ज्ञान भंडार

लगती थी यहां नक्सलियों की जन अदालत, अब चलती है बहू की पाठशाला

download-3किसी ने सच ही कहा है कि ‘‘कौन कहता है आसमान में सुराग नहीं जरा तबीयत से एक पत्थर से उछालो यारो’’। ये पंक्तियां बिहार के रोहतास के डुमरखोह गांव की बहू प्रभा चेरो के प्रयासों को चरितार्थ कर रही हैं। प्रभा कभी नक्सलियों के लिए पिकनिक स्पॉट और जन अदालत लगाए जाने वाली जगह पर शिक्षा की अलख जगा रही हैं। जिस पेड़ के नीचे नक्सली लगाते थे जन अदालत, वहीं पढ़ते हैं बच्चे…
प्रभा की कोशिश को पहल नाम की सामाजिक संस्था से बल मिला है। इससे सासाराम से 30 km दक्षिण स्थित कैमूर के जंगलों और सोन नदी के किनारे स्थित इस गांव में बदलाव आने लगा है। 15 अगस्त 2015 को शुरू हुए पांचवी कक्षा तक के इस स्कूल से पढ़कर अब तक 15 छात्र छठवीं कक्षा में दूसरे हाई स्कूलों में एडमिशन करा चुके हैं।
पेड़ के नीचे पढ़ते हैं बच्चे
यह स्कूल उसी पेड़ के नीचे लगती है जहां कभी नक्सली जन अदालत लगाकर आरोपियों को सजा सुनाते थे। नक्सली इस जगह को पिकनिक स्पॉट के रूप में भी यूज करते थे। सुबह 9 बजे छात्र प्रभा मैडम के लिए लकड़ी की एक टूटी हुई कुर्सी लाकर रखते हैं और खुद जमीन पर बोरा बिछाकर शाम तीन बजे तक पढ़ते हैं। प्रभा डुमरखोह गांव की बहू हैं। उनकी शादी पुनेंद्र चेरो से हुई है। शादी से पहले प्रभा अपने मायके आलमपुर से 7km चलकर रायपुर चौर इंटरस्तरीय स्कूल से डिग्री ली फिर शादी हुई तो अपनी शिक्षा का ससुराल में उपयोग करते हुए स्कूल खोल दिया।
 
5km के दायरे में नहीं है कोई स्कूल और अस्पताल
रोहतास के डुमरखोह गांव की मुख्यालय से दूरी 130 किलोमीटर है। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिला की सीमाएं यहां से 5km की दूरी पर है। इसी तरह झारखंड की सीमाएं भी सोन नदी पार लगभग 5km पर मौजूद हैं। तीनों राज्यों की सीमा पर मौजूद इस गांव के चारो तरफ 5km के दायरे में न तो कोई स्कूल है और न अस्पताल। यहां तक की गांव में पहुंचने के लिए 20km टूटी फुटी पहाड़ी सड़क से गुजरना पड़ता है। इस रास्ते से दिन में गुजरते में भी डर लगता है रात में कोई इस तरह आने की हिम्मत कम ही करता है।
 
संस्था जब पहुंचाती है पढ़ने के समान तो रहता है उत्सवी माहौल
डुमरखोह के ग्रामीण ललन चेरो, शंभु चेरो, रामदेव चेरो, पुनेंद्र चेरो बताते हैं कि पहल संस्था द्वारा डेढ़ वर्ष पूर्व यह स्कूल शुरू किया गया था। उसके संचालक अखिलेश कुमार सहित अन्य सहयोगी जब भी यहां पहुंचते हैं तो बच्चों के लिए स्कूली बैग, किताब और ड्रेस लेकर आते हैं। उनके आने पर गांव में उत्सवी माहौल सा हो जाता है। लोगों में उनके आने से गजब का उत्साह है। स्कूल को संचालित करने में ग्रामीण भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं।
गांव के लोगों ने पहली बार देखी कार
पहल के संचालक अखिलेश कुमार ने एक रोचक बात बताया। जब संस्था के लोग अपनी कार से उस गांव में पहुंचे तो उसे देखने के लिए बुजुर्गों की भीड़ लग गई। उसमें से कई बुजुर्ग तो ऐसे थे जो जीवन में पहली बार कार देख रहे थे। इससे पहले वहां पुलिस की जीप और लैंड माइंस निरोधक गाड़ियां ही पहुंचती थी। वह भी कभी-कभी।

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