बड़ों के झगड़े में छोटों की बल्ले-बल्ले
जितेन्द्र शुक्ला
उप्र में हो रहे विधानसभा चुनाव इस बार अन्य चुनावों से बिल्कुल अलग दिख रहा है। अगर असंतोष की बात की जाये तो इससे कोई भी दल अछूता नहीं है चाहे भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय राजनैतिक दल हों या फिर समाजवादी पार्टी और सबसे अनुशासित मानी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी ही क्यों न हो। यह असंतोष कुछ और नहीं टिकटों के बंटवारे को लेकर हुआ। लेकिन इस असंतोष का लाभ उठाने में इन दलों की ताकत देखते हुए अपेक्षाकृत कमजोर दलों ने देर नहीं की। यानि जिनका टिकट कटा उन्हें लोकदल और राष्ट्रीय लोकदल ने अपना प्रत्याषी बना मैदान में उतार दिया। इतना ही नहीं भाजपा ने जिनका टिकट काटा उनको भाजपा के ही सहयोगी अपना दल ने अपना लिया। और जिन्हें कोई साथ लेने को तैयार नहीं हुआ उसने पीस पार्टी और निषाद राज पार्टी ने अपना लिया। बचे-खुचे या तो निर्दलीय मैदान में कूद गये या फिर और भी कम प्रसिद्ध दलों के निशान पर चुनावी मैदान में अड़ गए। अब बड़े दलों का तो जो भी हश्र होगा वह 11 मार्च को साफ हो जायेगा लेकिन इतना तय है कि बड़ों के झगड़े में छोटे दलों की बल्ले-बल्ले यानि जय होनी ही है।
बीते साल अगस्त के महीने से समाजवादी पार्टी में आपसी रार क्या छिड़ी, पार्टी के टूटने तक की नौबत आ गयी थी। हर दिन क्या हर घण्टे पार्टी में इतने उतार चढ़ाव देखने को मिले जैसे कि सेन्सेक्स में देखने को मिलते हैं। खैर, अंतत: पार्टी के मुखिया मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बन गये और मुलायम सिंह यादव संरक्षक। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे ज्यादा किरकिरी कभी पार्टी में नम्बर दो की हैसियत रखने वाले शिवपाल सिंह यादव की हुई तो अमर सिंह पार्टी से ही बाहर कर दिए गए। इसके बाद शिवपाल सिंह यादव को तो अखिलेश यादव ने पार्टी का टिकट व चुनाव चिन्ह दे दिया लेकिन उनके समर्थकों का पत्ता काट दिया। इनमें कई वर्तमान विधायक थे और क्षेत्र में उनकी ठीकठाक पकड़ भी थी। ऐसे में माना जा रहा था कि वे एक बार फिर विधानसभा की दहलीज लांघेंगे। लेकिन कैसे इसकी वैकल्पिक व्यवस्था लोकदल और राष्ट्रीय लोकदल जैसे दलों ने कर दी।
यह दोनों वही दल हैं जिनसे कभी सपा मुखिया रहे मुलायम सिंह यादव और उनके अनुज शिवपाल सिंह यादव गठबंधन की चर्चा कर रहे थे। इनमें लोकदल तो ऐसा दल था जिसे ऐसे विकल्प के रूप में साथ में लिया गया था कि यदि कहीं ‘साइकिल’ चुनाव चिन्ह चुनाव आयोग जब्त कर ले तो ‘खेत जोतते किसान’ को आगे कर चुनावी मैदान में जाया जा सके। लेकिन अखिलेश जीते और साइकिल भी बच गयी। उसके बाद तो उन्होंने एक-एक करके शिवपाल सिंह यादव और अमर सिंह के नजदीकियों पर वार करना शुरू कर दिया।
इस कार्रवाई में सपा में कभी बड़े नाम माने जाने वाले अम्बिका चौधरी, नारद राय सहित कई वर्तमान विधायक भी टिकट पाने की दौड़ में पिछड़ गए। हालांकि इन दोनों नेताओं ने बिना देर किए बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया लेकिन शेष बचे विधायकों ने या तो लोकदल को अपना अगला ठिकाना बनाया या फिर उन्होंने राष्ट्रीय लोकदल का दामन थामा। लोकदल के वर्तमान में मुखिया चौधरी सुनील सिंह हैं तो वहीं रालोद के मुखिया पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के सुपुत्र अजित सिंह हैं।
ताजा घटनाक्रम में जहां इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने जा रही लोकदल को नयी ऊर्जा दे दी है तो वहीं केवल पश्चिमी उप्र और जाटों की पार्टी ही मानी जाने वाली राष्ट्रीय लोकदल का समूचे उप्र में प्रभाव दिखने लगा। एक ओर रालोद जहां पहले चरण में भी दिखायी दे रही है तो वहीं वह सातवें और अन्तिम चरण तक अब उसकी पहुंच आसानी से देखी जा सकती है।
यहां तक कि राजधानी की सरोजनीनगर विधानसभा सीट से अखिलेश सरकार में वर्तमान में मंत्री शारदा प्रसाद शुक्ला भी रालोद के प्रत्याशी के रूप में ताल ठोक रहे हैं। यही हाल सूबे में पश्चिम से लेकर पूर्वांचल तक और रूहेलखण्ड से लेकर बुन्देलखण्ड के साथ ही मध्य उप्र में भी आसानी से देखा जा सकता है।
यानि सपा के झगड़े के चलते लोकदल और रालोद दोनों को ‘वेंटीलेटर’ से बाहर निकाल लिया है। रालोद को तो साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में मोदी की आंधी के सामने बसपा की तरह मुंह की खानी पड़ी थी। इस चुनाव में रालोद को भी एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी और बसपा भी जीत का परचम लहराने से वंचित रह गयी थी।
उधर, टिकट बंटवारे को लेकर यदि सूबे में वर्तमान में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में असंतोष है तो राज्य में अगली सरकार बनाने का दिवास्वप्न देख रही भारतीय जनता पार्टी में इसकी डिग्री कहीं अधिक है। भाजपा ने तो 12 घण्टे पहले दल की सदस्यता ग्रहण करने वाले को टिकट दे दिया। ऐसे में वह कार्यकर्ता जो पार्टी को समर्पित और जमीन पर वर्षों से अपना क्षेत्र सहेजने में लगा था, उसके लिए यह कोई विश्वासघात से कम नहीं था। इसके अलावा भाजपा ने अपने समर्पित कार्यकर्ता और ऐसे संभावित प्रत्याशी को जो बीते छह माह से अपने क्षेत्र में माहौल बनाने में लगा था उसे भी किनारे करने में देर नहीं की। जाहिर है कि ऐसे में असंतोष सिर चढ़कर बोलना ही था। भाजपा ने तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संसदीय सीट वाराणसी के एक विधानसभा क्षेत्र से लगातार सात बार के विधायक एवं सादगी की मिसाल कहे जाने वाले श्यामदेव राय चौधरी तक का टिकट काट दिया। पार्टी ने इस क्षेत्र से दूसरे जिले यानि देवरिया के एक आरएसएस कार्यकर्ता के संबंधी को टिकट देकर उपकृत किया। ऐसे में क्षेत्र से लेकर विधानसभा तक दादा के नाम से पुकारे जाने वाले श्याम देव राय चौधरी के टिकट कटने की सही दलील भाजपा का प्रदेश नेतृत्व तक नहीं दे सका। हालांकि कभी भी अपना चाल, चिन्तन और चरित्र नहीं बदलने वाले दादा ने गंभीर चुप्पी साध ली है। वाराणसी का यह एकमात्र उदाहरण भर है। ऐसी कई विधानसभा सीटें हैं समूचे उप्र में जहां भाजपा ने ‘अपनो’ का तिरस्कार कर ‘गैरो’ या फिर कहें ‘बागियों’ को प्रश्रय दिया है। साफ है कि इन सभी सीटों पर भाजपा को विपक्ष से नहीं बल्कि अपनों से दो-दो हाथ करना पड़ेगा और यह परिस्थिति चुनाव परिणाम पर सीधा असर डालने वाली है।
हालांकि भाजपा ने गठबंधन धर्म निभाते हुए अपने सहयोगी अपना दल को भी 403 में से कुछ सीटें दी हैं, जहां पर पार्टी ने अपने प्रत्याशी उतारे हैं लेकिन दिलचस्प तथ्य यह भी है कि कई सीटें पर जहां भाजपा कार्यकर्ता अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे वही सीट ही गठबंधन की भेंट चढ़ गयी। ऐसे में भाजपा से तैयारी कर रहे कुछ प्रत्याशियों ने उसके सहयोगी दल में अपना नया ठिकाना बनाया। वहीं यदि वहां दाल नहीं गली तो उन्होंने जातीय समीकरण में फिट बैठने वाले अन्य छोटे दलों के साथ अपनी बात बना ली और चुनावी मैदान में ताल ठोंक दी। कई बाहुबली नेताओं विजय मिश्रा और धनंजय सिंह जैसों ने तो पीस पार्टी, महान दल और निषाद (नेशनल इंडियन शोषित हमारा अपना दल) पार्टी के गठबंधन को तरजीह देते हुए उनके संयुक्त प्रत्याशी बन मैदान में उतर आये हैं।
भाजपा और सपा के तरह कमोवेश स्थिति कांग्रेस की भी ऐसी ही है। दरअसल कांग्रेस ‘27 साल यूपी बेहाल’ के नारे के साथ बड़े जोर-शोर से अपने दम पर यूपी विधानसभा चुनाव में ताल ठोंकने की तैयारी कर ली थी। पार्टी के आलाकमान के तेवर देख पार्टी के कई दावेदारों ने अपनी जमीन भी तैयार करनी शुरू कर दी थी लेकिन चुनाव नजदीक आते-आते कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हो गया। जिसके बाद कांग्रेस के हिस्से में विधानसभा की कुल 403 सीटों में से केवल 105 सीटें ही ताल ठोंकने को मिलीं। ऐसे में कई कांग्रेसियों के दिलों पर बुलडोजर चले जो विधानसभा का सफर तय करने को तैयार बैठे थे। लेकिन अब जबकि सपा से कांग्रेस का गठबंधन तय हो चुका है तब विधायक बनने की हसरत पाले कांग्रेसी नेता भी अन्य दलों की ओर या फिर निर्दलीय ही चुनावी मैदान में उतरने के लिए लंगोट कस चुके हैं। साफ है कि यदि बगावत की राह पर चल पड़े विभिन्न दलों के नेताओं एवं वर्तमान विधायकों को उनके क्षेत्र की जनता ने अपना ‘आर्शीवाद’ दिया तो फिर इन छोटे दलों की पौ-बारह होने में देर नहीं लगेगी। इतना ही नहीं यदि सूबे में त्रिशंकू विधानसभा बनी तो इन दलों और इनके निर्वाचित विधायकों की ‘पूछ’ बढ़ना स्वाभाविक है।
कौन है रालोद व अजित सिंह
देश के किसान नेताओं में शुमार किए जाने एवं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पुत्र चौधरी अजित सिंह अपने ही पिता द्वारा गठित लोकदल से अलग होकर राष्ट्रीय लोकदल का गठन किया और उसके मुखिया बने। विदेशों में पढ़ाई ही नहीं अमेरिका की कम्प्यूटर इंडस्ट्री में 17 साल काम करने के बाद भारत लौटे अजित सिंह के लिए राजनीति नयी थी लेकिन उनके खून में तो थी ही। लेकिन बाद में अजित सिंह भारतीय राजनीति के ऐसे पुरोधा बने जो लगभग हर सरकार में मंत्री रहे हैं। वे कपड़ों की तरह सियासी साझेदारी बदलते रहे हैं। 1989 के बाद वे बागपत से लगातार सांसद रहे हैं सिवाय 1999 के। उनकी दूसरी पराजय हुई 2014 में जब वे मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह से हार गए। बीजेपी के टिकट पर लड़े सत्यपाल भी अजित की तरह जाट हैं और बागपत के ही एक गांव के रहने वाले हैं। वजह रही मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाटों का बीजेपी के पक्ष में लामबंद हो जाना।
यह चौधरी अजित सिंह के लिए खासा अप्रत्याशित था क्योंकि 1960 के दशक से उनके पिता चरण सिंह और उनकी मृत्यु के बाद अजित जाटों के एकमात्र नेता रहे। पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी साहब की ही तूती बोलती थी। कम से कम उप्र की 150 सीटों पर उनका प्रभाव माना जाता था। वास्तव में अजित सिंह के पिता चरण सिंह ने जाटों के साथ मुसलमान, गुर्जर और राजपूतों का समर्थन जुटाकर ‘मजगर’ का चुनावी समीकरण बनाया था। लेकिन अजित सिंह ने इस समीकरण को बरकरार रखने का मजबूत प्रयास नहीं किया। यह बात दीगर है कि वे हर चुनाव में 4-5 लोकसभा और 24-25 विधानसभा सीटें जीत जाते थे। यही वजह थी कि गठबंधन की राजनीति के दौर मे उनकी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए यह काफी था। इसी के दम पर अजित सिंह हर सरकार में मंत्री बन जाते। चाहे वह 1989 में वीपी सिंह की सरकार हो या 1991 में नरसिंह राव सरकार. 1999 की वाजपेयी सरकार हो या फिर 2001 की मनमोहन सिंह सरकार। एक कटु सत्य यह भी है कि अजित सिंह जाटों के नेता तो रहे लेकिन उन्हें नाराज भी जमकर किया। उनके रिश्तों को लेकर इस इलाके में बहुत सी किंवदंतियां प्रचलित हैं। जैसे हर चुनाव में जाट अजित सिंह को हराने की कसमें खाते हैं, लेकिन वोट भी उन्हीं को देकर आते हैं।
कौन है लोकदल और सुनील सिंह
दरअसल लोकदल का गठन किसान नेता कहे जाने वाले एवं देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण ने किया था। पश्चिमी उप्र सहित देशभर में किसानों के बीच चौधरी साहब की बड़ी हैसियत थी। इसी के मद्देनजर उन्होंने लोकदल का नाम देकर राजनैतिक दल बनाया। उनके निधन के बाद उनके सुपुत्र ने लोकदल से किनारा करते हुए राष्ट्रीय लोकदल बना लिया। बाद में इस दल की कमान अलीगढ़ जिले की इगलास तहसील के एक गांव में जन्मे चौधरी सुनील ने साल 2012 में संभाली। लेकिन कुछ खास नहीं कर पाये। उत्तर प्रदेश में उसी साल हुए विधान सभा चुनावों मे 96 प्रत्याशियों को खड़ा लेकिन नतीजा सिफर रहा। वहीं 2014 मे हुए लोकसभा चुनाव में उप्र के अलावा बिहार, राजस्थान, हरियाणा व दिल्ली में भी ताल ठोंकी लेकिन कुछ खास नहीं कर पाये। हालांकि लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुनील सिंह को राजनीति विरासत में मिली है। इनके बाबा शिवदान सिंह 1952 से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य थे और पिता चौधरी राजेन्द्र सिंह उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री तथा विपक्ष में नेता विरोधी दल रहे। समाज सेवा के लिए सुनील सिंह चौधरी चरण सिंह के विचारों से प्रभावित हुए। चौधरी साहब का यह सिद्धांत कि ’’देश की खुशहाली का रास्ता खेत खलिहानों से होकर गुजरता है।’’ सुनील सिंह की राजनीति का ब्रह्म वाक्य बन गया है। बीटेक की परीक्षा पास करने के उपरान्त, छात्र जीवन से निकल कर राजनीति में सक्रिय भाग लेते हुए जमीन से जुड़ी राजनीति के निमित्त अलीगढ़ जनपद के इगलास जो उनके मूल निवास कजरोठ का ब्लाक है, से 1995 में ब्लाक प्रमुख चुने गये। 1999 के लोक सभा चुनाव में कुछ मतों से पीछे रहे। 2004 में अलीगढ़ के स्थानीय निकाय चुनाव क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधान परिषद के निजी सदस्य बने। उत्तर प्रदेश विधान परिषद सदस्य के रूप में सदन में अहम भूमिका निभायी।