का कामकाज संतोषजनक नहीं रहा, मगर इनके मामले में भी प्रधानमंत्री अपेक्षित सख्ती नहीं बरत पाए। मंत्रिपरिषद के ताजा विस्तार में कुछ पुराने मंत्रियों को अक्षम बताकर बाहर कर उनकी जगह नए चेहरों को ‘योग्यता’ और ‘अनुभव’ के नाम पर शामिल किया गया है। लेकिन इस पूरी कवायद को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सत्तारूढ दल की विशेष तैयारी के तौर पर ही देखा जा रहा है। मंत्रिपरिषद के तीसरे विस्तार में राज्यमंत्री स्तर के रूप में नौ नए चेहरों को जगह दी गई है, जबकि छह मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाकर उनकी ‘क्षमताओं’ का उपयोग पार्टी संगठन के काम में लेने की बात कही गई है। पहले से काम कर रहे चार राज्यमंत्रियों- निर्मला सीतारमण, धर्मेंद्र प्रधान, पीयूष गोयल और मुख्तार अब्बास नकवी को पदोन्नति देकर उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। ये चारों राज्यसभा के सदस्य हैं।

दरअसल, इस बार के मंत्रिपरिषद विस्तार में पूरी तरह जातीय और चुनावी समीकरण साधने की कोशिश की गई है। मंत्री पद की जिम्मेदारी से मुक्त किए गए बिहार के राजीव प्रताप रूढी राजपूत समुदाय से आते हैं, लिहाजा बिहार से ही राजपूत समुदाय के पूर्व नौकरशाह आरके सिंह को मंत्रिपरिषद में जगह देकर संतुलन बनाया गया है। बिहार में भाजपा का जनाधार मुख्य रूप से सवर्ण तबकों यानी ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ समुदाय में लेकिन वहां से अभी तक ब्राह्मण समुदाय मंत्रिपरिषद में प्रतिनिधित्व से वंचित था, लेकिन अब बक्सर से लोकसभा सदस्य अश्विनी चौबे को राज्यमंत्री बनाकर ब्राह्मण समुदाय की संवेदनाओं को सहलाने का प्रयास किया गया है। पहले से ही केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह बनाए हुए बिहार से भूमिहार समुदाय के गिरिराज सिंह हालांकि अपने कामकाज के बजाय अपने भडकाऊ बयानों के लिए ज्यादा जाने जाते हैं लेकिन उन्हें भी पदोन्नति देकर स्वतंत्र प्रभार वाला राज्यमंत्री बना दिया गया है। कायस्थ समुदाय के रविशंकर प्रसाद और राजपूत समुदाय के राधामोहन सिंह पहले से ही मंत्रिपरिषद में मौजूद हैं। इसी तरह के सामाजिक संतुलन का ध्यान उत्तर प्रदेश के मामले में भी रखा गया है। कलराज मिश्र और महेंद्र प्रसाद पांडेय को जहां मंत्री पद की जिम्मेदारी से मुक्त किया गया है, वहीं शिवप्रताप शुक्ल को मंत्री बनाकर तथा पांडेय को प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाकर संतुलन कायम रखा गया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्वाचन क्षेत्र गोरखपुर इलाके के ही शुक्ल को मंत्री बनाना एक तरह से मुख्यमंत्री के कद को भी संतुलित करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। इसी तरह का प्रयास पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट समुदाय के प्रतिनिधित्व को लेकर किया गया है। वहां से संजीव बालियान को मंत्रिपरिषद से बाहर कर बागपत में चौधरी अजीत सिंह को हराकर लोकसभा में पहुंचे पूर्व पुलिस अधिकारी सत्यपाल सिंह को राज्यमंत्री पद से नवाजा गया है। अगले वर्ष मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा वहां के राजनीतिक तकाजों का भी पूरा ध्यान रखा गया है। मध्य प्रदेश से दलित समुदाय के वीरेंद्र खटीक को तथा राजस्थान से राजपूत समुदाय के गजेंद्र सिंह शेखावत को राज्यमंत्री बनाया गया है। इसी तरह कर्नाटक से बाहुबली की छवि वाले अनंत कुमार हेगड़े को मंत्रिपरिषद में जगह देना ब्राह्मण मतदाताओं को रिझाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

इस फेरबदल और विस्तार का एक अहम पहलू है- एनडीए में सहयोगी दलों की सिरे से उपेक्षा। शिवसेना एनडीए में भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी है। उसे उम्मीद थी कि मंत्रिपरिषद के विस्तार में उसके प्रतिनिधित्व में बढोतरी होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अपनी इस उपेक्षा पर उसने अपनी नाराजगी भी तल्ख लहजे में जाहिर कर दी है। हाल ही में एनडीए के कुनबे में दोबारा शामिल हुआ नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला जनता दल यू भी केंद्र की सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को लेकर उम्मीद लगाए बैठा था लेकिन हैसियत से ज्यादा हिस्सेदारी की मांग के चलते उसे भी निराश होना पड़ा। एक तरह से प्रधानमंत्री ने विस्तार और फेरबदल की पूरी कवायद को सिर्फ भाजपा तक ही सीमित रखकर सहयोगी दलों के दबाव को झटक कर यह संकेत देने की कोशिश भी की है कि भाजपा अपनी राजनीति का आगामी सफर अपने बूते ही जारी रखने में सक्षम है, इसमें किसी को शामिल होना हो तो वह बिना किसी शर्त के शामिल हो सकता है। कुल मिलाकर मंत्रिपरिषद में फेरबदल और विस्तार की कवायद को महज रस्म अदायगी ही कहा जा सकता है जिसके तहत प्रधानमंत्री ने कुछ खाली पड़े पदों को भरने तथा कुछ मंत्रियों को इधर से उधर करने का काम किया है। इस कवायद से सरकार के कामकाज में कोई गुणात्मक सुधार आएगा या आशाजनक नतीजे मिल सकेंगे, इसकी ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। 

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