नेशन और राष्ट्र पर्यायवाची नहीं हैं
हृदयनारायण दीक्षित
स्तम्भ : राष्ट्र प्राचीन वैदिक धारणा है और नेशन आधुनिक काल का विचार है। राष्ट्र के लिए अंग्रेजी भाषा में कोई समानार्थी शब्द नहीं है। ई.एच. कार ने नेशन की परिभाषा की है, “सही अर्थों में राष्ट्र्रों या नेशंस का उदय मध्यकाल की समाप्ति पर हुआ।” उन्होंने नेशन के घटक भी बताये हैं, “अतीत और वर्तमान में वास्तविकता, भविष्य की अभिलाषाओं के लिए एक सरकार या राजव्यवस्था की धारणा, सदस्यों का परस्पर सम्पर्क, न्यूनाधिक निर्धारित भूभाग। चरित्रगत विशेषताएं व सदस्यों के सम्मिलित स्वार्थ तथा राष्ट्र के सम्बंध में सदस्यों के मन में समवेत भाव।”
अतीत और वर्तमान की निरंतरता वस्तुतः किसी समाज की ऐतिहासिक निरंतरता है। सुंदर भविष्य की अभिलाषा व्यक्तिगत होती है। यह सामूहिकता के प्रभाव में सामाजिक भी हो सकती है। यूरोपीय क्षेत्रों में मध्यकाल के पूर्व ऐसी सांस्कृतिक सामूहिकता का अभाव रहा है। भारतीय भूक्षेत्र में ऐसी सांस्कृतिक सामूहिक चेतना मध्यकाल में है। इसके पहले प्राचीन काल में है। इसके भी बहुत पहले वैदिक काल में भी है। भारतीय राष्ट्रभाव और राष्ट्र हजारों वर्ष प्राचीन हैं। कार सहित अनेक अन्य यूरोपीय विद्वानों ने भी नेशन के लिए एक सुनिर्धारित भूभाग में एक सरकार को जरूरी बताया है। प्राचीन भारतीय राष्ट्रभाव में राजा या सरकार की उपयोगिता तो है लेकिन अनेक राजाओं या राजव्यवस्थाओं के प्रभाव क्षेत्र में भी एक ही राष्ट्र की उपस्थिति है। भारतीय राष्ट्रभाव भूसांस्कृतिक अनुभूति है। यहां भूमि माता है, यहां के निवासी इसी भूमि के पुत्र हैं।
अथर्ववेद (19.41) में राष्ट्र के जन्म का उल्लेख है। ऋषि कवि कहते हैं “लोक कल्याण की इच्छा रखने वाले ऋषियों ने तप किया। दीक्षा आदि नियमों का पालन किया। इसी से राष्ट्र, राष्ट्र का बल व सामथ्र्य पैदा हुआ – ततो राष्ट्रं बलम् ओजश्च जातं। ज्ञानी जन राष्ट्र सेवा करें।” (वही) अथर्ववेद में लोककल्याण की कामना, तप और दीक्षा को राष्ट्र के जन्म का कारण बताया गया है। दीक्षा नियमों के पालन सहित लोककल्याण के लिए किया गया श्रम तप सुखद परिणाम देता है। अथर्ववेद (19.43) में अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्र, सोम, इन्द्र व जल से एक समान स्तुति है कि दीक्षा व तप वालों को जो आनंद क्षेत्र मिलता है, वही हम सबको मिले।” यह परम पद या आनंद क्षेत्र ऋषियों का राष्ट्र हो सकता है। ऋषि को यह राष्ट्र प्रिय है। वे इसे तेजस्वी व संपन्न बनाना चाहते हैं, “हम इस राष्ट्र को तेजस्वी व हर तरह से समृद्ध बनाते हैं। हम सबको बलशाली बनाते हैं – समहमेषां राष्ट्रं। हम राष्ट्र को वीरों से समृद्ध करते हैं।” (3.19.2 व 4) अथर्ववेद का राष्ट्र प्राचीन है। राष्ट्र के जन्म का इतिहास अथर्ववेद के ऋषियों को परंपरा से प्राप्त हुआ है।
ऋग्वेद के रचनाकाल में राष्ट्रभाव की अनुभूति हो चुकी थी। आदिम मानव समूह घुमंतू थे। वे अभी कृषक नहीं बने थे। भोजन के लिए शिकार व वनस्पति उत्पादों फलों आदि पर निर्भर थे। फिर वे पशुपालक बने। सामाजिक विकास के इस चरण में काफी समय लगा होगा। घुमंतों समूह आपस में लड़ते झगड़ते भी थे। इसलिए अलग अलग समूहों में परस्पर संगठनभाव बढ़ा। इसके अगले चरण में उन्हें कृषि कार्य की जानकारी हुई। उन्होंने भूमि की उर्वरा शक्ति जान ली। किसान समूह घुमंतू नहीं हो सकते। जहां कृषि कार्य वहीं आसपास आवास स्वाभाविक ही है।
कृषि कार्य से जुड़े समूहों में भूमि के प्रति रागात्मक प्रीति बढ़ी। ऐसी प्रीति स्वाभाविक थी। खेत जोतना, बीज बोना, फसल रक्षा करना और फसल से जुड़ा रहना व पड़ोस में ही रहना आवश्यक था। तब कृषि कार्य में सामूहिकता की जरूरत थी। सामाजिक विकास की इस मंजिल पर गण बने और इसके बाद गण से जन। गण छोटी इकाई है। जन बड़ी इकाई। जन गण की सामूहिक मन का भूक्षेत्रीयता से संयोग हुआ। इसी मिलन संयोग से परस्पर प्रेम की संस्कृति का विकास हुआ। लोगों में संस्कृति और भूक्षेत्रीयता की प्रीति से राष्ट्रीयता बढ़ी। राष्ट्रीयता को मजबूत करने के लिए तप, श्रम हुए। इसी भावभूमि व वस्तुगत परिस्थिति में राष्ट्र का जन्म हुआ।
अथर्ववेद में तमाम भौतिक उपलब्धियों की अभिलाषा है लेकिन ऋषियों के मन में राष्ट्र संवर्द्धन की अभिलाषा कम नहीं होती। एक सूक्त (7.35) में अग्नि देवता से कहते हैं “कि आप हमारे शत्रुओं को नष्ट करो।” फिर जोड़ते हैं “हमारे राष्ट्र को सौभाग्यशाली समृद्धिशाली बनाए। सभी देवगण भी इस कार्य में सहयोग करें” – इदं राष्ट्रं पिप्तहि सौभागाय विश्व एनमनु मदन्तु देवाः।” (वही 1) राष्ट्र सुखदाता है। समृद्धिदाता है और शांतिदाता भी है। ऋषि शान्तिदाता वृहदराष्ट्र के इच्छुक हैं। कहते हैं, “वरूण इन्द्र व अग्नि हमारे लिए शांतिदायक वृहद् राष्ट्र सुस्थिर करें – अथास्मभ्यं वरूणों वायु अग्निर्वृहद् राष्ट्रं संवेश्यं द धातु।” (3.8.1) राष्ट्र प्रिय है। वे इसे सुस्थिर अजर अमर रखना चाहते हैं।
सूर्य प्रकृति की प्रत्यक्ष शक्ति है। सूर्योदय और सूर्यास्त सामान्य प्राकृतिक घटनाएं हैं लेकिन अथर्ववेद के ऋषि को लगता है कि “वे राष्ट्र में उदित हुए हैं। उन्होंने अनिष्ट दूर भगाया है। अभय प्रदान किया है – आ ते राष्ट्रमिह रोहितो अहार्षीद् त्या स्थन्म्रधो अभयं ते अमृत।” (13.1.5) सूर्य अपने तेज से राष्ट्र को तेजस्वी बनाते हैं। सूर्य देव से प्रार्थना है कि अपनी महिमा से राष्ट्र को दूध घी से समृद्ध करें – महिम्ना सं ते राष्ट्रमनक्तु पयसा घृतेन। (वही 8) तब दूध घी महत्वपूर्ण खाद्य थे। अन्न दूध व घी की समृद्धि अभिलाषा भौतिक इच्छा है। अथर्ववेद के ऋषि राष्ट्र संवर्द्धन के प्रति अतिरिक्त सजग हैं। वे अपनी सामान्य स्तुतियों में भी राष्ट्र का कल्याण सर्वोपरि रखते हैं। राष्ट्र उनके अंतःकरण की प्रत्यक्ष अनुभूति है।
अथर्ववेद का राष्ट्रभाव सांस्कृतिक राष्ट्रभाव से विकसित हुआ है लेकिन इस राष्ट्र में सत्ता या राजव्यवस्था भी महत्वपूर्ण घटक है। यूरोपीय राष्ट्रवाद – नेशलज्मि में सर्वनिष्ठ सरकार की सर्वोपरिता है। अथर्ववेद का राष्ट्र भी राज्यविहीन नहीं है, यहां राजा है और खूबसूरत राजव्यवस्था भी है। राजा आमजनों से निर्वाचित है। अथर्ववेद के एक मंत्र (3.4.2) में राजा के चुनाव के स्पष्ट संकेत हैं। ऋषि बताते हैं कि “पांच दिशाओं से आए लोग आपका वरण करते हैं। आप अपने तप बल से राष्ट्र की धन संपन्नता ठीक रखें। शासन कार्य में उग्र रहें – त्वं विशो वृणतां राज्याय/त्वामिमाः प्रदिशः पंज देवीः/ वष्र्मन राष्ट्रस्य ककुदि श्रयस्वा। कौटिल्य ने भी दंड को महत्वपूर्ण बताया है।
प्राचीन राष्ट्र भूमि, जन और राज्यव्यवस्था का ही जोड़ नहीं है। एक सहमना धारणा और संस्कृति राष्ट्र के मुख्य तत्व है। वृहदारण्यक उपनिषद् में धर्म, क्षत्र, विश् व पूषन राष्ट्र के मुख्य तत्व हैं। अथर्ववेद के रचना काल का राजा या क्षत्र सर्वशक्तिमान नहीं है। क्षत्र के पहले यहां धर्म की सत्ता है। वैदिक भारत का धर्म अंधविश्वास नहीं है। धर्म तत्कालीन भारत का लोकस्वीकृत संविधान है। वृहदारण्यक उपनिषद् में धर्म की परिभाषा भी है “सत्य धर्म है, धर्म सत्य है – यो वै स धर्मः, सत्यं वैतत्।” अनुभूत वैज्ञानिक तथ्य, सामाजिक व सांस्कृतिक सत्य ही राज्यव्यवस्था के नियंता है। राजा है, फिर विश् – प्रजा है। यहां प्रजा का अर्थ “शासित जनसमूह” नहीं है। प्रजा का अर्थ है – प्रियतम् संतान। राजा के लिए प्रजा संतान जैसी प्रिय है। पूषन् यहां भू-क्षेत्र है। शतपथ ब्राह्मण में पृथ्वी को पूषा कहा गया है, पृथ्वी में पोषण और संरक्षण की दिव्य क्षमता है। ऋग्वेद के पूषन भी पोषण और समृद्धि के ही देवता हैं। वैदिककालीन राष्ट्र के सभी तत्व परस्परावलम्बन में हैं और लोकमंगल का कारण हैं।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)