दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

ज्ञान, योग, ध्यान ही परिपूर्ण विज्ञान

हृदयनारायण दीक्षित

प्राचीन भारतीय दर्शन में बुद्धि की भूमिका है और बुद्धि भौतिक है। आत्मा अदृश्य है। उपनिषदों और गीता में आत्मबोध को सर्वोच्च ज्ञान कहा गया है। कठोपनिषद् में नचिकेता की जिज्ञासा भी यही है। यम ने नचिकेता को बताया, “यह आत्मागूढ़ है, रहस्यपूर्ण है। सभी प्राणियों के हृदय में है। लेकिन प्रत्यक्ष नहीं है – गूढ़ो आत्मा न प्रकाशते। यह सूक्ष्म तत्वों को देखने वालों द्वारा अति सूक्ष्म बुद्धि से ही देखा जाता है।” (कठोपनिषद् 1.3.12) यहां सूक्ष्मदर्शी एकाग्र बुद्धि से आत्मा देखे जाने का निष्कर्ष है। मूल मंत्र का दूसरा भाग पठनीय है, “दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्म दर्शभि:”। यहां बुद्धि की ही विशेष महत्ता है बुद्धि में दो विशेषण हैं। पहला एकाग्रता और दूसरा सूक्ष्मता। आगे एकाग्रता की सरल विधि भी बताते हैं “पहले वाक् को मन में विली करें फिर मन को बुद्धि में। फिर बुद्धि को ज्ञान आत्मा की ओर गहनता से विलय करें। फिर ज्ञान आत्मा को प्रशांत आत्मा में।” (वही 13) वाणी का केन्द्र भीतर है। वाक् इसी की अभिव्यक्ति है। हम जो कुछ बोलते हैं, वह वाक् है। बोलते या बोलने के लिए मनन करते व्यक्ति का मन इधर उधर भागता है। इसलिए वाक् को मन में विलीन करने के सुझाव हैं। मन चंचल है। मन एकाग्रता में बाधा है। इसलिए मन को ज्ञानबुद्धि से सम्बद्ध करने और फिर समूचे ज्ञान आत्म को प्रशांत आत्म में ले जाने का योग सचमुच में ध्यान के लिए उपयोगी है।
ज्ञान, योग, ध्यान आदि जीवन को आनंदमय बनाते हैं। योग परिपूर्ण विज्ञान है, ध्यान उसी का महत्वपूर्ण भाग है। लेकिन इन्हें पढ़ सुनकर ही जीवन में ढालना कठिन है। विरल लोग ही पढ़ कर या सुनकर पूरी बात जान पाते हैं। जीवन रूपांतरित करने वाले ऐसे विज्ञान को वरिष्ठ जानकारों से सीखना ज्यादा उचित होता है। इसीलिए उत्तर वैदिक काल में आचार्य को देव कहा गया था। आत्मतत्व बोध के उपकरण, गति और दिशा का सम्यक ज्ञान जटिल है। सीधी चेतावनी सहित आगे बताते हैं, “उठो, जागो। प्राप्त किए जाने योग्य वरिष्ठों के पास जाओ। उनसे बोध प्राप्त करो। कवियों ने तत्वज्ञान के मार्ग को छूरे की तीक्ष्ण धार जैसे दुरूह बताया है।” (वही 14) यह मंत्र बहुत चर्चित है। उत्तर वैदिक काल के इस मंत्र को आधुनिक काल के ज्ञानी विद्वान विवेकानंद ने भी बहुधा दोहराया है। तुलसीदास ने भी इसी परंपरा में ज्ञान मार्ग को तलवार की धार बताया है – ज्ञान को पंथ कृपाण की धारा। इस मंत्र का ‘उठो, जागो’ भी महत्वपूर्ण है। यहां उठो निष्क्रियता त्यागने और जागो बोध सतर्कता के अर्थ में आए हैं। मंत्र सोए हुए लोगों को जगाने के लिए नहीं है। जो सामान्तया जागे हुए हैं लेकिन जागते हुए भी स्वयंबोध के प्रति सोए हुए जैसे हैं। प्रबोधन में उन्हीं के लिए दिक् संकेत हैं।
उपनिषद् साहित्य आत्मस्वरूप की चर्चा से भरापूरा है। कठोपनिषद् में भी इसकी व्यापक चर्चा है। लेकिन अपरिचित और अदृश्यमान को समझाने की चुनौती भी है। इसके लिए आगे भी निषेध पद्धति का सहारा लिया गया है। बताते हैं, “वह शब्द रहित है। स्पर्श रहित है – छूने में नहीं आता। रूप रहित है – देखा नहीं जा सकता। गंधहीन है – सूंघने में भी नहीं आता। अविनाशी है। अनादि है, सदा से है। अनंत है – अंतहीन है। सदा सत्य है। महत् से भी विराट है। उसे जानकर व्यक्ति मृत्यु कष्ट से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।” (15) यहां शब्द, स्पर्श, रूप, गंध आदि की शून्यता का सम्बंध इन्द्रियों की शक्ति से परे बताना है। वह इन्द्रियबोध से नहीं जाना जा सकता। उसके अनादि और एक सत्य होने की धारणा ऋग्वेद की ज्ञान परंपरा है। उस एक सत्य का बोध निश्चित ही सांसारिक दुखों से छुटकारा दिला सकता है। मैं मेरा या दूसरा सोंचना दुखदायी है। संसार प्रतिपल बदल रहा है। ‘मैं’ का अस्तित्व भी अल्पकालिक है। मेरे पराए का अस्तित्व क्षण भंगुर है। संसार में जो मेरा है, वह पलक झपकते ही दूसरे का होता रहता है। पूर्वजों ने रागद्वैष को दुख का मूल सही ही बताया है। अज्ञान बोध जरूरी है। इसी बोध से ज्ञान यात्रा की शुरूवात होती है।
जानना, सुनना, समझना और सुने, समझे ज्ञान को बताना वैदिक परम्परा है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इसे व्रत कर्तव्य बताया गया है। अधिकांश प्राचीन ग्रंथों में सुनने सुनाने के सुखद परिणाम भी बताए गए हैं। कठोपनिषद् में कहते हैं कि, “यम देव द्वारा नचिकेता को बताए गया आख्यान सनातन है – नचिकेतम् उपाख्यानं सनातनं। मेधावी इसे सुनकर व सुनाकर ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होते हैं।” (वही 16) यहां सबसे बड़ी बात है कि यम नचिकेता की कथा सनातन अर्थात सदा से है। प्रश्न है कि नचिकेता की कथा उत्तर वैदिक काल की है। सनातन क्यों है? वस्तुत: इसमें कही गई बातें सदा से हैं। संवाद हजार पांच सौ वर्ष पुराना हो सकता है लेकिन कश्य तथ्य सदा से हैं। ग्रंथों की प्रशंसा में भी ऐसा कहा जाता रहा है। गीता (18.70-71) में श्रीकृष्ण ने कहा था “जो हमारे इस संवाद का अध्ययन करता है वह ज्ञान यज्ञ से उपासना करता है। जो श्रद्धा से इसे सुनता है वह शुभ लोकों को प्राप्त करता है।” कठोपिनषद् में ब्रह्मलोक प्राप्त करने का उल्लेख है। उपनिषद् में ब्रह्म संपूर्णता है, ब्रह्म लोक भी है। गीता बाद की है। सारी बातें एक जैसी हैं लेकिन इसमें ब्रह्मलोक की जगह शुभ लोक आए हैं। मूल बात है तत्वज्ञान का अध्ययन, सुनना और सुनाना।
ज्ञान पाना देना और सुनाना पवित्र कर्तव्य रहे हैं। प्रकृति सदा से है। इसलिए प्रकृति का ज्ञान सदा से है। प्रकृति सृष्टि प्रकट होने के पहले भी रहती है। ज्ञान तो भी रहता है। यह प्रलय के बाद भी अतिसूक्ष्म अवस्था में रहती है। दोनो स्थितियां एक हैं। फिर सृष्टि प्रकार की स्थिति ‘व्यक्त’ कही गई हैं। व्यक्त स्थिति में ज्ञान का प्रवाह खुलकर बहता है। गीता में तमाम स्थानों पर श्रीकृष्ण संपूर्णता के प्रवक्ता हो गए हैं। वे संपूर्णता की ओर से ‘मैं’ का प्रयोग करते हैं। गीता (4.1 व 2) में श्रीकृष्ण ने ज्ञान परंपरा का उल्लेख किया है “मैंने यह अविनाशी योग ज्ञान सूर्यदेव विवस्वान को दिया था। विवस्वान ने मनु को बताया। फिर मनु ने इक्ष्वाकु को बताया। यह ज्ञान परम्परा से प्राप्त होता रहा है।” आगे (4.15) कहते हैं, “ज्ञान के इच्छुक लोगों ने इसे जानकर ही जीवन कर्म किए थे।” आधुनिक काल को विज्ञान युग कहते हैं। तमाम आधुनिक उपकरणों में सूचनाओं के अम्बार हैं लेकिन स्वयं के भाव, मनसंकल्प और रागद्वैष की जानकारी इंटरनेट आदि माध्यम नहीं दे सकते। वे सूचना के स्रोत हैं, ज्ञान के नहीं। ज्ञान और सूचना में भारी अंतर है। ज्ञान मुक्त करता है। मुक्त मन प्रशांत होता है। प्रशांत मन से कर्म करते समय कोई तनाव नहीं होते। स्वर्ग जैसी बातें न सोंचे तो भी जीवन में ज्ञान सुनने और सुनाने की महत्वपूर्ण भूमिका है।
पूर्वज सुने हुए को स्मृति में संजोने की स्तुतियां करते थे, “श्रुतं में गोपाय – हमारे सुने हुए को सुरक्षित करो।” ज्ञान का वक्ता आदरणीय है। कठोपनिषद् (1.3.17) में कहते हैं, “जो व्यक्ति इस परमज्ञान को विद्वानों की संसद में सुनाते हैं अथवा श्राद्धकाल में एकत्रित समूह को सुनाते हैं। उनका सुनाने का यह कर्म अनंत सुख देता है, वे अनंत सामथ्र्य पाते हैं।” मूल श्लोक में “श्रावयेद ब्रह्म संसद” आया है। अर्थ है – विद्वानों की संसद में सुनाते हैं। बड़ी बात है कि ‘संसद’ शब्द उत्तरवैदिक काल में भी था। निश्चित ही लोग विभिन्न अवसरों पर संसद की तरह जुटते थे। उनमें तात्कालिक व शाश्वत विषयों पर चर्चा होती थी। संसद का अंग्रेजी अनुवाद ‘पारलेमेन्ट’ सही नहीं। ‘पारले’ का अर्थ मुंह कुटकना, चबाना आदि होता है। संसद में सद् के पहले ‘सं’ जुड़ा है। सं का अर्थ ‘ठीक से’ होता है और सद् का अर्थ होना या बैठना है। उपनिषद् भी इसी सद् से बना है। सुनना और सुनाना महत्वपूर्ण है। श्वेताश्वतर उपनिषद् (6.21 व 22) में बताया गया है “कठोर तप परिश्रम व देवों की कृपा से श्वेताश्वतर ऋषि ने पूर्ण ज्ञान पाया सबको सुनाया। यह ज्ञान पहले से था। इसे अशांत चित्त वालों को नहीं सुनाना चाहिए। योग्य शिष्य/पुत्र ही अधिकारी हैं।” अशांत चित्त वाले भी इसे सुने, पढ़े तो कोई गलत आदत नहीं।

Related Articles

Back to top button