राष्ट्रीय अस्मिता का सामूहिक सत्य है ‘भारत बोध’
बोध आसान नहीं। शोध आसान है। शोध के लिए प्रमाण, अनुमान, पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा सिद्ध कथन और प्रयोग पर्याप्त हैं। बोध के लिए अनुभूति चाहिए। प्रत्यक्ष रूप प्रमाण हैं। लेकिन रूप अनुभूति की अन्र्तयात्रा असीम है। यह अरूप तक ले जाती है। अनुभूति विरल सौभाग्य हैं। प्रयोग प्रमाण सरल हैं। राष्ट्रभक्ति बोध से पैदा होती है। निस्संदेह शोध के प्रमाण सहायता करते हैं लेकिन वास्तविक बोध के लिए अपने भाव जगत की संवेदनशीलता अनिवार्य है।
राष्ट्र अपनी भौगोलिक और राजनैतिक सीमा संप्रभुता में प्रत्यक्ष वस्तुगत है। भूगोल, दैशिक सीमा और जन मिलकर राष्ट्र-राज्य बनते हैं लेकिन राष्ट्र का जन्म और विकास संस्कृति से होता है। संस्कृति निर्माण के अनेक तत्व हैं। दर्शन विज्ञान के साथ भाव अनुभूति भी संस्कृति का मुख्य घटक है। यहां भाव की वरीयता है। संस्कृति इतिहास का भाग है। इतिहास का आकार बड़ा होता है। लिखने बोलने में प्रायः शासकों की जय पराजय होती है। शासन व्यवस्था के विवरण भी होते हैं लेकिन इसी इतिहास में करणीय और अकरणीय कार्यों की सूची भी होती है। राष्ट्र जीवन के ध्येय भी होते हैं। राष्ट्रजीवन के ध्येय, प्रीति और रीति के विवरण वास्तविक इतिहास बोध से ही समझ में आते हैं। भारतीय इतिहास बोध में भारत बोध सर्वोच्च सांस्कृतिक अनुभूति है। जनगण का सामूहिक मन भारत का मन है।
जन गण मन में जन और गण समूहवाचक मनुष्य हैं। जनगण के साथ मन कहने से ध्येय संकल्प की भी सामूहिकता बनती है। भारत की जीवन रचना में लोकमंगल को महत्व दिया गया है। यह हमारे राष्ट्रजीवन का ध्येयभूत आधार है। भूमि और जन गण राष्ट्र के सामान्य घटक हैं। संपूर्ण जनगण का एक मन हमारा सामूहिक बोध है और जनगण मन का सामूहिक बोध भारत बोध। भारत बोध में समूची प्रत्यक्ष भौतिक संपदा ज्ञानदर्शन भी सम्मिलित है। हम भारत के लोग इसके न्यासी हैं। इसे भारत की संपदा जानकर हम इसका उपभोग करते हैं। महाभारत के भीष्मपर्व वाले अंश गीता में श्रीकृष्ण परम तत्व का बोध कराते हैं। वे मनुष्य के भीतर और बाहर की संपूर्ण महिमा को स्वयं का नाम “मैं” देते हैं, “अर्जुन! मैं सभी रूद्रों में शिव हूं। मैं संपत्ति का स्वामी कुबेर हूं। वसु देवों में मैं अग्नि हूं। पर्वतों में मैं मेरू हूं। सेनानायकों में मैं कार्तिकेय हूं। जलाशयों में मैं समुद्र हूं। मैं धनुर्धरी श्रीराम हूं। वृक्षों में पीपल हूं। आदि।” श्रीकृष्ण का स्वयं में ब्रह्माण्ड भाव विचारणीय है। यहां श्रीकृष्ण का परमसत्ता बोध प्रकट हुआ है। क्या हम इसी तरह भारत बोध को भी शब्द दे सकते हैं? एक विनम्र प्रयास करने में कोई कठिनाई नहीं।
मैं भारत हूँ। हिमालय मैं हूं। हिन्द महासागर भी मैं ही हूं। मैं वैदिक काल का ऋत नियम हूं। मैं भारत हूं। मैं उत्तर वैदिक काल का धर्म हूं। मैं मनु था, अब आसेतु हिमाचल विस्तृत मनुष्य हूं। मैं वैदिक काल में अथर्वा, विश्वामित्र, वशिष्ठ व परमेष्टिन कण्व था। मैं भारत हूं। गंगा यमुना सतलुज सरस्वती मैं हूं। मैं युधिष्ठिर से प्रश्न पूछने वाला यक्ष हूं। मैं ही उत्तरदाता युधिष्ठिर हूं। मैं ही प्रश्न हूं और मैं ही उत्तर भी हूं। मैं ही विवेकानंद हुआ। दयानंद हुआ। गांधी, डाॅ. हेडगेवार व डाॅ. अम्बेडकर हुआ। मैं परस्पर विरोधी दृश्यों के रूपों में होकर भी एक हूं। मैंने ‘भारत के लोग’ होकर संविधान रचा। मैं संविधान का रचनाकार, पालनकर्ता हूं। मैं संविधान भी हूं। मैं राष्ट्र हूं। राज्य हूं। विधायिका हूं। कार्यपालिका हूं। न्यायपालिका हूं। वादी प्रतिवादी, न्याय और निर्णय भी मैं हूं। मैं इतिहास हूं। भूगोल हूं। राष्ट्र जीवन की शक्ति हूं। भूतकाल में जो हो चुका है, वह सब मैं हूं। वर्तमान भी मैं हूं। जो भविष्य में होगा वह भी मैं ही हूं। मैं वर्तमान भारत हूं, भविष्य का भारत भी मैं हूं।
समग्र भारत बोध की यह अनुभूति प्रियतम है। मैं इसे विषर्य प्रवर्तन के लिए खण्डित करता हूं। मैं उत्तर भारतीय हूं, दक्षिणी राज्यों का हूं। एक जिले का हूं। एक वार्ड या गांव का हूं। एक जाति का हूं। एक परिवार का हूं। खण्ड, खण्ड टूटते हुए मैं एक असहाय व्यक्ति हूं। यहां टूटते-टूटते भी एक बचता है लेकिन विभाजन की अंकगणित दुखी करता है। समग्र भारत बोध जोड़ते जोड़ते एक ही रहता है। टूटते हुए एक निराश व्यक्ति बचता है और जोड़ते हुए एक महान परंपरा वाला भारत। भारत बोध। मानव इतिहास के प्राचीन काल में छोटे समूह बने। समूहों में प्रीति हुई। आवश्यक वस्तुओं का विनिमय हुआ। छोटे समूह गण बने। गणों के देवता गण ईश या गणेश कहलाए। गणों के मुखिया गणपति या गण प्रमुख हुए। अपने गणेश जी देवता हैं और गणपति भी। गाइए गणपति जगवंदन। वृहस्पति को “गणांना त्वां गणपतिं” कहा गया है। गण सामूहिक अभिव्यक्ति है। ऋग्वेद में मरूद्रगण है। ऋषि जिज्ञासा है कि इनमें वरिष्ठ कौन है? संकेत है कि गणों में समता थी। गणों को रूद्र पुत्र बताया गया है। महाकाव्य काल में शिव भी गणों के साथ नाचते हैं।
वैदिक इतिहास में जन से बड़े समूह हैं गण। ऋग्वेद में ‘पांच जन’ की चर्चा है। कुछेक विद्वानों ने 5 जनों (समूहों) का अर्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्ध व निषाद किया है। डाॅ. सत्यकेतु ने प्राचीन इतिहास का वैदिक युग (पृष्ठ 189) में लिखा है कि “ऋग्वेद के समय आर्य चार वर्णो में विभाजित नहीं थे। ये ‘पंचजन’ अनु, द्रह्यु, यदु, तुर्वस व पुरू थे।” डाॅ. सत्यकेतु का विवेचन सही है। ऋग्वेद (1.108.8) में इन्द्र से प्रार्थना है कि यदि आप यदु, तुर्वस, द्रह्यु अनु या पुरू में विराजमान हों तो भी हमारे उत्सव में आएं।” जन और भी थे लेकिन ‘पांचजन्य’ की चर्चा ज्यादा है। सरस्वती की कृपा भी ‘पंचजाता वर्द्धयंती’ बताई गई है। अदिति एक देवता हैं। ऋग्वेद के अनुसार “अदिति धरती हैं, आकाश हैं। हमारे पिता माता हैं। हमारे पुत्र पुत्री है और पांचजन भी – अदिति पंचजनाः।” ऋग्वेद में मित्र देवता को पांचो जन एक साथ मिलकर आहुति देते हैं। इन्द्र की शक्ति पंचजनेषु – 5 जनों में फैली हुई है। वैदिक काल में जन शब्द का प्रयोग एक व्यक्ति के लिए भी हुआ है लेकिन ज्यादातर प्रयोग समूहों के लिए ही हुआ है। समूह के लिए जन का प्रयोग ऋषियों कवियों ने किया है। जन अपना मत देते हैं। एक शक्तिशाली घोड़ा है द्रघ्रिका। सामान्यजन उसकी तेजी के प्रशंसक हैं – जनाः पनयन्ति।
जन खूबसूरत सम्बोधन है। महाभारत के यक्ष प्रश्नों में युधिष्ठिर ने ‘महाजन’ शब्द का प्रयोग किया है – महाजनो येन गता स पंथाः। ‘जन’ बहुत लोकप्रिय सम्बोधन है। ऋग्वेद के दूसरे मण्डल में ऋषि ने 14 बार ‘जन’ को सम्बोधित किया है। हरेक मंत्र के अंत में ‘स जनास इन्द्र – हे जनो यह वही इन्द्र’ है। जन नाम की इकाई का विकास धीरे-धीरे हुआ है। गणों से मिलकर पहले गण संघ बने। धीरे धीरे व्यापक होकर ‘जन’ बने। एक सुनिश्यित भूक्षेत्र के निवासी जन ‘जनपद’ कहे गए। भारत के राष्ट्रगान में जन और गण साथ साथ हैं। इन सबकी सामूहिक संकल्प शक्ति का नाम ‘जन गण मन’ है। भारत वस्तुतः भा और रत। भा प्रकाशवाची है, रत का अर्थ संलग्नता। भारत बोध में यहां के सभी पूर्वज, उनकी आत्मानुभूति के साथ नदी, पर्वत, वनस्पति तीर्थ सम्मिलित हैं। आधुनिकता प्राचीनता का प्रवाह है। दर्शन ज्ञान-प्रज्ञान की दिशा उर्ध्वामुखी है। अग्नि की तरह। ऋग्वेद में यज्ञ अग्नि को भी भारत कहा गया। भारत बोध में सभी विविधिताएं हैं लेकिन सारी विविधताएं भारत नाम की चेतना में एकात्म हैं। भारत बोध राष्ट्रीय अस्मिता का सामूहिक सत्य है। इसलिए भारत बोध प्रत्येक भारतीय की नियति है।
हृदयनारायण दीक्षित (रविवार पर विशेष)
क्या कर्मफल की इच्छा दोषपूर्ण अभिलाषा है, अनासक्त कर्म ही क्यों श्रेष्ठ है?