बेवजह की नुक्ताचीनी
जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की है तब से उनके राजनीतिक विरोधी उन पर बिना किसी तैयारी के या सोचे-समझे अभूतपूर्व निर्णय लेने का आरोप लगा रहे हैं। आलोचकों का मानना है कि विमुद्रीकरण से लाखों भारतीयों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है, छोटे उद्योग बर्बाद हो गए हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था को झटका लगा है, लेकिन यदि कोई आठ नवंबर से कुछ महीने पूर्व दिए गए प्रधानमंत्री मोदी के सार्वजनिक वक्तव्यों पर नजर दौड़ाए, 2004 से 2014 तक काले धन और काली संपत्ति में हुई वृद्धि तथा मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान घपले-घोटालों की जांच पड़ताल करे तो उसे इन आलोचनाओं में कोई दम नजर नहीं आएगा।
पहला प्रश्न यह है कि क्या प्रधानमंत्री ने ऐसा कदम नादानी में उठाया है जिससे कि कुछ लोग चिंतित हो गए हैं अथवा यह विमुद्रीकरण उनकी सोची-समझी पूर्व रणनीति का हिस्सा है। वैसे तो आठ नवंबर, 2016 से पहले कई ऐसे अवसर आए जब प्रधानमंत्री ने ई-वॉलेट या ई-बैंकिंग की बात की, लेकिन 22 मई, 2016 को ऑल इंडिया रेडियो पर अपने लोकप्रिय मन की बात कार्यक्रम में उन्होंने अपने इरादे एकदम साफ कर दिए थे। जिन लोगों ने उन्हें उस दिन सुना होगा उन्हें आठ नवंबर की घटना आश्चर्यजनक नहीं लगी होगी। जाहिर है, प्रधानमंत्री इस विकल्प पर कुछ समय पूर्व से ही विचार कर रहे थे। विमुद्रीकरण के अपने फैसले से पांच माह पूर्व मई में ही उन्होंने अपने रेडियो प्रोग्राम में लोगों को कैश से लेस-कैश की ओर बढ़ने को प्रेरित किया था। उस दौरान उन्होंने कहा था कि एक आधुनिक और पारदर्शी भारत का निर्माण करना है तो हमें अपनी कुछ पुरानी आदतों को बदलना होगा। सदियों पहले यहां वस्तु विनिमय प्रणाली मौजूद थी। उसके बाद धीरे-धीरे सिक्के और नोट चलन में आए, लेकिन अब दुनिया कैशलेस व्यवस्था की ओर बढ़ रही है। इलेक्ट्रॉनिक तकनीक से पैसे लेना और देना संभव है। हम इससे जरूरत की वस्तुएं खरीद सकते हैं और बिलों का भुगतान भी कर सकते हैं। इस तरह हमें अपने बटुए की चोरी होने की चिंता भी नहीं रहती है। शुरुआत में यह कुछ कठिन लग सकता है, लेकिन यदि हम इसका अभ्यास कर लें तो यह व्यवस्था हमें काफी आसान लगने लगेगी।
मोदी ने अपने श्रोताओं से कहा था कि भारत को लेसकैश अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने के लिए हाल के वर्षों में कई कदम उठाए गए हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री जनधन योजना के तहत देश के सभी परिवारों को बैंकिंग प्रणाली से जोड़ना हो या रूपे कार्ड जारी किया जाना हो या सभी योजनाओं को आधार के जरिये जोड़ा जाना हो। यह भी सच है कि आज देश के प्रत्येक व्यक्ति के पास मोबाइल फोन है। उन्होंने कहा कि रूपे कार्ड को डेबिट और क्रेडिट कार्ड, दोनों तरह से काम में लाया जा सकेगा। और आजकल तो प्वाइंट ऑफ सेल (पीओएस) नामक एक बहुत छोटा उपकरण आ गया है, जिसकी मदद से आप अपने आधार नंबर या रूपे कार्ड से किसी दूसरे व्यक्ति को पैसे भेज सकते हैं। दूसरा यत्न हमने बैंक ऑन मोबाइल के रूप में किया है, जिसका नाम यूनिवर्सल पेमेंट इंटरफेस (यूपीआइ) बैंकिंग है। इस प्रकार उन्होंने जनधन, आधार और मोबाइल को मिलाकर कहा कि जैम (जेएएम) के जरिये हम कैशलेस सोसायटी की ओर बढ़ सकते हैं।
दरअसल वह आने वाले दिनों के लिए अपने श्रोताओं को मानसिक रूप से तैयार कर रहे थे। उन्होंने कहा कि यदि हम इस व्यवस्था को सीखते और प्रयोग करते हैं तो हमें नोटों की जरूरत नहीं पड़ेगी, हमारा कारोबार बिना किसी रुकावट के फल-फूल सकेगा, रिश्वतखोरी रुकेगी और काले धन का प्रभाव कम होगा। लिहाजा मैं देशवासियों से अपील करता हूं कि हमें कम से कम शुरुआत करनी चाहिए। यदि एक बार हम शुरुआत कर देंगे तब आगे का रास्ता काफी आसान हो जाएगा। उन्होंने कहा कि बीस वर्ष पहले किसने सोचा होगा कि लोगों के पास मोबाइल फोन होंगे। फिर हम सभी ने उसका उपयोग सीखा और आज बिना मोबाइल फोन के जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकते हैं। यह कैशलेस सोसायटी का विचार भी देश के लिए कुछ ऐसा ही है, लेकिन जितनी जल्दी हम इसे अपनाएंगे, उतनी ही जल्द हालात हमारे अनुकूल हो जाएंगे। क्या कोई भी प्रधानमंत्री काले धन पर प्रहार करने, विमुद्रीकरण का फैसला लेने और समाज को कैशलेस अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने के अपने इरादे को इससे ज्यादा खुलकर बता सकता है?
दूसरी बात यह है कि विमुद्रीकरण को अनावश्यक बताकर प्रधानमंत्री पर कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं कि इससे उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को बेवजह संकट में डाल दिया है। इसका सबसे बेहतर जवाब जाने-माने लेखक और आर्थिक तथा राजनीतिक विश्लेषक एस. गुरुमूर्ति ने दिया है। उनके अनुसार मोदी कड़वी डोज देने के लिए इसलिए मजबूर हुए हैं, क्योंकि उनके पूर्ववर्ती डॉ. मनमोहन सिंह ने देश के आर्थिक प्रबंधन को दयनीय बना दिया था। यदि मोदी कठोर निर्णय नहीं लेते तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसकारी होता। आंकड़ों के आधार पर उन्होंने बताया कि कैसे मनमोहन सिंह भारत की अर्थव्यवस्था को संभालने में पूरी तरह विफल साबित हुए थे। हालांकि 2004 से लेकर 2010 तक जीडीपी की वृद्धि दर ऊंची रही, लेकिन इस दौरान नई नौकरियों का सृजन नहीं हुआ, क्योंकि यह कथित विकास ज्यादातर संपत्ति में मुद्रास्फीति के वजह से हुआ था। उस दौरान रियल एस्टेट और सोने की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हुई और विकास की झूठी धारणा पैदा हुई। परिणाम स्वरूप जीडीपी 8.4 प्रतिशत की दर से बढ़ी, लेकिन सिर्फ 2.7 लाख ही नई नौकरियां पैदा हो सकी थीं। इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में काले धन का प्रवाह बेतहाशा बढ़ा। विमुद्रीकरण क्यों अपरिहार्य था, इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि बड़े वर्ग के नोटों की हिस्सेदारी जहां 2004 में 34 प्रतिशत थी वहीं 2010 में यह बढ़कर 79 प्रतिशत हो गई। जबकि आठ नवंबर, 2016 को इसकी हिस्सेदारी 87 प्रतिशत थी। इस प्रकार 2004 से लेकर 2013 के दौरान बड़े वर्ग के नोटों की संख्या में औसत वृद्धि 51 से 63 प्रतिशत रही। रिजर्व बैंक के अनुसार एक हजार रुपये के दो तिहाई नोट और पांच सौ रुपये के एक तिहाई नोट (जो मिलकर छह लाख करोड़ होते हैं) जारी होने के बाद से कभी बैंक में नहीं आए। बैंक की निगरानी से दूर ये नोट सोने और जमीन की कीमतों को बढ़ा रहे थे। विकास की यह झूठी धारणा तब तक मौजूद रहती जब तक कि बैंकिंग जगत से बाहर के इन नोटों को पकड़ा नहीं जाता। बहरहाल अब एक बात साफ हो गई है कि क्यों तमाम दलों सहित काले धन के कुबेर आठ नवंबर की घोषणा से अनजान थे। दरअसल उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात कभी सुनी ही नहीं।