फाइनल से पहले सेमीफाइनल
राज्यसभा व विधान परिषद चुनाव
दस्तक ब्यूरो
अब तो कमोबेश यह साफ हो गया है कि अगले साल उप्र विधानसभा के होने वाले चुनावों का शंखनाद हो चुका है और इसमें किसी भी तरह का सवाल उठाने की कोई भी गुंजाइश शेष नहीं बची है। लेकिन चुनाव की असल रणभेरी बजने से पहले उप्र की राजनीति के इतिहास में यह पहली बार हुआ होगा कि नेता प्रतिपक्ष ही जंग से पहले हाथ खड़े कर दे और जिसके खिलाफ वह गला फाड़-फाड़कर बीते चार सालों में विधानसभा और उसके बाहर भी सूबाई अखिलेश यादव सरकार के खिलाफ हल्ला बोलता रहा हो, अब वही उसके ही बगलगीर होने जा रहा है। खैर, यह तो राजनीति का शगल है। कमोबेश इसी राजनीति के ही चलते जून के महीने में उप्र विधान परिषद व राज्यसभा की रिक्त सीटों के लिए हुए चुनाव में दृश्य उपस्थित हुआ, उससे तो यह साफ हो गया कि अब सूबे के विधायक भी चुनाव में जाने की तैयारी के लिए कमर कस चुके हैं और इसीलिए दोबारा फिर विधानसभा की दहलीज लांघने के लिए वे दलीय सीमाओं को तोड़ने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। यह बात सही है कि हर राजनेता अपने नफे-नुकसान के लिहाज से समय-समय पर निर्णय लेता है और दलबदल करता है लेकिन बसपा नेता और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य के पार्टी से दिए गए इस्तीफे ने तो बसपा को झकझोर ही दिया। एक लिहाज से 2017 में होने वाली सत्ता की दौड़ में अब तक कथित रूप से सबसे आगे चल रही बसपा अब अर्दब में आ जाने जैसी स्थिति में दिख रही है। इसी दौरान स्वामी के हाथी की सवारी छोड़ साइकिल की सवारी करने की संभावनाओं ने सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को मुख्तार अंसारी सरीखे दागी की पार्टी के विलय के दाग को कुछ हद तक पीछे और चर्चा से बाहर कर दिया है।
इससे पहले विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव में भाजपा ने एक-एक अतिरिक्त प्रत्याशी खड़ा कर सभी को मुश्किल में डाल दिया, हालांकि जब चुनाव परिणाम आये तो भाजपा के रणनीतिकारों की ही जमकर आलोचना हुई। लेकिन फिर भी भाजपा खुश दिखी तो कांग्रेस नि:शब्द। विधान परिषद के बाद राज्यसभा में भी लगभग सभी दलों के विधायकों ने अपनी दलीय निष्ठाओं को तार-तार करने में कोई भी गुरेज नहीं की। सबसे ज्यादा खराब हालत कांग्रेस की दिखायी दी तो वहीं सपा भी अपने विधायकों को सहेज कर नहीं रख सकी। हालांकि बसपा की राह में उसके बागियों व दागियों ने तमाम रोड़े अटकाये लेकिन अंतत: पार्टी सुप्रीमो मायावती का ‘मैनेजमेंट’ सभी पर भारी पड़ा। यहां तक कि भाजपा के भी एक विधायक ने दलीय निष्ठा को धता बताते हुए खुलकर क्रास वोट किया। अब चूंकि राज्य विधानसभा चुनावों में बहुत अधिक समय नहीं बचा है, ऐसे में सभी दलों को नए सिरे से अपनी रणनीति बनाने को यह चुनाव मजबूर करेगा।
दरअसल इन दोनों ही चुनावों में मतदान की स्थिति सिर्फ और सिर्फ भाजपा के अतिरिक्त प्रत्याशियों को मैदान में उतार देने के कारण ही उत्पन्न हुई। विधान परिषद की 13 रिक्त सीटों के लिए चुनाव होना था। इन चुनावों में सपा ने अपने संख्याबल के हिसाब से आठ प्रत्याशियों पर दांव लगाया था। वहीं बसपा ने तीन व कांग्रेस ने एक प्रत्याशी को मैदान में उतारा था। उधर, भाजपा ने अपनी वास्तविक संख्याबल से अधिक दो प्रत्याशियों पर विधान परिषद चुनाव में दांव लगाया। भाजपा द्वारा एक अतिरिक्त प्रत्याशी दयाशंकर सिंह को मैदान में उतार दिये जाने की वजह से मतदान की स्थिति पैदा हुई। विधान परिषद चुनाव में जीत के लिए प्रथम वरीयता के 29 मतों की आवश्यकता थी। जबकि भाजपा के पास अपना संख्या बल सिर्फ 41 का था। पार्टी को उम्मीद थी कि विभिन्न दलों के असंतुष्ट विधायक उसके पक्ष में मतदान करेंगे और उनका दूसरा प्रत्याशी आसानी से जीत हासिल कर लेगा। कमोबेश ऐसा हुआ भी और भाजपा के पहले प्रत्याशी भूपेन्द्र चौधरी को 31 वोट मिले जबकि दूसरे प्रत्याशी दयाशंकर सिंह का लंबी लड़ाई के बाद 20 वोटों से ही संतोष करना पड़ा। जबकि भाजपा के एक विधायक विजय बहादुर यादव ने खुलकर पार्टी के साथ विद्रोह किया और सपा के पक्ष में मतदान किया। लेकिन यहां यह तो साफ है कि बावजूद इसके भाजपा के पहले प्रत्याशी को 29 के बजाये 31 वोट यानि दो वोट अधिक मिले। वहीं पार्टी के एक दूसरे प्रत्याशी दयाशंकर सिंह को संख्या बल के हिसाब से केवल दस वोट मिलने चाहिए थे लेकिन उन्हें 20 वोट मिले। जाहिर है कि यह सभी अतिरिक्त वोट सपा, बसपा व कांग्रेस व निर्दलीय व अन्य छोटे दलों के रहे होंगे। साथ ही उसे इससे ज्यादा मतों की आस भी रही होगी।
वहीं राज्यसभा चुनाव में भी भाजपा के अधिकृत प्रत्याशी शिव प्रताप शुक्ला को 36 वोट हासिल हुए। जबकि उसके द्वारा समर्थित प्रत्याशी प्रीती महापात्रा को प्रथम वरीयता के 18 तथा कुल 20.52 वोटों से ही संतोष करना पड़ा और चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा। लेकिन बावजूद इसके भाजपा समर्थित प्रीती ने भाजपा के बागी को दरकिनार कर बचे चार वोट के साथ प्रथम वरीयता के 14 वोट हासिल कर उपलब्धि हासिल की। साथ ही उन्हें द्वितीय वरीयता के भी वोट मिले। उधर, 80 सदस्यों वाली बहुजन समाज पार्टी के चार सदस्यों के खुलेआम बागी होने के बाद उसका संख्याबल सिर्फ 76 का रह गया था। बसपा मुखिया मायावती ने इस सच्चाई को समझते हुए बहुत बेहतर रणनीति बनायी। उसी का यह परिणाम था कि उसे विधान परिषद चुनावों के 14 अतिरिक्त वोट मिले और उसके सभी तीन प्रत्याशी प्रथम वरीयता के मतों से ही चुनाव जीत गए। वहीं राज्य सभा चुनाव में बसपा के सामने अपने दो प्रत्याशियों को जिताने के लिए कोई खास संकट नहीं था। बावजूद इसके ‘मैनेजमेंट’ में ढील नहीं दी गयी। बसपा के दोनों प्रत्याशी सतीश चन्द्र मिश्र 39 वोट पाकर तथा अशोक सिद्धार्थ रिकार्ड 42 वोट पाकर विजयी घोषित हुए। यदि इन दोनों को प्राप्त प्रथम वरीयता के मतों को जोड़ दिया जाये तो यह संख्या 81 बनती है। इससे पहले विधान परिषद चुनाव में बसपा ने 91 वोट हासिल कर तहलका मचाया था। साफ संकेत हैं कि विभिन्न दलों के विधायक अगली बार विधान सभा की ड्योढ़ी लांघने के लिए हाथी पर सवारी करने को आतुर हैं।
सबसे दिलचस्प घटनाक्रम कांग्रेस में चला। पार्टी ने अमेठी के मूल निवासी और कथित रूप से कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के नजदीकियों में शुमार होने वाले दीपक सिंह को बहुत बड़े ‘मैनुपलेटर’ कहे जाने वाले नसीब पठान के स्थान पर विधान परिषद का प्रत्याशी बनाया। जाहिर है कि यह बात नसीब पठान को तो खासी नागुजरी होगी। लेकिन वे आलाकमान के फैसले के खिलाफ मुंह नहीं खोल पाये। उधर, कांग्रेस में ही ‘क्रास वोटिंग’ का सर्वाधिक खतरा था। ऐसे में दीपक सिंह की सीट खतरे में थे लेकिन राष्ट्रीय लोकदल, विधायक मुख्तार अंसारी, उनके भाई सिबगतउल्ला अंसारी व पीस पार्टी के डा. अय्यूब ने किसी तरह कांग्रेस की लाज बचायी। साफ है कि कांग्रेस के 29 में से यदि एक अस्वस्थ विधायक को हटा दें तो करीब आठ विधायकों ने दलीय लक्ष्मण रेखा को पार करने से गुरेज नहीं किया। कमोबेश यही हाल राज्यसभा चुनाव में भी दिखा। राज्यसभा चुनावों के पार्टी प्रत्याशी कपिल सिब्बल को प्रथम वरीयता के 34 मतों की दरकार थी लेकिन वे मात्र 25 वोट ही हासिल कर सकें। इसमें भी दो रालोद विधायकों की बैसाखी शामिल है। इसके अलावा मुख्तार अंसारी व उनके भाई सहित कई और का भी एहसान उन पर लद गया है। यानि यहां भी कांग्रेस विधायकों ने आलाकमान के आदेशों को तार-तार किया। विधान परिषद चुनाव में मतदान का ‘सैम्पल’ सामने आने के बाद साफ था कि राज्यसभा के मतदान में भी स्थितियां या तो यथावत रहेंगी या फिर इससे भी ज्यादा भयावह होंगी। इसी क्रास वोटिंग के खौफ के चलते मतदान के दौरान जहां सपा के वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह यादव व अरविन्द सिंह गोप मतदान के अंतिम समय तक मतदान केन्द्र बनाये गए तिलक हाल में मौजूद ही नहीं रहे बल्कि हर विधायक की गतिविधियों पर बकायदा नजर बनाये रखे थे।
बावजूद इसके सूत्र बताते हैं सपा के बागी राम पाल यादव के अलावा हरदोई से विधायक श्याम प्रकाश, भगवान शर्मा उर्फ गड्डू पण्डित, उनके विधायक भाई मुकेश शर्मा व नवाजिश आलम ने भी दलीय निष्ठायें तोड़ते हुए क्रास वोट किया। यही वजह है कि सपा के खास अमर सिंह को प्रथम वरीयता के मात्र 33 वोटों से ही संतोष करना पड़ा। जबकि उनसे कम ‘मैनेजर’ माने जाने वाले बेनी प्रसाद वर्मा ने उनसे अधिक और सर्वाधिक 39 वोट हासिल किए।
यूपी में कांग्रेस ने ढूंढे अपने 11 बागी विधायक
यूपी में राज्यसभा और विधान परिषद सदस्य चुनाव में क्रास वोट करने वाले कांग्रेस के विधायक पार्टी हाईकमान के रडार पर हैं। कांग्रेस की पड़ताल के बाद बनी लिस्ट में छह नहीं 11 विधायकों के नाम बतौर धोखेबाज सामने आ रहे हैं। पार्टी की सोच है कि इन विधायकों की घेरेबंदी कर चुनाव में इनको सबक सिखाया जाए। यूपी में मई में हुए राज्यसभा और एमएलसी सदस्य के चुनाव में कांग्रेस के छह विधायकों के क्रास वोटिंग करने का मामला सामने आया था। खुलासा हुआ था कि तीन मुस्लिम विधायकों बुलंदशहर जिले के स्याना से दिलनवाज खां, अमेठी की तितोही से मौहम्मद मुस्लिम, रामपुर के स्वार से नवाब काजिम अली के बसपा और तीन गैरमुस्लिम विधायक कुशीनगर के खड्डा से विजय दूबे, बस्ती के रधौली से संजय जायसवाल, बहादुरगढ़ के नानपारा से माधुरी वर्मा ने भाजपा के पक्ष में वोट दिया था। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस की गोपनीय जांच में पार्टी के खिलाफ वोट करने वाले विधायकों की तादाद 11 सामने आ रही है।