गठबंधन के लिए हर शर्त मंजूर
संजय सक्सेना
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस द्वारा समाजवादी पार्टी के हाथों अपनी ‘सियासी तकदीर’ सौंपने के साथ ही यह तय हो गया है कि कांग्रेस हिन्दी बैलेट से लगभग साफ हो चुकी है,जो कांग्रेस चंद महीनों पहले तक 27 साल बाद यूपी में सरकार बनाने का सपना देख रही थी, वह सपा से हाथ मिलाने के बाद उत्तर प्रदेश विधान सभा की मात्र करीब 25 प्रतिशत सीटों पर ही चुनाव लड़ने जा रही है। यूपी में किसी भी दल को सरकार बनाने के लिये कम से कम 202 विधायकों की जरूरत पड़ती है,जबकि कांग्रेस मात्र 105 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है। इस हिसाब से बसपा सुप्रीमों मायावती का बयान सटीक बैठता है कि यहां कांग्रेस आक्सीजन के सहारे चल रही है। काफी कुछ कहता है। कांग्रेस ने सपा के साथ गठबंधन का जो फैसला लिया है, उससे मरणासन्न कांग्रेस में कितनी उर्जा पैदा होगी, इस बात का अंदाजा 11 मार्च को वोटिंग मशीन खुलने के बाद लगेगा,लेकिन जो दिख रहा है उस पर गौर किया जाये तो राष्ट्रीय पार्टी का तमगा प्राप्त कांग्रेस जिसका एक समय पूरे देश में राज था,वह अब क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी की बी टीम बनकर चुनाव लड़ेगी। तमाम वह दल जो कभी कांग्रेस की छत्र छाया में सियासत करते थे, आज कांग्रेस उन्हीं के सामने नतमस्तक है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, असम आदि कई राज्यों में अपना जनाधार खोने के बाद उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस हासिये पर चली गई है। 403 विधान सभा सीटों में से कांग्रेस मात्र 105 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसमें से कितनी जीत कर आयेगी,यह देखने वाली बात होगी। कांग्रेस जितनी भी सीटों पर चुनाव जीतेगी,उसका सारा श्रेय कांग्रेस के खाते में नहीं जायेगा। सपा भी उसमें अपनी दावेदारी जतायेगी क्योंकि गठबंधन से पहले ही समाजवादी पार्टी ने कांग्रेसियों को यह जता दिया था कि कांग्रेस यूपी में अपने बल पर चुनाव लड़ने की हैसियत नहीं रखती है।
शायद यह गठबंधन काफी पहले साकार हो जाता,लेकिन कांग्रेस द्वारा ‘हैसियत’ से अधिक दावेदारी ठोकने की वजह से गठबंधन में देरी तो हुई ही इसके साथ-साथ जनता के बीच कांग्रेस की किरकिरी भी हुई। ऐन चुनाव से पूर्व सपा-कांग्रेस के बीच गठबंधन के पेंच तो सुलझ गये, लेकिन गठबंधन की कोशिशों के दरम्यान यह भी साफ हो गया कि गठबंधन को लेकर कांग्रेस को काफी झुकना पड़ा। गठबंधन अखिलेश की शर्तों पर ही हुआ। सपा ने पहले ही तय कर लिया था कि कांग्रेस को सौ के करीब ही सीटें दी जायेंगी और उतने पर ही कांग्रेस को संतोष भी करना पड़ा। असल में कांग्रेस की मजबूरी को सपा नेतृत्व भली भांति समझता है। कांग्रेस का यूपी में कोई वजूद नहीं है। उसके मात्र 28 विधायक हैं इसके अलावा 2012 के विधान सभा चुनाव में उसके सिर्फ 26 प्रत्याशी ही नंबर दो पर ठहर पाये थे,जबकि कांग्रेस गठबंधन में सीटें सवा सौ से ऊपर मांग रही थी। रायबरेली और अमेठी को लेकर कांग्रेसी इतने भावुक थे कि वह चाहते थे कि यहां से 2012 में जीती हुई सीटों पर भी सपा चुनाव न लड़े।
दरअसल, कांग्रेस की मजबूरी है कि वह अकेले चुनाव जीत ही नहीं सकती है और अन्य कोई दल उसे तवज्जो दे नहीं रहा है। ऐसे में एक निजी समाचार चैनल के कार्यक्रम के दौरान अखिलेश ने जैसे ही कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का शिगूफा छोड़ा, कांग्रेस की बांछें खिल गईं। 27 साल से बेहाल कांग्रेसी, सपा के सहारे सत्ता का स्वाद चखने का सपना देखने लगे। बड़ी-बड़ी बातें करने वाले कांग्रेसियों को जरा भी इस बात की चिंता नहीं रही कि इससे उसके भविष्य की देशव्यापी राजनीति पर कितना बुरा प्रभाव पड़ेगा। कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त पड़ गये हैं। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और चुनाव लड़ने के लिये पांच साल से सियासी जमीन तैयार करने में जुटे नेताओं के लिये गठबंधन का फैसला किसी ‘भूकंप’ से कम नहीं रहा। चुनाव लड़ने की चाहत में कई कांग्रेसी लाखों रुपये खर्च कर चुके थे और गठबंधन के बाद उनकी दावेदारी वाली सीट सपा के लिये छोड़ दी गई। किसी तरह से गठबंधन हो गया है। परंतु इसमें अभी भी तमाम किन्तु-परंतु लगे हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि राहुल और अखिलेश कितनी जगह संयुक्त रैलियां करेंगे और जब राहुल-अखिलेश चुनाव प्रचार में एक साथ जायेंगे तो दोंनो में से कौन बड़ा नजर आयेगा। राहुल को शायद ही बर्दाश्त हो कि अखिलेश उनके सामने ‘लम्बी लाइन’ खींचे।
लब्बोलुआब यह है कि इस गठबंधन से फायदा तो दोंनो ही दलों को होगा,मगर कांग्रेस को यूपी में सपा की बी टीम बनकर ही रहना पड़ेगा। संभावना इस बात की भी है कि 2019 तक तो यह गठबंधन किसी तरह से खिंचता रहेगा,लेकिन लोकसभा चुनाव के समय अखिलेश और राहुल की महत्वाकांक्षा में टकराव पैदा हो सकता है। इतिहास में भी ऐसे कई संकेत मिलते हैं जिसके अनुसार इस तरह के गठबंधन हमेशा कलह से भरे रहे हैं। आज भले ही कांग्रेस और सपा करीब हों,लेकिन सोनिया गांधी यह नहीं भूल सकती हैं कि मुलायम की वजह से वह पीएम की कुर्सी पर नहीं बैठ सकीं थी तो मुलायम को भी हमेशा इस बात का मलाल रहा कि लालू के कहने पर सोनिया गांधी ने उनके पीएम बनने की राह में अवरोध पैदा किया था। यूपी के पुराने कांग्रेसी नेता जानते-मानते हैं कि आज जो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की दुर्दशा है, उसका कारण सपा ही है। फिर भी कांग्रेस ने ये गठबंधन करके बड़ा रिस्क लिया है। उधर,चर्चा यह भी है कि यूपी विधान सभा चुनाव प्रियंका गांधी के राजनीतिक सफर का रुख भी तय कर सकते हैं। राहुल की लगातार नाकामयाबी और राजनीति में उनकी अरुचि के चलते अक्सर प्रियंका को आगे किये जाने की बात होती है। जिस तरह अहमद पटेल ने गठबंधन के मामले में प्रियंका का नाम लेकर ट्वीट किया उससे भी साफ जाहिर है कि प्रियंका विधिवत रूप से सक्रिय राजनीति में आ चुकी हैं। वैसे, एक बात पर और ध्यान दिया जाना जरूरी है। सपा-कांग्रेस के इस गठबंधन में साल 2004 के लोकसभा चुनावों की झलक भी देखने को मिल रही है। उस समय तत्कालीन एनडीए सरकार को हटाने के लिये सोनिया गांधी ने तमाम क्षेत्रीय दलों को एक मंच पर खड़ा करने में कामयाबी हासिल की थी और अब उसी फार्मूले को राहुल आगे बढ़ा रहे हैं,लेकिन इस खेल के पीछे असली किरदार प्रियंका गांधी ही निभा रही है। प्रियंका की बदौलत ही ये गठबंधन पूरा हो सका। प्रियंका की कोशिश हैकि सपा-कांग्रेस के गठजोड़ को महागठबंधन के तौर पर पेश किया जाए और देश भर की गैर बीजेपी विरोधी पार्टियों को इस बहाने एक साथ ला कर 2019 की तैयारी की जा सके। इस गठबंधन में सोनिया-मुलायम वाली तल्खी नहीं, प्रियंका और डिंपल की जुगलबंदी है। अगर इस गठबंधन का हिस्सा राष्ट्रीय लोकदल भी बन जाता तो यह ‘सोने पर सुहागा’ हो सकता था। कुछ राजनैतिक पंडित तो यह भी कहते हैं कि 2019 लोकसभा की लड़ाई शुरू हो गई है। बीतते समय के साथ आने वाले दिनों में और भी राजनीतिक गठबंधन नजर आएंगे।
यूपी में गठबंधन का इतिहास
यूपी चुनाव में गठबंधन का इतिहास काफी पुराना है। कभी कांग्रेस-सपा जैसा गठबंधन सपा-बसपा के बीच भी हुआ था। 1993 में सपा-बसपा के गठबंधन में दोनों के बीच 6-6 महीने सीएम रहने का फार्मूला तय हुआ था। इसी फॉर्मूले के तहत पहले मायावती सीएम बनीं, लेकिन छह: महीने बाद जब मुलायम सिंह की बारी आई तो मायावती ने समर्थन वापस ले लिया। 1989 में जब मुलायम सिंह पहली बार यूपी के सीएम बने थे तब बीजेपी ने उन्हें समर्थन दिया था,लेकिन राम मंदिर आंदोलन में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। 2001 में कांग्रेस ने बीएसपी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया था,परंतु चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी को सरकार बनाने का समर्थन दे दिया था।