बंद हुई छोटी लाइन की छुक-छुक
इतिहास के पन्नो में सिमटी मीटर गेज रेल सेवा
संजय सक्सेना
विकास के सामने भावनाओं का कोई महत्व नहीं रहता है। चाहे देश का विकास हो या घर-परिवार का, व्यक्तिगत विकास हो या फिर सामूहिक, भावनाओं का अपना महत्व है और विकास इंसान की जरूरत है। भावनाओं से देश नहीं चलता है, जो भावनाओं के सहारे जीवन गुजारते हैं,वह अक्सर पिछड़ जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो विकास की बुनियाद पर बदलाव की निरंतरता जरूरी है। देश और समाज की यह क्रूर विडंबना है कि यहां बड़ी लाइन छोटी लाइन के लिये खतरा बनी रहती है। यही वजह है 132 वर्षों से जनता का बोझ ढोने वाली छोटी लाइन (मीटर गेज) की टे्रनें अब इतिहास के पन्नों में सिमटती जा रही हैं। पूरे देश से छोटी लाइन की सेवाएं 2018 तक समाप्त हो जायेंगी, लेकिन उत्तर प्रदेश में छोटी लाइन की सेवाएं दो वर्ष पूर्व ही इतिहास बन गई। 14 मई से छोटी लाइन की गाड़ियों के पहिये जाम हो गये, कल तक घने जंगलों से गुजरता यह सफर अगले कुछ समय के लिए थम गया। इस आशा और उम्मीद के साथ कि फिर एक नया सफर शुरू होगा, फिर से छोटे-छोटे स्टेशन आबाद होंगे, फिर लोगों के कानों तक दूर से ट्रेन की सुहानी आवाज सुनाई देगी, लेकिन माहौल काफी बदला हुआ होगा।
वर्षों तक गांव से शहर को जोड़ने वाला छोटी लाइन का सफर थमने पर भावनात्मक अभिव्यक्ति परवान सी चढ़ी। सेल्फी के इस युग में जब लोंगो को पता चला कि छोटी लाइन की गाड़ियां विदा होने वाली हैं तो इसके कई चाहने वालों (यात्रियों) में किसी ने एक तो किसी ने दो स्टेशनों का सफर कर खुशी-खुशी छोटी लाइन की। इस आधुनिक युग में खिलौना सी लगने वाली ट्रेन में यात्रा के साथ स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया। छोटी लाइन की टे्रनों की इससे अच्छी विदाई हो ही नहीं सकती थी। आखिरी सफर पर निकली नैनीताल एक्सप्रेस में भीड़ का आलम यह था कि लोग गेट पर लटके हुए थे, जबकि आम दिनों में ऐसा नजारा देखने को नहीं मिलता था। कल तक जिन मार्गों पर अभी तक छोटी लाइन की गाड़िया छुक-छुक किया करती थीं, चंद महीनों बाद उस मार्ग से ब्रॉड गेज (बड़ी लाइन) की गाड़िया दौड़ने लगेंगी। ब्राड गेज की गाड़ियां ज्यादा आरामदायक होंगी, सफर जल्दी पूरा करेंगी, लेकिन जिन मार्गों पर छोटी लाइन की गांिड़यां दौड़ती थी, उस मार्ग के यात्रियों को बड़ी लाइन की गाड़ियों से भावनात्मक रिश्ता बनाने में समय लग सकता है। दो दशक पूर्व सेंट्रल स्टेशन से लखनऊ तक छोटी लाइन और बड़ी लाइन की रेलवे लाइन अगल-बगल बिछी थी। नतीजा ये था कि छोटी लाइन और बड़ी लाइन की ट्रेनों में खूब मुकाबला होता था। कभी छोटी लाइन की ट्रेन आगे निकल जाती थी तो कभी बड़ी लाइन की ट्रेन और इसको लेकर यात्री आनंदित होते थे। कब लखनऊ आया, पता नहीं चलता था।
बात शुरुआती दौर की करें तो फर्रुखाबाद से मंधना तक 132 साल पहले 8.5 किमी की छोटी लाइन के रेलवे ट्रैक बिछाई गई थी। वर्ष 1886 में लखनऊ से सीतापुर तक बनी मीटर ग्रेज टे्रन जब 14 मई 2016 को बंद हुई उस समय तक छोटी लाइन की 22 ट्रेनों से करीब 30 हजार यात्री सफर कर रहे थे। यह सेवा समाप्त होते ही इन लोंगो के सामने सुगम आवामगन की समस्या खड़ी हो गई है। अब यह यात्री बसों में धक्का खाकर यात्रा पूरी कर रहे हैं। संगी साथी बिछड़ गये हैं। बहरहाल, 90 के दशक के शुरुआती वर्षों तक तो छोटी लाइन की गाड़ियों का विस्तार होता रहा, लेकिन इसके बाद सब कुछ धीरे-धीरे बदलने लगा। छोटी लाइन की टे्रनों पर ब्रेक लगते ही रेल प्रशासन ने छोटी लाइन उखाड़ कर बड़ी लाइन ट्रैक बिछाने का काम तीव्र गति से शुरू कर दिया है। छोटी लाइन के स्टेशनों के दरवाजे इस रूट के यात्रियों के लिये बंद कर दिये गये हैं। छोटी लाइन की टे्रनों का संचालन बंद होने का दुख सबको था। इसी वजह से बंदी की तारीख नजदीक आते ही इस रूट पर यात्रा करने वालों के बीच मैसेज का अदान-प्रदान शुरू हो गया था। ‘13 को रेल फेमिली टूट रही है, जुदा हुए तो क्या दिल बनाएं रखें।’’ का मैसेज यात्रियों के बीच खूब चला।
छुक छुक करते फर्राटा भरने वाली छोटे-छोटे डिब्बे वाली ट्रेनें अतीत में न सिमट जाये इससे बेचैन कुछ लोंगों ने संगठन बना कर छोटी लाइन का अस्तित्व बचाने के लिये आंदोलन भी चलाया, लेकिन विकास की दौड़ में उनकी सुनने वाला कोई नहीं था। यह आंदोलन परवान चढ़े बिना ही समाप्त हो गया। छोटी लाइन की महत्ता की बात कि जाये तो कानपुर के औद्योगिक विकास को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में छोटी लाइन का बड़ा योगदान रहा था। कानपुर में दर्जनों फैक्ट्रियां थीं, जहां छोटी लाइन की मालगाड़ियां माल ढुलाई व माल पहुंचाने का काम करती थीं। कोपरगंज में छोटी लाइन का रेलवे, गोदाम था और यहीं से चमनगंज, नई सड़क, बेकनगंज, परेड, बासमंडी, कोपरगंज व चुन्नीगंज समेत कई रूटों पर चलती थीं। शहर के औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने में छोटी लाइन की गाड़ियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिसे भुलाया नहीं जा सकता है।
लखनऊ से सीतापुर, लखीमपुर-खीरी होते हुए बरेली, नैनीताल जाना हो तो छोटी लाइन की टे्रनें और खास कर नैनीताल एक्सप्रेस काफी याद आती थीं। नैनीताल की वादियों में मौज मस्ती करने के लिये जाने वालों के बीच नैनीताल एक्सप्रेस काफी लोकप्रिय टे्रन थी। छोटी लाइन के स्टेशन काफी पास-पास होने के कारण यात्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में काफी आसानी रहती थी। कहीं भी यह गाड़िंया रुक जाती थीं। इन गाड़ियों के बारे में यहां तक मजाक उड़ाया जाता था कि यह तो हाथ देने भर से रुक जाती है। तमाम खामियों के बाद भी यह लोकप्रियता के शिखर पर थीं।यात्रियों के दिलों को छूती थीं।
छोटी लाइन का बड़ी लाइन में तेजी से होता बदलाव दिखने लगा है। पूर्वोत्तर रेलवे के इज्जतनगर मंडल (बरेली) में तेजी से अमान परिवर्तन का काम चल रहा है। पिछले वर्ष बरेली से कासगंज के बीच की मीटर गेज लाइन को ब्रॉड गेज में बदल दिया गया था। अब पीलीभीत-टनकपुर मीटर गेज रेल खण्ड को बड़ी लाइन में तब्दील किया जा रहा है। आमान परिवर्तन के चलते मंडल का पीलीभीत टनकपुर रेलमार्ग 14 मई से अनिश्चित काल के लिये बंद होना था, लेकिन पूर्णागिरी मेले के चलते रेलवे ने पीलीभीत-टनकपुर तक टे्रन संचालन की अवधि 16 जून तक बढ़ा दी है। बरेली में पीलीभीत-टनकपुर रेल मार्ग ही एकमात्र ऐसा ट्रैक बचा था, जहां अभी भी छोटी लाइन की ट्रेन चल रही थी।
पूर्वोत्तर रेलवे के मुख्य जनसम्पर्क अधिकारी संजय यादव ने बताया कि 16 जून तक इस मार्ग पर चार जोड़ी टे्रन चलेंगी। हिन्दुस्तान में अंग्रेज अफसर आइजत की तीन पीढ़ियों ने साकार किया था रेल बिछाने का सपना। आइजत के नाम पर ही बना इज्जतनगर रेल मंडल। एलेक्जेंड आइजत के नेतृत्व में बंगाल एंड नार्थ वेस्टर्न रेलवे ने 15 जनवरी 1885 को सोनपुर से गोरखपुर-मनकापुर-गोंडा-कर्नलगंज-घाघराघाट-बुढ़वल-बाराबंकी-मल्हौर होकर डालीगंज तक चरणबद्ध तरीके से लाइन बिछाने का काम शुरू किया था। जिसे 24 नवंबर 1896 को पूरा किया गया। एलेक्जेंड आइजत के नेतृत्व में बंगाल एंड नार्थ वेस्टर्न रेलवे ने 15 जनवरी 1885 को सोनपुर से गोरखपुर -मनकापुर-गोंडा-कर्नलगंज-घाघराघाट-बुढ़वल-बाराबंकी -मल्हौर होकर डालीगंज तक लाइन चरणबद्ध तरीके से लाइन बिछाने का काम शुरू किया। जिसे 24 नवंबर 1896 को पूरा किया गया। 15 नवंबर 1886 को शुरू हुआ था ब्रिटिश कालीन मीटरगेज ट्रेनों का सफर। 1960 के दशक से चल रही नैनीताल एक्सप्रेस की गड़गड़ाहट अब बंद हो चुकी है, न ही रूहेलखंड एक्सप्रेस की रफ्तार भरती बोगियां पटरी पर नजर आ रही हैं। इसके साथ ही जिस अंग्रेज अफसर आइजत ने लखनऊ तक रेल नेटवर्क बिछाने का सपना साकार किया था, उनके निशां भी समाप्त हो जाएंगे। यह वहीं अंग्रेज अफसर आइजत हैं जिनके नाम पर आइजतनगर (अब इज्जतनगर) रेल मंडल बना।
दरअसल, वर्ष 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के ठीक बाद ब्रिटिश सरकार को भारत में रेल नेटवर्क बिछाने की जरूरत महसूस हुई, जिससे वह अपनी सेना व साजोसामान भारत के किसी भी हिस्से में आसानी से पहुंचा सके। लखनऊ में दो अलग-अलग कंपनियों को लाइन बिछाने का जिम्मा सौंपा गया। ऐशबाग से सीतापुर होकर काठगोदाम तक रूहेलखंड एंड कुमाऊं रेलवे ने रेल लाइन बिछाने का काम शुरू किया। लखनऊ में इसी रेलखंड पर सबसे पहली ट्रेन भी चली। इस रेलखंड को 1886 में शुरू किया गया जबकि इसके ठीक 10 साल बाद लखनऊ-कानपुर रेलखंड शुरू हो सका था। पूर्वी भारत को लखनऊ से रेल नेटवर्क से जोड़ने का श्रेय ब्रिटिश अफसर आइजत की तीन पीढ़ियों को जाता है। उस समय बंगाल व नार्थ वेस्ट रेलवे में जीएम और एजेंट के पद पर लगातार यह तीन पीढ़ियां रहीं। आइजतनगर मंडल का दायरा काठगोदाम से लखनऊ तक था। आजादी के बाद 14 अप्रैल 1952 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दिल्ली में आयोजित समारोह में पूर्वोत्तर रेलवे का गठन किया, जिसके 17 साल बाद एक मई 1969 को लखनऊ मंडल का गठन होने के बाद आइजतनगर मंडल से इसको अलग कर दिया गया। आज भी मीटरगेज ट्रेनों के इंजन पर आइजत का नाम इज्जतनगर लिखा हुआ है।
एलेक्जेंडर आइजत बंगाल व नार्थ वेस्टर्न रेलवे के 1883 से 1904 तक सेकेंड एजेंट और जीएम रहे। उन्होंने वाराणसी-इलाहाबाद नई लाइन बिछायी। गंगा नदी के पुल का नाम उनके नाम से ही आइजत पुल किया गया।
पूर्वी भारत में सोनपुर से गोरखपुर होकर लखनऊ तक रेल लाइन बिछाने का काम एलेक्जेंडर आइजत ने ही पूरा किया था। इसके बाद उनके बेटे ले. कर्नल डब्ल्यू आर आइजत 1920 से 1927 तक बंगाल एंड नार्थ वेस्टर्न रेलवे के एजेंट व जीएम बने। ले. कर्नल डब्ल्यू आर आइजत के ठीक बाद उनके पुत्र व एलेक्जेंडर आइजत के पौत्र जे आर आइजत बंगाल एंड नार्थ वेस्टर्न रेलवे के एजेंट जीएन बनाए गए। रूहेलखंड के बाद अस्तित्व में आए अवध तिरहूट रेलवे के पहले एजेंट के रूप में जे आर आइजत 1941 से 1944 तक आसीन रहे। लखनऊ के अतीत को बहुत करीब से जानने वाले इतिहासकार डॉ. योगेश प्रवीन का कहना है कि ऐशबाग-सीतापुर रेलखंड का ऐतिहासिक महत्व है। ऐशबाग लखनऊ का पहला रेलवे स्टेशन था। इसके कई साल बाद चारबाग स्टेशन अस्तित्व में आया था। मीटरगेज ट्रेनों से अन्नपूर्णा देवी, नैमिषारण्य और चंद्रिका देवी तीनों प्रधान देवियों के मंदिर हैं। शहरवासियों ने इतने साल तक इस पुरानी ट्रेन का आनंद उठाया। मीटरगेज ट्रेनों के सफर को लोग कई साल तक याद रखेंगे। कभी ऐशबाग से भाप वाले इंजन से टे्रन यात्रा की शुरूआत हुई थी।