राहुल गांधी के अमेरिका दौरे की INSIDE STORY
राहुल गांधी का अमेरिका जाना, वहां संवाद करना, टीम राहुल की भविष्य की रणनीति का हिस्सा है. राहुल के अमेरिका में दिए बयान और सवालों के जवाब इशारा कर रहे हैं कि, उनकी राजनीति भविष्य में किस दिशा में जाने वाली है. राहुल ने अपने संवाद में पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी हो या फिर प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी दोनों की ही तरफ संकेत दे दिया कि, वह तैयार हैं. यह सब कुछ यूं ही नहीं हुआ, इसके पीछे मोदी विरोध की राजनीति, नीतीश का अलग होना और भविष्य के लिहाज से राहुल गांधी का तैयार होना है.
अक्टूबर में कांग्रेस की कमान संभालेंगे राहुल!
राहुल ने यह संवाद तब किया जब यह तय है कि, कांग्रेस पार्टी के संगठन चुनावों के बाद वह सोनिया गांधी की जगह ले लेंगे. माना जा रहा है कि, अक्टूबर में कांग्रेस की कमान आधिकारिक तौर पर राहुल के हाथों में होगी. इससे पहले राहुल अपनी छवि दुरुस्त करना चाहते हैं. राहुल नेहरु गांधी परिवार की विरासत को तो संभालना चाहते हैं, लेकिन बोझा नहीं ढोना चाहते. यही वजह रही कि, राहुल अपने पिता राजीव गांधी के वक्त हुए सिख दंगों पर अपनी राय देते हैं, खुद को पीड़ितों के साथ बताते हैं और उस घटना को गलत करार देते हैं.
वहीं, आगे बढ़ते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के कार्यकाल पर भी सवाल खड़ा करते हैं. जब वह कहते हैं कि, 2012 के बाद कांग्रेस अहंकारी हो गई तो खुद को अलग करते हैं. आखिर सभी जानते हैं कि, 2012 के बाद ही यूपीए सरकार बदनाम हुई भ्रष्टाचार के तमाम आरोप उस पर लगे जिसके चलते 2014 में पार्टी 44 पर आ गई.
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पीएम की उम्मीदवारी से पहले विपक्ष का निर्विवाद नेता बनने की कवायद-
दरअसल, राहुल के रणनीतिकारों की निगाह सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नहीं है. बल्कि पीएम पद की उम्मीदवारी से पहले राहुल को सोनिया के बजाए विपक्ष के नेता के तौर पर स्थापित करने की है. इसीलिए राहुल ने प्रधानमंत्री पद की अपनी उम्मीदवारी के सीधे संकेत भी दे दिए. इसके लिए भी राहुल के रणनीतिकारों ने पूरी तैयारी कर रखी है. वह जानते हैं कि, कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और पार्टी के नेता होने के साथ ही उनको विपक्ष के नेता के तौर पर बाकी विपक्षी दलों में स्वीकार्य होना होगा.
नीतीश के रहते असमंजस में थे राहुल, अब खुलकर आए मैदान में-
यह बात किसी से छुपी नहीं है कि, नीतीश के रहते राहुल लगातार असमंजस में थे. राहुल के करीबियों की मानें तो राहुल, नीतीश के पीएम के उम्मीदवार बनने के नाम पर खुद को पीछे रखने तक को तैयार थे, लेकिन नीतीश का अलग होना, बाकी क्षेत्रीय दलों के मुखियाओं का बदलना और बदले वक्त में राहुल को नई रणनीति के साथ सामने आने पर मजबूर कर गया.
बदले हालात में राहुल को विपक्ष की मुख्य आवाज बनाने की कोशिश के पीछे की कहानी-
आखिर टीम राहुल मानती है कि, सियासी हालात देशभर में बदले हैं. अब नीतीश मोदी के साथ है तो तमाम राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों की कमान अब नई पीढ़ी पर है, जिससे राहुल लगातार संपर्क बना रहे हैं और वह पीढ़ी राहुल को नेता मानने में परहेज नहीं करने वाली. राहुल के करीबी राज्यवार इसकी चर्चा भी करते हैं.
राज्यवार कांग्रेस, राहुल और क्षेत्रीय नेताओं की केमेस्ट्री-
तमिलनाडु
इस राज्य में डीएमके के नेता करुणानिधि की उम्र और सेहत के चलते बागडोर अब उनके बेटे स्टैलिन के हाथों में है. सूत्रों की मानें तो इस स्टालिन और राहुल लगातार आपस में कई मौकों पर मिल भी चुके हैं और भविष्य की राजनीति की चर्चा भी कर चुके हैं. बंटवारा सीधा है- तमिलनाडु में कांग्रेस छोटा भाई तो दिल्ली में डीएमके छोटा भाई.
बिहार
नीतीश के साथ छोड़ने के बाद अब कांग्रेस और लालू के बीच गठबंधन स्वाभाविक है और दोनों की मजबूरी है. राहुल के ऑर्डिनेंस फाड़ने वाले कदम से लालू चुनावी लड़ाई से बाहर हो गए. अब लालू भी अपने बेटों के लिए राजनीति कर रहे हैं. वहीं राहुल को बेटों से परहेज नहीं है. राहुल के चलते लालू चुनाव लड़ नहीं सकते. ऐसे में मोदी विरोध के नाम पर आरजेडी राहुल के पीछे खड़ी हो जाएगी तो वहीं बिहार में कांग्रेस आरजेडी के पीछे चल ही रही है.
यह महज संयोग नहीं है कि, राहुल के संवाद के ठीक 1 दिन पहले आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने ट्वीट किया- देश की सरकार शांतिपूर्ण तरीके से सिर्फ कांग्रेस ही चला सकती है और लोग ये एहसास करने लगे हैं. साथ ही शरद यादव ने राहुल से मुलाकात करने के बाद ही मोदी और नीतीश के विरोध का बीड़ा उठाया था. इसलिए शरद यादव को भी राहुल के साथ आने में दिक्कत नहीं है.
कमोबेश यहां भी हालात कुछ वैसे ही हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन आप पार्टी की कमान अपने बेटे हेमंत सोरेन को सौंप चुके हैं और हेमंत को भी केंद्र की राजनीति में राहुल की सरपरस्ती से कोई एतराज नहीं. कुछ ऐसा ही झारखंड विकास मोर्चा के मुखिया बाबूलाल मरांडी के भी साथ है, वक्त आने पर वह विपक्ष के गठबंधन का हिस्सा बने तो राहुल के पीछे खड़े होने में उनको कोई एतराज नहीं.
आंध्र प्रदेश
बंटवारे के बाद राज्य में कांग्रेस हाशिए पर पड़ी है. लगातार कांग्रेस के रणनीतिकार कोशिश कर रहे हैं कि, कभी कांग्रेस के रहे जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस में लौट आएं या कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लें. कांग्रेस को उम्मीद है कि अगर बात बनी तो राज्य में जगन और दिल्ली में राहुल की बात पर दोनों एक साथ हो जाएंगे.
बंगाल
सीपीएम नेता सीताराम येचुरी और राहुल गांधी हाल के दिनों में एक दूसरे के काफी करीब आए हैं. मोदी विरोध की सूरत में येचुरी को राहुल के साथ खड़ा होने में कोई परेशानी नहीं है. वहीं, कांग्रेसी रणनीतिकार कहते हैं नोटबंदी के वक्त भी राहुल और कांग्रेस की बुलाई प्रेस कॉन्फ्रेंस में ममता बनर्जी ने आना स्वीकार किया था. इसीलिए भविष्य में भी इसमें दिक्कत नहीं होगी. हालांकि, कांग्रेस के सामने राज्य में बड़ी दिक्कत है की, एक दूसरे के विरोधी माकपा और तृणमूल कांग्रेस को एक साथ मैनेज करना.
उत्तर प्रदेश
यहां समाजवादी पार्टी अब मुलायम की नहीं अखिलेश की हो चुकी है. साथ ही अखिलेश राहुल की दोस्ती और साझा सियासत किसी से छिपी नहीं है. कांग्रेसी रणनीतिकारों का कहना है कि, वर्तमान राजनीतिक हालात में अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए सीटों का समझौता और भविष्य के लिए सही प्रस्ताव मिलने पर गाहे-बगाहे मायावती भी इस पाले में आ ही जाएंगी.
महाराष्ट्र
हाल के दिनों में एनसीपी के एनडीए में शामिल होने की घटनाओं ने कांग्रेस को बेचैन जरूर किया है. लेकिन रणनीतिकार मानते हैं कि, अगर मोदी विरोध और सेक्युलरिज़्म की राजनीति में शरद पवार की एनसीपी ने विपक्ष का साथ देना पसंद किया तो शरद पवार की सेहत और उम्र के चलते राष्ट्रीय राजनीति में उनकी बेटी सुप्रिया सुले और राज्य में उनके भतीजे अजीत पवार उत्तराधिकारी होंगे. ऐसे में सुप्रिया को राहुल की सरपरस्ती से एतराज नहीं होगा और जरुरत पड़ने पर शरद पवार कभी भी सोनिया गांधी से चर्चा कर सकते हैं.
कुल मिलाकर अब टीम राहुल तय कर चुकी है कि, मोदी से टकराना होगा तो पहले कांग्रेस की कमान संभालनी होगी, फिर विपक्षी दलों को साथ लाकर नेतृत्व करना होगा और 2019 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनना होगा. इसी दिशा में कदम बढ़ाते हुए राहुल ने पार्टी अध्यक्ष बनने की बात कह दी तो 2019 के लिहाज से प्रधानमंत्री की कुर्सी का उम्मीदवार बनने का भी एलान कर दिया. इन दोनों के बीच का सफर टीम राहुल आहिस्ता-आहिस्ता पूरा करना चाहती है. वो सफर है, सोनिया गांधी की जगह खुद राहुल का विपक्ष का स्वीकार्य नेता बनना.
रणनीति को ज़मीन पर उतारना राहुल की चुनौती-
बात सीधी है कि राहुल कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बन जाएंगे इसमें कोई चुनौती नहीं है. कांग्रेस पार्टी की ओर से 2019 के लिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो जाएंगे, इसमें भी चुनौती नहीं है. दरअसल असली चुनौती तो विपक्ष का नेता बनने की है,जिसको सभी विपक्षी दल मान लें. क्योंकि टीम राहुल भी जानती है कि, आज के दौर में मोदी और बीजेपी से टकराने के लिए कांग्रेस अकेले काफी नहीं है, विपक्ष को एकजुट होना होगा. इसीलिए अब तक असमंजस में दिख रहे राहुल ने खुलकर भविष्य सियासत का ऐलान कर दिया है. राहुल और उनकी टीम को याद रखना होगा कि, रणनीति बनाना आसान है, उसको ज़मीन पर उतारना मुश्किल. साथ ही विपक्ष के नेताओं का साथ भले राहुल जुटा लें, लेकिन असली चुनौती तो जनता का साथ पाने की होगी.