दुनिया छोड़ी-दोस्ती न तोड़ी, ऐसे थे राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के ये पैरोकार
लखनऊ. राम मंदिर के पैरोकार रहे परमहंस रामचंद्र दास और बाबरी मस्जिद के पैरोकार हाशिम अंसारी दोनों इस दुनिया में नहीं हैं। दोनों के बीच वैचारिक लड़ाई जरूर थी, लेकिन उनकी दोस्ती अटूट थी। अब शायद ही ऐसा दिखने को मिले। बता दें, दोनों एक ही साथ एक ही रिक्शे पर होकर कचहरी जाते थे। दिनभर की जिरह के बाद हसंते-बोलते एक ही रिक्शे से घर वापस आते थे। करीब 6 दशक तक यूं ही उन्होंने दोस्ती निभाई। दूसरी ओर, मौजूदा समय में दोनों तरफ के जो पैरोकार हैं उनके जैसे रिश्ते नहीं दिखते हैं। दोनों तरफ के पैरोकार अपने-अपने सुरक्षा घेरे में आते हैं और अदालत में पैरवी करके चले जाते हैं, इनके बीच कोई उस तरह का संवाद होता नहीं दिखता।
वैचारिक लड़ाई तो थी, कुंड पर खेलते थे ताश के पत्ते…
-महंत नारायणाचारी बताते हैं कि उन दिनों में हम यह इंतजार किया करते थे कि कब दोनों लोग खाली समय में दन्तधावन कुंड के पास आएंगे। अक्सर शाम होते वह एक साथ आते थे और ताश के पत्ते खेलते थे। यह खेल देर रात तक चलता था। चाय पी जाती थी, नाश्ता किया जाता था, लेकिन एक भी शब्द मंदिर-मस्जिद को लेकर नहीं बोला जाता था।
-साकेत विद्यालय (अयोध्या) के पूर्व प्राचार्य बीएन अरोड़ा का कहना है कि उनकी वैचारिक लड़ाई थी। वह अपने-अपने हक और आराध्या के लिए कचहरी में पैरवी करते थे। उनकी कोई भी व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी।
-संस्कृत विद्यालय के आचार्य रहे पंडित धनंजय मिश्र की मानें तो हाशिम अंसारी गजब जीवट के आदमी थे। उनके चेहरे पर झुर्रियों के साथ-साथ मायूसी मैंने 20 सालों में कभी नहीं देखी। हाशिम अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा बचे हुए लोगों में से थे, जो दशकों तक अपने धर्म और बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और कानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ते रहे।
-वहीं, अयोध्या संस्थान के सहायक प्रबंधक राम तीरथ ने कहा, ”मुझे यहां नौकरी करते हुए 30 साल का समय हो गया। हाशिम अंसारी के स्थानीय हिंदू साधु-संतों से उनके रिश्ते कभी खराब नहीं हुए। मैं जब भी उनके घर गया, हमेशा आस-पड़ोस के हिंदू युवक चचा-चचा कहते हुए उनसे बतियाते हुए मिले।”
-”जब महंत रामचंद्र परमहंस का देहांत की सूचना हाशिम अंसारी को मिली तो वह पूरी रात उनके पास रहे। दूसरे दिन अंतिम संस्कार के बाद ही वह अपने घर गए।”
1949 से मुकदमें की पैरवी कर रहे थे अब्बू
-हाशिम के बेटे इकबाल अंसारी ने बताया, ”अब्बू (हाशिम) 1949 से मुकदमें की पैरवी शुरू की थी, लेकिन आज तक किसी हिंदू ने उनको एक लफ्ज गलत नहीं कहा। हमारा उनसे भाईचारा है, वो हमको दावत देते हैं। मैं उनके यहां सपरिवार दावत खाने जाता हूं।”
-मौजूदा समय में मामले के पैरोकार हाजी महबूब ने कहा, ”दूसरे प्रमुख दावेदारों में दिगंबर अखाड़ा के रामचंद्र परमहंस से हाशिम की अंत तक गहरी दोस्ती रही।”
-”परमहंस और हाशिम ये दोनों दोस्त अब जीवित नहीं रहे, लेकिन उनकी दोस्ती अयोध्या-अवध की मिलीजुली गंगा-जमुनी तहजीब का केंद्र रहा है।”
-”हाशिम इसी संस्कृति में पले बढ़े थे, जहां मुहर्रम के जुलूस पर हिंदू फूल बरसाते हैं और नवरात्रि के जुलूस पर मुसलमान फूलों की बारिश करते हैं।”
कौन थे हाशिम अंसारी
-हाशिम का परिवार कई पीढ़ियों से अयोध्या में रह रहा है। वो 1921 में पैदा हुए थे। 20 जुलाई 2016 को उनका देहांत हो गया। वहीं, 11 साल की उम्र में 1932 में हाशिम के पिता का देहांत हो गया था।
-दर्जा (कक्षा) दो तक पढ़ाई की थी। फिर सिलाई यानी दर्जी का कम करने लगे। फैजाबाद में उनकी शादी हुई। उनके दो बच्चे एक बेटा और एक बेटी हैं। उनके परिवार की आमदनी का कोई खास जरिया नहीं है।
-6 दिसंबर 1992 के बलवे में बाहर से आए दंगाइयों ने उनका घर जला दिया, लेकिन अयोध्या के हिंदुओं ने उन्हें और उनके परिवार को बचा लिया।
कौन थे परमहंस रामचंद्र दास
-साल 1913 में जन्मे 92 वर्षीय रामचंद्र परमहंस का 31 जुलाई 2003 को अयोध्या में निधन हो गया था। वे 1934 से ही अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े थे।
-दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या में परमहंस रामचन्द्र दास अध्यक्ष रहे, जिसमें श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ। परमहंस सर्वसम्मति से यज्ञ समिति के वरिष्ठ उपाध्यक्ष चुने गए थे।