देहरादून: 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में जिस प्रकार से पहाड़ से लेकर मैदान तक आबादी वाले क्षेत्रों में गुलदार (तेंदुआ) की धमक बढ़ी है, उसके पीछे कहीं बाघों की बढ़ी संख्या तो वजह नहीं। गुलदारों की लगातार सक्रियता के बाद फिजां में यह सवाल तैर रहा है। जानकारों की मानें तो इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता। बाघ बढ़ेंगे तो वे इलाके बदलने दूसरे जंगल में जाएंगे। फिर जहां, बाघ होंगे, वहां से गुलदार का भागना तय है। हालांकि, वे इसके लिए गहन अध्ययन की जरूरत पर बल देते हैं।
राज्य का शायद ही कोई हिस्सा ऐसा होगा, जहां गुलदारों के खौफ ने नींद न उड़ाई हो। ताजा मामला देहरादून के घनी आबादी वाले सहस्रधारा क्षेत्र का है, जहां दो दिन से गुलदार ने सांसें अटकाई हुई है। यह हाल तो शहर का है, पहाड़ के गांवों में तो स्थिति ज्यादा खराब है। वहां न खेत-खलिहान सुरक्षित हैं और न घर-आंगन। अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि वन्यजीवों के हमलों में 80 फीसद घटनाएं गुलदार की हैं।
सूरतेहाल सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर गुलदार ऐसे क्यों धमक रहे, जैसे वे पालतू जानवर हों। हालांकि, इसके पीछे जंगल में सिमटता भोजन, घटते वासस्थल जैसे कारण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन अब एक नया सवाल भी फिजां में है। वह ये कि कहीं बाघों की बढ़ी संख्या के कारण गुलदार का यह स्वभाव तो नहीं बदला है। बता दें कि बाघ संरक्षण की दिशा में राज्य लगातार कुलाचें भर रहा है।
2015 में हुई गणना में यहां बाघों की संख्या 340 आई थी, जो 2017 में बढ़कर 362 हो चुकी है। हालांकि, यह आंकड़े कार्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व के हैं। वास्तविक संख्या अधिक हो सकती है। जानकारों के मुताबिक बाघ बढ़ेंगे तो उनमें इलाकों के लिए संघर्ष भी होगा। इसमें या तो कमजोर मारा जाएगा या फिर वह इलाका बदल देगा।
इलाका बदलने को वह दूसरे जंगलों का रुख करेगा। दूसरी जगह बाघ की धमक होगी तो गुलदार को उसे छोड़ना होगा। हालांकि, वन्यजीव विशेषज्ञ डी.चंद कहते हैं कि गुलदारों की सक्रियता के कारणों को लेकर गहन अध्ययन की जरूरत है। यह भी संभव है कि इनकी संख्या में खासा इजाफा हुआ हो।