सुनने में ये भले झूठ लग सकता है लेकिन फ़िनलैंड ने दुनिया की सबसे कामयाब शिक्षा पद्धति खोज ली है आप सोच सकते हैं कि फ़िनलैंड ने आख़िर ऐसी कौन सी तकनीक बना ली? दरअसल, फ़िनलैंड में बच्चों से कह दिया गया है कि वो स्कूल में कम से कम वक़्त बिताएं। स्कूल में उन्हें होमवर्क भी कम दिया जाएगा और एग्ज़ाम का तनाव भी ज्यादा नहीं होगा।
प्रोग्राम फ़ॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीआईएसए) के मुताबिक़ बाकी मुल्क़ों की तुलना में फ़िनलैंड के बच्चे विज्ञान और गणित में अच्छा कर रहे हैं।लेकिन साल 1960 के अंत तक माहौल ऐसा नहीं था। फ़िनलैंड में महज़ 10 फ़ीसदी बच्चे ही ऐसे थे जो दसवीं तक की भी पढ़ाई पूरी करते थे।
रचनात्मक सुधार
तो फ़िनलैंड के अनिवार्य एजुकेशन सिस्टम यानी पेरूस्कोलु के सफलता की कहानी शुरू होती है साल 1970 में। लेकिन इसमें चार-चांद लगे 1990 के दौरान। इस दौरान शिक्षा को लेकर समय-समय पर बहुत से सुधार होते रहे।”आज जब अंतरराष्ट्रीय स्तर के विशेषज्ञों के प्रतिनिधिमंडल हमारे देश, हमारी जादुई शिक्षा पद्धति को समझने के लिए आते हैं तो हम उन्हें ये ज़रूर कहते हैं कि यह उच्च स्तरीय शिक्षा प्रणाली सिर्फ़ शिक्षा नीतियों का परिणाम नहीं हैं बल्कि इनके पीछे कारगर समाजिक नीतियां भी रही हैं।”
फ़िनलैंड में स्कूल टीचर, ट्रेनर, रिसर्चर और नीति सलाहकार रह चुके पासी सलबर्ग के मुताबिक़,”फ़िनलैंड की यह उच्च स्तरीय न्यायसंगत शिक्षा पद्धति सिर्फ़ शिक्षा से जुड़ी नीतियों का परिणाम नहीं हैं। “फ़िनलैंड की समाजिक हित से जुड़ी नीतियों ने यहां के बच्चों और उनके परिवार वालों को ऐसी न्यायसंगत परिस्थितयां मुहैया कराई हैं जो सात साल की उम्र में उन्हें बेहतर शिक्षा का रास्ता चुनने का अवसर देती हैं।”
समानता और शिक्षा
सलबर्ग ने 2014 में आई अपनी किताब ‘फिनिश लेसन्स 2.0’ में लिखा है कि असमानता सिर्फ़ कुछ ख़रीद पाने-नहीं ख़रीद पाने की क्षमता को प्रभावित नहीं करती है बल्कि ये कई तरह से प्रभावित करती है- ऐसे में शिक्षा व्यवस्था तो एक ऐसे माहौल में ही तो बेहतर हो पाएगी जहां समानता हो? वो ओईसीडी के इनक़म डाटा और पीआईएसए के परिणामों की तुलना करते हुए कहते हैं -“आप इसे सबसे अहम कारण तो नहीं कह सकते लेकिन वित्तीय स्थिति और बच्चों की पढ़ाई में एक संबंध तो है ही जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता : जिस समाज में समानता अधिक होगी वहां बच्चे स्कूलों में भी अच्छा करते मिलेंगे।”
वो आगे कहते हैं “जो देश आंकड़ों के आधार पर अधिक समानता वाले होते हैं, वहां पढ़े-लिखे नागरिक ज़्यादा होते हैं, बहुत कम ही होगा कि वहां किसी ने स्कूल बीच में ही छोड़ दिया हो, वहां के लोगों में मोटापा कम होगा, बेहतर मानसिक स्वास्थ्य होगा और बहुत कम आशंका होगी कि वहां किशोरावस्था में कोई लड़की प्रेग्नेंट हो जाए। वहीं जिन देशों में अमीर और ग़रीब के बीच का अंतर बहुत अधिक होता है वहां परिस्थितियां इसके बिल्कुल उलट होती हैं। ये सारी असमानता पढ़ाने के तरीक़े और सीखने के तरीक़े को सीधे तौर पर प्रभावित करती है।”
अमीर-गरीब बच्चे साथ बैठकर करते हैं पढ़ाई
राजधानी हेलसिंकी के विक्की स्कूल में अमीर घरों के बच्चे और वर्किंग क्लास के बच्चे साथ-साथ बैठकर पढ़ाई करते हैं। उन्हें कोई फ़ीस नहीं देनी होती है और स्कूल से जुड़ी सारी सामग्रियां उन्हें मुफ़्त में मुहैया कराई जाती हैं। बड़े-बड़े भोजनालयों में, प्राइमरी से लेकर दसवीं तक के 940 बच्चों को यहां खाना परोसा जाता है। सभी बच्चों को मेडिकल, दांत से जुड़ी समस्याओं के लिए मदद दी जाती है। बच्चों के मानसिक विकास के लिए साइकोलॉजिस्ट की मदद भी दी जाती है। सलबर्ग कहते हैं कि “यह समझना बहुत आसान है कि वेतन में असमानता, बचपन में ग़रीबी और स्कूलों में मिलने वाली सुविधाओं की कमी स्कूल की नीतियों और उनकी बेहतरी को सीधे तौर पर प्रभावित करती है।”
स्कूल में सिर्फ चार घंटे की पढ़ाई
वो कहते हैं कि फ़िनलैंड के एजुकेशन सिस्टम की सफलता के पीछे एक बहुत बड़ा कारण यहां का आर्थिक ढांचा है। जो लालन-पालन और समाजिक न्याय को बढ़ावा देता है, ये ढांचा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपनाया गया। यह मॉडल मुफ़्त में शिक्षा मुहैया कराता है, स्वास्थ्य की सेवा देता है, ख़रीदे जाने योग्य घर देता है, पुरुषों को ज़्यादा छुट्टियां देता है ताकि वो भी अपने बच्चों पर ध्यान दे सकें। अध्यापक का महत्व
इस सिस्टम का प्रभाव क्लास रूम में भी दिखाई देता है। अगर फिनलैंड के एक आदर्श स्कूल की बात करें तो यहां टीचर एक दिन में चार घंटे का समय देते हैं।
उनके पास अपनी क्लास की योजना बनाने का पूरा वक़्त होता है, वो अपनी जानकारी को खंगाल सकते हैं और बच्चों पर ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान दे पाते हैं। शिक्षा के काम में शामिल लोगों को इसके लिए बेहतर वेतन दिया जाता है और उनके लिए काम का माहौल भी बहुत अच्छा है। अब तो परिस्थितियां ऐसी हैं कि यहां के बच्चों में टीचर बनना एक लोकप्रिय करियर बनता जा रहा है। फ़िनलैंड
फ़िनलैंड में स्कूल के घंटे दूसरे देशों की तुलना में कम हैं। मसलन, प्राइमरी स्कूल के बच्चे को यहां स्कूल में एक साल में सिर्फ़ 670 घंटे ही गुज़ारने होते हैं। जबकि कोस्टारिका में इसका दोगुना और अमरीका में तो हर साल हज़ार घंटे।
चीन में बच्चों को मिलते हैं सबसे ज्यादा होमवर्क
विक्की स्कूल में पढ़ाने वाली एक अध्यापिका कहती हैं कि ये बहुत ज़रूरी है कि बच्चों के पास बच्चा बने रहने का वक़्त हो। “सबसे ज़रूरी चीज़ गुणवत्ता है ना की घंटे।” बच्चों को होमवर्क भी कम दिया जाता है। ओईसीडी के मुताबिक़, फ़िनलैंड में 15 साल के बच्चे सप्ताहभर में औसतन सिर्फ़ 2.8 घंटे होमवर्क करने में लगाते हैं जबकि दक्षिण कोरिया में औसतन 2.9 घंटे। जिन देशों में ओईसीडी शिक्षा प्रणाली है वहां बच्चे औसतन पांच घंटे हर हफ़्ते होमवर्क करने में लगाते हैं जबकि चीन में सबसे ज़्यादा लगभग 14 घंटे।
एक अन्य टीचर मेरी कहती हैं कि बच्चों को क्लासरूम में वो सब सिखाया जाता है जो उन्हें जानने की ज़रूरत है। उनके पास अपने दोस्तों के साथ घुलने-मिलने का वक़्त होना चाहिए, जो काम उन्हें पसंद है उसे करने के लिए उनके पास वक़्त होना चाहिए क्योंकि ये सबकुछ बहुत ज़रूरी है।
आरामदायक माहौल
विक्की स्कूल की बात करें तो यहां माहौल बहुत ही शांत और सहज है। यहां किसी भी तरह की स्कूल यूनिफॉर्म नहीं है और बच्चे मोज़े पहनकर ही इधर-उधर घूमते रहते हैं।फिनलैंड में बच्चों को परीक्षाओं की चिंता करने की भी ज़रूरत नहीं है। पढ़ाई के शुरुआती पांच सालों में तो उन्हें इसकी चिंता करने की भी ज़रूरत नहीं है और बाद के सालों में उन्हें उनके क्लास के परफॉर्मेंस के आधार पर आंका जाता है। इस सिस्टम का मूलभूत आधार ही यही है कि अगर बच्चे को पर्याप्त समर्थन और मौक़ा मिले तो हर बच्चे में सीखने की क्षमता होती है।