शराब को सरकारी पनाह
ज्ञानेन्द्र शर्मा : प्रसंगवश
शराब की जगह-जगह खुली दुकानें, जिनमें से बहुतों के बाहर लिखा होता है- शराब की सरकारी दुकान। दुकान के बाहर शराब पीते लोग और वहां अक्सर होने वाले झगड़े-झांसे। कई जगह खुली हुई वे दुकानें जिन्हें मॉडल शॉप कहते हैं, जो एक तरह से बार की तरह होती हैं। वहां आप अंदर बैठकर शराब पी सकते हैं, पूरी मस्ती कर सकते हैं, दूसरों की मस्ती में खलल डाल सकते हैं, सीन क्रिएट कर सकते हैं।
राजधानी लखनऊ और अपने प्रदेश के दूसरे नगरों में यह नजारा आम बात है। यहां देसी-विदेशी शराब की बिक्री खुलेआम होती है, कोई भी कभी भी खरीदारी कर सकता है, कहीं भी बैठकर दारू पी सकता है, झूम सकता है, गिर सकता है, पीकर बेहोश हो सकता है। अगर लोकलाज प्यारी हो तो उधर से महिलाएं नहीं गुजर सकतीं। हाईवे के किनारे किनारे आपको थोड़ी थोड़ी दूर पर ऐसी दुकानें आसानी से नजर आ जाएंगी। गांव-गांव में जितना विस्तृत जाल दारू की दुकानों का है, उतना दूसरी किसी उपभोक्ता वस्तु का नहीं। सरकार इसे प्रोत्साहन देती है ताकि दारू की बिक्री से ज्यादा से ज्यादा आमदनी हो और सरकारी खजाना भरे। इसीलिए ऊंची-ऊची दरों पर ठेकों की नीलामी होती है। ऐसी आबकारी नीति बनाई जाती है कि दारू का प्रचार प्रसार हो, ज्यादा से ज्यादा लोग ज्यादा से ज्यादा मात्रा में दारू पिएं और सरकार को टैक्स चुकाएं। वर्तमान सरकार ने तो अपने निश्चित कार्यकाल से भी आगे तक की अवधि की आबकारी नीति घोषित की हुई है।
इस सबके बीच सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला आया है जो ताजा हवा के झोंके की तरह है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने केरल की आबकारी नीति से जुड़े एक मामले में फैसला सुनाते हुए राज्य सरकारों को स्मरण कराया है कि संविधान उन पर यह जिम्मेदारी डालता है कि वे शराब की बिक्री रोक नहीं सकतीं तो कम तो कर सकती हैं। अदालत ने कहा कि शराब के अत्यधिक उपभोग पर सरकार की तरफ से कड़े प्रतिबंध लागू होने चाहिए। उसने कहा कि पंचतारा होटलों के अलावा दूसरे होटलों को बार के लाइसेंस नहीं देना शराब के उपभोग में कमी करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने केरल सरकार की उस नई आबकारी नीति को स्वीकृति प्रदान कर दी जिसके अंतर्गत सार्वजनिक स्थानों पर शराब पीने पर रोक लगाई गई है और सिर्फ पंचतारा होटलों में शराब परोसे जाने की व्यवस्था लागू की गई है। अदालत ने इस नीति को सही माना है। उसका कहना है कि शराब का व्यापक प्रतिकूल प्रभाव परिवारों पर और खासकर महिलाओं और बच्चों पर पड़ता है।
आंकड़े बताते हैं कि देश की 30 फीसदी आबादी शराब का नियमित रूप से सेवन करती है और इनमें से 11 प्रतिशत अत्यधिक शराब पीते हैं।
उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह करीब 35 मिली लीटर देसी शराब पी जाती है जबकि पांच मिलीलीटर विदेशी शराब, बीयर या वाइन पी जाती है।
उत्तर प्रदेश में हर महीने प्रति व्यक्ति शराब की खपत औसतन डेढ़ लीटर है। उत्तर प्रदेश की सरकार केरल जैसा कुछ क्यों नहीं कर सकती? यहां क्यों नहीं सार्वजनिक स्थानों पर शराब पीने पर पूर्ण प्रतिबंध लागू होता है, क्यों नहीं यहां ऐसा हो सकता है कि केरल राज्य की तरह सिर्फ पंचतारा होटलों को बार लाइसेंस मिलें और केवल वहां ही शराब परोसी जाय? उत्तर प्रदेश सरकार भी बिहार की तरह फिलहाल आंशिक शराबबंदी लागू क्यों नहीं करती? बिहार में एक अप्रैल से देसी शराब के उत्पादन और बिक्री पर रोक लग जाएगी। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में शराब विक्रेताओं की मनमानी को रोकने के लिए सरकार को इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए। यहां शराब विक्रेता सिर्फ वह शराब बेचते हैं, जिनमें उन्हें ज्यादा मुनाफा होता है, शराब का दाम उसकी बोतल पर लिखे दाम से ज्यादा होता है और खरीदारों को कभी रसीद नहीं दी जाती। कोई इस बात पर ध्यान देगा कि वर्ष 2012 में शराब उपभोग के चलते 33 लाख लोगों की देश में मौत हुई थी।