नई दिल्ली: केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से राफेल सौदे की जांच की मांग ठुकराने वाले फैसले में सुधार की गुहार लगाई है। अर्जी दाखिल कर राफेल की कीमतों को सीएजी से साझा करने के संदर्भ में ‘है’ और ‘था’ के व्याकरण को ठीक करने की गुजारिश की है। अब सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में सुधार कर सकता है। यदि हां तो किस हद तक और उसकी प्रक्रिया क्या होगी। पूर्व उदाहरणों और तय कानूनी प्रक्रिया पर निगाह डालें तो सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले में सुधार करने का अधिकार है और कोर्ट पहले भी फैसलों में सुधार कर चुका है। कोर्ट ने गत 14 दिसंबर को राफेल सौदे पर सवाल उठाने वाली याचिकाएं खारिज कर दीं थी।
उस फैसले के पैराग्राफ 25 में सरकार द्वारा विमानों की कीमत का खुलासा न किये जाने की बात दर्ज करते हुए कीमतों का ब्योरा सीएजी के साथ साझा किये जाने की बात कही गई है। साथ ही यह भी कहा गया है कि सीएजी की रिपोर्ट को लोक लेखा समिति (पीएसी) ने जांचा परखा और रिपोर्ट का सीमित भाग संसद मे रखा गया जो सार्वजनिक है। फैसले के इस अंश पर विवाद पैदा हो गया। विपक्ष का आरोप है कि सरकार ने कोर्ट में गलत तथ्य पेश किये, क्योंकि राफेल पर अभी तक न तो सीएजी की रिपोर्ट आयी है और न ही पीएसी की। विपक्ष के हमले से सरकार हरकत में आयी और दूसरे ही दिन अर्जी दे फैसले के उस अंश में सुधार की मांग की। सरकार का कहना है कि राफेल की कीमतों के बारे मे कोर्ट के समक्ष सरकार की ओर से सीलबंद कवर में दिए गए नोट के ब्योरे को समझने में कोर्ट से भूल हुई है जिससे वाक्यों में वर्तमान काल और भूतकाल का अंतर आ गया है और मतलब बदल गया है।
कानून देखें तो संविधान के अनुच्छेद 137 में सुप्रीम कोर्ट अपने किसी भी आदेश या फैसले की समीक्षा यानी रिव्यू कर सकता है। इसके लिए जरूरी है कि आदेश में स्पष्ट तौर पर कानूनी गलती नजर आ रही हो। रिव्यू याचिका में कोर्ट के फैसले को इसी आधार पर चुनौती दी जाती है। सुप्रीम कोर्ट के वकील ज्ञानंत सिंह कहते हैं कि राफेल के फैसले मे भी स्पष्ट तौर पर कानूनी गलती दिख रही है इसलिए यह मामला रिव्यू का बनता था। सरकार के कानूनी विशेषज्ञों का तत्काल अर्जी दाखिल कर कोर्ट से आदेश में सुधार करने का अनुरोध किये जाने का निर्णय बहुत समझदारी पूर्ण है। इसका सबसे बड़ा असर यह हुआ कि इसे आधार बनाकर विपक्षी कोर्ट में रिव्यू दाखिल कर फैसले को चुनौती नहीं दे सकते क्योंकि अगर रिव्यू दाखिल होती तो पूरा फैसला समीक्षा के दायरे में होता, लेकिन अब सुधार अर्जी में निश्चित वाक्यों में सुधार की मांग की गई है और कोर्ट को अपने फैसले में सुधार करने का कानूनन हक है। बहुत बार कोर्ट अपने फैसले में सुधार करता है। सिविल प्रोसीजर कोड (सीपीसी) की धारा 152 में भी कोर्ट स्वयं से या किसी पक्षकार की अर्जी पर किसी भी समय अपने आदेश में टाइपिंग या अंकगणित की गल्तियों या धोखे से रह गई चूक सुधार सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने आस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टैंस के हत्यारे दारा सिंह की फांसी को उम्रकैद में बदलने के हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए धर्म परिवर्तन को लेकर कुछ टिप्पणियां की थीं। वह फैसला 21 जनवरी 2011 को आया था और पांच दिन बाद 25 जनवरी को कोर्ट ने फैसले में संशोधन करते हुए स्पष्टीकरण जारी किया था और पूरा संदर्भ हटा कर वाक्य बदले थे। 2009 में एक कानवेंट स्कूल में दाढ़ी रखने के कारण मुस्लिम छात्र को एडमीशन न मिलने के मामले में छात्र की याचिका खारिज करते हुए पीठ के एक न्यायाधीश मार्कन्डेय काटजू ने दाढ़ी को लेकर तालिबानी करण की टिप्पणी की थी। जिसके मीडिया में आने पर काफी प्रतिक्रिया हुई थी। बाद में छात्र की रिव्यू याचिका पर कोर्ट ने मामला निरस्त करने का आदेश वापस लिया था। छात्र के वकील आफताब अली खान कहते हैं कि रिव्यू के आदेश में कोर्ट ने टिप्पणी के बारे में कहा था कि उनका इरादा किसी को आहत करने का नहीं था।