उत्तर प्रदेशराजनीति

गोरखपुर उपचुनाव हारः बीजेपी लोगो का गुस्सा नहीं पढ़ पाई

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में शहर से करीब 15 किमी पहले टोल प्लाजा से रोड गोरखपुर के भीतर आने के लिए कटती है। वहीं, किनारे बसे सहजनवा विधानसभा के कालेसर गांव में अपनी दुकान पर चाय उबाल रहे रामकिशुन की भावनाएं भी चुनावी चर्चा में ‘उफान’ पर हैं। चाय देते हुए इशारा करते बोले ‘देखिए, यहीं से लाइट लगी है जो रात में जगमग आती है, बिजली भी आ रही है, जनता को न जाने क्या हो गया?’गोरखपुर उपचुनाव हारः बीजेपी लोगो का गुस्सा नहीं पढ़ पाई

जवाब सामने बैठे उनके भाई रामाशीष केवट की ओर से आता है ‘बाढ़ में बालू आ गया, प्रशासन ने हटाने नहीं दिया। फसल नहीं बो पाए, क्या करेंगे, बिजली लेकर।’ चर्चा में एक और आवाज शामिल होती है ‘मोरंग के दाम आसमान पर हैं।’ दरअसल, योगी के गढ़ + में बीजेपी ‘गणित’ और गुस्सा दोनों ही पढ़ने में फेल हो गई। 

सहजनवा गोरखपुर लोकसभा  की वह विधानसभा है जहां एसपी प्रत्याशी को 17 हजार की बढ़त हासिल हुई थी। खास बात यह है कि 26 साल बाद यहां बीजेपी का वर्चस्व तोड़ सांसद बने वाले प्रवीण निषाद के पिता संजय निषाद को असली पहचान यहीं से मिली थी। पास में ही कसरवल में उन्होंने निषाद आरक्षण को लेकर एसपी सरकार में आंदोलन किया था। इस दौरान गोली कांड में एक युवक की मौत भी हुई थी। इस आंदोलन से निकली उनकी निषाद पार्टी ने यहां के 3.5 लाख निषाद वोटरों में अच्छी पैठ बनाई जो इस उपचुनाव में निर्णायक साबित हुई। 
‘इस बार हम मंदिर के प्रतिनिधि थे’ 
एसपी प्रत्याशी प्रवीण निषाद ने खुद का नाता मंदिर से जोड़ा और बीजेपी  ने अपना अदद चुनाव कार्यालय भी मंदिर परिसर से बाहर निकाल लिया। असर यह रहा कि ‘धर्म और जाति’ दोनों ही समीकरणों को निषाद प्रत्याशियों ने भुनाया। नवनिर्वाचित सांसद प्रवीण निषाद के पिता व निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद कहते हैं, ‘हमारी बिरादरी धर्मभीरु है। योगी लड़ते थे तो यह ‘धर्म’ का चुनाव होता था। इस बार मंदिर के प्रतिनिधि तो हम थे। हमने यह बात अपनी बिरादरी को बताई कि इस बार चुनाव में बाबा नहीं हैं। मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य के रूप में एक निषाद प्रत्याशी खड़ा है। कमजोर एकजुट हुए, ताकतवर हार गए।’ 

अखिलेश जनसभा कर रहे थे, हम बूथ मीटिंग’ 
योगी के प्रत्याशी न होने के चलते इस बार का चुनाव पूरी तरह से जातीय गणित पर टिका था। हाल के चुनाव और 2018 के आंकड़े एक साथ रखें तो बीजेपी के वोटों में करीब 5% की गिरावट आई है। यही हार का अंतर भी है। गोरखपुर में एसपी + प्रत्याशी को बीएसपी के समर्थन के बाद यह गणित और भी साफ दिख रही थी। लगभग तीन दशक में यह पहला मौका था जब यहां चुनाव में बीजेपी की ओर से महंत या उसका उत्तराधिकारी नहीं था और दूसरी ओर एसपी-बीएसपी एक साथ चुनाव लड़ रहे थे। इस अहम समीकरण को जहां बीजेपी के रणनीतिकारों ने योगी के पिछले चुनाव में 3 लाख से अधिक मिली बढ़त के भरोसे छोड़ दिया। 

वहीं, एसपी-बएसपी ने इसे अवसर के रूप में लिया। बीएसपी + के जिलाध्यक्ष घनश्याम राही कहते हैं कि 7 मार्च को एसपी मुखिया अखिलेश यादव जिस समय जनसभा कर रहे थे उसी समय हम लोकसभा के करीब 2100 बूथों पर एक साथ अपने कैडर की मीटिंग कर रहे थे। बहनजी के निर्देश को हमने गांव-गांव तक पहुंचाया जिससे वोट ट्रांसफर हो सके। चुनाव के दिन बूथ पर भी हमने अपने कार्यकर्ता लगाए जिससे हमारे वोटरों में किसी प्रकार का कोई भ्रम न फैले, नतीजा ऐतिहासिक रहा। 

शहर जगा न उनके ‘नुमाइंदे’ गोरखनाथ मंदिर प्रशासन से जुड़े एक जिम्मेदार का कहना है कि ‘सब महाराजजी! के ही भरोसे बैठकर सो गए।’ इस सूत्र वाक्य को विस्तार से तलाशने की जद्दोजहद शुरू हुई तो व्यवस्था से जुड़े दूसरे व्यक्ति ने बताया कि शहर में बीजेपी एक लाख से लीड करती थी। वहां, वोट ही नहीं पड़ा। योगी ने शहर पर विशेष ध्यान देने को कहा, लेकिन ध्यान नहीं दिया गया। गड़बड़ियों पर लगाम लगाने की कवायद में कई काम रुके जिससे छोटे-छोटे पॉकेट में लोगों को असंतोष था। प्रजापति समाज को मिट्टी नहीं मिल पा रही है। मोरंग-बालू के दाम से लोग परेशान हैं। जांच के चलते पेंशन भी बंद है। विपक्ष ने इसे गांवों में भुनाया और बीजेपी के नेता-कार्यकर्ता वहां जाकर इसकी वजह बताने के बजाय घर बैठ गए क्योंकि वह हर हाल में जीत को लेकर आश्वस्त थे। जनता किसी को आश्वस्त कहां बैठने देती है? 

एसपी-बीएसपी बनाम बीजेपी 
2014 
10.37 लाख वोट पड़े थे चुनाव में 
5.38 लाख मिले थे योगी आदित्यनाथ को 
4.02 लाख वोट हासिल हुए थे एसपी-बएसपी को 

2018
9.34 लाख वोट पड़े उपचुनाव में 

4.56 लाख वोट मिले एसपी-बीएसपी प्रत्याशी को 
4.36 लाख वोट आए बीजेपी प्रत्याशी के खाते में 

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