बड़े बदलाव का साल
2016 में भारत ने स्वयं को दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यस्था की सूची में शीर्ष पर बरकरार रखा और इसके कारण वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में भी सफल रहा। साथ ही मोदी ने विदेश नीति के मोर्चे पर सबसे सशक्त नेता के रूप में अपनी छवि कायम रखी और इस प्रकार विश्व राजनीति में उनकी धाक पहले की तरह ही बनी हुई है। हालांकि मोदी सरकार धीरे-धीरे भारतीय विदेश नीति के मूल में तब्दीली ला रही है। वेनेजुएला के बार-बार आग्रह करने के बावजूद 17वें गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में हिस्सेदारी नहीं कर मोदी ने बड़ा प्रतीकात्मक कदम उठाया। 1979 में चौधरी चरण सिंह के बाद सम्मेलन से दूर रहने वाले वह दूसरे प्रधानमंत्री हैं, जबकि भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सह-संस्थापक है। जाहिर है कि मोदी के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विरासत से दूर जाने का मतलब है कि नई दिल्ली विदेश नीति पर अपने परंपरागत दृष्टिकोण को छोड़ रही है। भारतीय नीति निर्माताओं का गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जुड़ाव विश्व राजनीति में भारतीय पहचान का एक प्रमुख घटक रहा है। यद्यपि भारत शीतयुद्ध के दौरान दो प्रमुख विश्व शक्तियों से मदद प्राप्त करता रहा था-जैसे कि 1962 में चीन के खिलाफ अमेरिका से और 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ सोवियत संघ से समर्थन मिला था, इसके बावजूद उसने कम से कम कागजों में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विचारों को सुरक्षित रखा है। अब हालात बदल रहे हैं और भारत विश्व पटल पर अपनी अलग भूमिका के लिए प्रयासरत है।
दरअसल हाल के वर्षों में भारत के सामने खासकर चीन के उत्थान के चलते नई तरह की चुनौतियां सामने आई हैं। इसे देखते हुए भारतीय नीति निर्माता समान सोच वाले पड़ोसियों और अन्य देशों का नेटवर्क खड़ा करने के लाभ-हानि की गणना कर रहे हैं। मोदी नेहरू से इतर भारतीय विदेश नीति की दिशा को धीरे-धीरे और निर्णायक रूप से बदल रहे हैं, पहले कुछ लोगों ने ही ऐसा करने की हिम्मत की है। हालांकि भारतीय बौद्धिक प्रतिष्ठान का एक हिस्सा अभी अमेरिका का विरोधी बना हुआ है, लेकिन मोदी सरकार ने अपने निर्णायक बहुमत के बल पर घरेलू विकास के एजेंडे के लिए जरूरी पूंजी और तकनीक हासिल करने के लिए अमेरिका के साथ नया सहयोग कायम किया है। अर्थात वह चीन की बढ़ती क्षेत्रीय ताकत और आक्रामकता से पैदा हुई चुनौतियों से आंखें मूंदे हुए नहीं हैं। इसके साथ ही वह क्षेत्र में अमेरिका के अन्य सहयोगी देशों जैसे जापान, आस्टे्रलिया और वियतनाम के साथ भी मजबूत संबंध बनाने में रुचि ले रहे हैं। शायद यही वजह है कि उन्होंने दक्षिण चीन सागर विवाद में वियतनाम और फिलीपींस का पक्ष लिया है।
उड़ी में सेना के मुख्यालय पर हुए पाकिस्तान समर्थित आतंकी हमले के बाद भारतीय सेना द्वारा नियंत्रण रेखा के उस पार पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आतंकी शिविरों पर सर्जिकल स्ट्राइक के बाद दक्षिण एशिया में एक और बड़ा बदलाव आया है। उस कदम को मोदी सरकार द्वारा पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के तौैर पर देखा गया। भारत ने राजनयिक तौर पर पाकिस्तान को घेरने का विकल्प भी खुला रखा है। एक भाषण के दौरान मोदी ने सीधे पाकिस्तान के लोगों से आतंकवाद के खिलाफ स्वर बुलंद करने की अपील की। क्षेत्रीय स्तर पर भी मोदी सरकार पाकिस्तान को दबाव में लाने के लिए इस्लामाबाद में दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन (दक्षेस) के सम्मेलन को स्थगित कराने में सफल रही। तब सहयोगी देशों ने भारत के रुख का समर्थन किया और सम्मेलन का बहिष्कार किया। यह एक ऐसा दुर्लभ अवसर था, जब क्षेत्रीय देश एक सुर में आतंकवाद को सरकारी नीति की तरह इस्तेमाल करने पर पाकिस्तान के खिलाफ बोल रहे थे।
पाकिस्तान उस वक्त भी दबाव में दिखा जब मोदी सरकार ने सैन्य शक्ति को एक साधन के रूप में इस्तेमाल करने का फैसला किया। इसकी नई दिल्ली लंबे समय से अनदेखी करती आ रही थी। सीमा पार भारत ने क्या किया, यह सवाल नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मुद्दे को पहली बार प्रचारित करने का फैसला किया। पाकिस्तान को लेकर मोदी सरकार की नीतियों का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है। दरअसल यह सरकार की एक बड़ी रणनीति का हिस्सा ही है। नई दिल्ली पाकिस्तान को उसके दुस्साहस की सजा देने के प्रति प्रतिबद्ध है और उसने यह सुनिश्चित किया है कि लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों के सहारे भारत का खून बहाने की कीमत पाकिस्तान को निश्चित ही चुकानी पड़े। इसी तरह बलूच लोगों की दुर्दशा की तरफ दुनिया का ध्यान आकर्षित करने का मोदी सरकार का फैसला भी महत्वपूर्ण रहा, जहां वे पाकिस्तान की पंजाबी वर्चस्व वाली सेना के अत्याचार का सामना कर रहे हैं। भारत ने पाकिस्तान को चेतावनी दी है कि यदि वह आतंक और्र ंहसा के जरिये कश्मीर में दखल देता है तो वह बलूचिस्तान में पाकिस्तान के अत्याचारों को उजागर कर देगा।
पाकिस्तान को अलग-थलग करने की मांग के साथ ही भारत अपने पड़ोसियों बांग्लादेश और अफगानिस्तान के साथ संबंधों को मजबूत बनाने में पूरे दमखम से जुटा हुआ है। इसमें काबुल के साथ सैन्य सहयोग स्थापित करना और ढाका के साथ सीमा विवाद को खत्म करना शामिल है, लेकिन चीन लगातार पाकिस्तान का समर्थन कर रहा है। पाकिस्तान के रणनीतिक रूप से अहम ग्वादर बंदरगाह पर चीन ने अपने नौ सैनिक पोत तैनात कर रखे हैं। बीजिंग ने इसे चीन-पाकिस्तान आर्थिक कोरिडोर के तौर पर विकसित किया है। इससे चीन की दिलचस्पी इस क्षेत्र में बढ़ेगी, जो भारत के लिए चिंता की बात होगी। आने वाले दिनों में पाकिस्तान और अमेरिका के बीच रिश्ते तंग होने के आसार हैं। अब अमेरिका ने दशकों पुरानी नीति को बदलते हुए भारत को तरजीह देनी शुरू कर दी है। इसका असर यह है कि दक्षिण एशिया में अब पुराने नियम लागू नहीं हो रहे हैं।