जनता करती है सब हिसाब
पुस्तक समीक्षा
समकालीन युवा कवियों में राकेश रंजन का नाम उनके विशिष्ट काव्य-प्रयोगों के कारण भी अलग से पहचान में आ जाने वाला नाम है। उनका नया काव्य संग्रह ‘दिव्य कैदखाने में’ उनके इसी विशिष्ट काव्य प्रयोग और स्पष्ट वर्गीय पक्षधरता को प्रमाणित करने वाला संग्रह है। इस नए काव्य संग्रह से पहले राकेश की कविताएँ हिंदी की प्राय: सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके दो काव्य संग्रह ‘अभी अभी जनमा है कवि’ और ‘चाँद में अटकी पतंग’ भी प्रकाशित और चर्चित रहे हैं।
समकालीन हिंदी कविता के सम्पूर्ण जनवादी सरोकार और वर्गीय पक्षधरता के बीच मेरी नजर में जो एक नकारात्मक पक्ष है वह यह कि ये कविताएं पाठक के मन में ज्यादा देर तक टिक नही पातीं। कुछ को छोड़ दिया जाय तो अधिकांश कवियों की कविताएं पढ़ने के साथ ही भूल जाती हैं। इसका ये मतलब नहीं कि कविताओं के टिके रहने का पैमाना उनका हमारी जुबान पर चढ़ जाना है। मुक्तिबोध की कविताएँ भी हमारी जुबान पर चढ़ने वाली कविताएँ नही हैं पर वे बहुत लंबे समय तक हमारे साथ रहती हैं। यानी मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़कर आप बहुत देर तक उनके प्रभाव से बाहर नही निकल पाते।
ये जो प्रभाव में ले लेने की शक्ति है यह लगातार कम होती गयी है। आज स्थिति यह है कि मुक्तिबोध, नागार्जुन या त्रिलोचन की तरह अपने प्रभाव में ले सकने वाली कविताएं समकालीन कवियों के पास बहुत कम हैं। अगर उस तरह के प्रभाव को किसी भी रूप में एक मानक मानकर समकालीन हिंदी कविता की बात की जाय तो एक चौकाने जैसी स्थिति बनती दिखाई पड़ेगी। ऐसा कहने के पीछे मेरी धारणा यह है कि राकेश रंजन अपनी पीढ़ी के उन कुछेक कवियों में हैं जिनकी कविताएँ हमे अपने प्रभाव में लेती हैं। राकेश की कविताओं का यह प्रभावकारी रूप कैसे संभव हो पाया है इस पर किसी निष्कर्षात्मक रूप में कुछ कह सकने की स्थिति में मैं नही हूँ पर उन्हें पढ़ते हुए यह महसूस जरूर हुआ। उन्हें पढ़ते हुए उनके साथ जो संवादी रिश्ता कायम हुआ वह काफी लंबे समय तक चलने वाला रिश्ता बना। उनकी कई कविताएँ रह-रहकर कचोटती रहती हैं। राकेश अपने समय की नब्ज़ को बहुत बारीकी से पकड़ने वाले कवि हैं यही कारण है कि अपने समय और समाज के बारे में सोचते हुए अचानक से हमारी निगाह जिन कुछेक बिम्बों पर जाकर टिक जाती है उनमें से कई बिम्ब राकेश की कविताओं में सहज ही दिख जाने वाले बिम्ब होते हैं। भारतीय समाज में किसान का बिम्ब सबसे ज्यादा मोहक बिम्ब रहा है पर वह किसान किस तरह लगातार अपने सब कुछ से बेदखल होता गया है इसकी शिनाख्त करनी हो तो राकेश की कविता ‘मेरा देश महान’ को देखना चाहिए। यह कविता भारतीय किसान जीवन की त्रासद गाथा व्यक्त करती है। प्रेमचन्द के यहां स्थिति यह थी कि एक किसान (होरी) का पुत्र (गोबर) मिल मजदूर होने को अभिशप्त हुआ था पर राकेश के यहाँ एकऐसा किसान जो सतगांवा के नभ का भान था उसके पुत्र को मिल मजदूरी भी नहीं नसीब हो रही है वह ठेला-खोमचा लगाकर अपनी जिंदगी बसर करने को विवश है। राकेश के इस संग्रह को पढ़ते हुए अपने समकालीन सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य को भी पढ़ा जा सकता है। यह संग्रह अपने समय और समाज के सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ को व्याख्यायित कर सकने में समर्थ संग्रह है। शायद यह कहने की आवश्यकता नहीं कि राकेश अपनी सम्पूर्ण चेतना में जन पक्षधर कवि हैं। उनकी कविताएँ सत्ता की धूर्त चालों से मानवीय-मूल्यों को बचाये रखने को प्रतिबद्ध कविताएँ हैं। वे समझौता परस्त नही पक्षधर रचनाकार हैं। वे जिनके संघर्षों के साथ हैं उसकी शक्ति पर भरोषा भी करते हैं इसीलिए लिखते भी हैं
सब हिसाब जनता करती है,
नही किसी को देती माफ़ी
कांग्रेस हो या बीजेपी,
हिटलर हो चाहे गद्दाफी।
जनता की ताकत पर इतना भरोसा करने वाला कवि जनता के सवाल न पूछने पर परेशान होता है। कवि जनता से उम्मीद करता है कि वह सवाल पूछे ऐसा न करने पर राकेश खुद कहते हैं।
आते हो, जाते हो, रोते हो
गाते हो, कभी तुम सवाल
क्यों नही उठाते हो?
आधुनिक मानवीय बोध की सबसे पहली और अनिवार्य शर्त है सवाल उठाने की। सवाल करना आधुनिक बोध की पहली शर्त है। इसलिए कवि जब देखता है कि जिस जनता के ऊपर लोकतंत्र को कायम रखने की जिम्मेदारी है वही सवाल करने से भाग रही है तो कवि चेताता है कि सवाल तो उठाना ही होगा। सवाल न करना सर्वथा गैर-आधुनिक होना है इसलिए जब राकेश कहते हैं कि ‘सवाल क्यों नही उठाते हो?’ तो जहाँ वे एक तरफ जनता को आगाह करते हैं वहीं दूसरी तरफ अपनी आधुनिक चेतना का परिचय भी देते हैं।
राकेश रंजन का यह संग्रह पढ़ते हुए दो कवियों त्रिलोचन और अरुण कमल की कई कविताओं की याद लगातार आती रहती है। इन दोनों कवियों की कविताओं की अनुगूंजें राकेश की कविताओं में अक्सरहां ही सुनाई पड़ती हैं। राकेश अपनी रचनात्मक ऊर्जा अपनी परम्परा से ग्रहण करते हुए अपना समकाल व्यक्त करने वाले कवि हैं। दिनकर ने कहीं कविता में लिखा है जिसका आशय है कि वे परम्परा में बहुत पीछे तक इसलिए जाते हैं कि भविष्य में बहुत दूर तक जा सकें। राकेश की कविताओं में भी अपनी परम्परा से संवाद कुछ इसी अर्थ में मालूम पड़ता है। वे अपने निकटवर्ती कवियों में अगर त्रिलोचन और अरुण कमल से संवादी रिश्ता कायम करते हैं तो अपनी परम्परा में सबसे पीछे जाते हुए कबीर से अपना रिश्ता जोड़ते हैं। इस तरह का रिश्ता उनके शिल्प में भी लक्षित किया जा सकता है। इस संग्रह में जहाँ एक तरफ सर्वथा नवीन मुक्तछन्द की कविताएँ शामिल हैं वहीं दूसरी तरफ पारम्परिक कवित्त छंद का बहुत बेबाकी से प्रयोग किया गया है। प्रयोग का यह वैविध्य भी राकेश रंजन को उन्हें उनके समकालीनों में सबसे अलग से पहचान दिलाता है। गुरुवर श्रीप्रकाश शुक्ल के शब्दों में हिंदी के सारस्वत कवि केदारनाथ सिंह जी ने संग्रह के ब्लर्ब पर लिखा भी है कि-“इस युवा कवि ने शायद पहली बार कवित्त जैसे लगभग छोड़ दिए गए छंद को एक नई भंगिमा के साथ अपनी कविता में अवतरित किया है।”
(लेखक बीएचयू के हिन्दी विभाग के शोध छात्र हैं )