शीतयुद्ध की ओर जा सकती है दुनिया
स्थिति यह बताती है कि प्रशांत क्षेत्र में दो समूहों के निर्माण की संभावनाएं हैं जिनमें से एक में अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया हो सकते हैं और दूसरे में रूस, चीन और उत्तर कोरिया। इन समूहों से जुड़े देशों में जापान की सैन्य क्षमता कम और सिद्धांत उदार हैं। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि जापान अपनी नीति में परिवर्तन करे।
पीछले सात दशकों पर शांतिप्रियता का आचरण कर रहा एशिया-प्रशांत का एक देश (जापान) अब नई रक्षा नीति के जरिए ‘आत्मरक्षा के सिद्धांत’ को नया आयाम देना चाह रहा है, जिससे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक संतुलन बदल सकते हैं। इस नये सभावित संतुलन की स्थापना को देखते हुए इस क्षेत्र में एक हलचल सी दिख रही है, जो उन देशों और उनके राजनीतिक नेतृत्व के मस्तिष्कों में ही नहीं है जो मेइजी रेस्टोरेशन के बाद जापान की सैन्यवादी व्यवस्था का शिकार हुए थे, बल्कि स्वयं जापान के अंदर राजनीतिक विपक्षियों और सामान्य जापानी नागरिकों के मस्तिष्कों में भी है, जिन्होंने परमाणु बम की विभीषिका या उसके प्रभावों को भी देखा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री शिंजों अबे की नयी रक्षा नीति केवल जापान की आत्मरक्षा तक ही सीमित है अथवा यह नीति अमेरिका की उस एशिया-प्रशांत रणनीति का हिस्सा है जिसके जरिए वह चीन को घेरना चाहता है? यदि दूसरी स्थिति ही जापान की सैन्य व रक्षा नीति में बदलाव के लिए जिम्मेदार है, तो क्या यह मान लिया जाए कि दुनिया एक बार फिर से शीतयुद्ध की ओर सरक रही है?
दरअसल, जापान अपनी नई सुरक्षा रणनीति केजरिए सावधानी पूर्वक ‘आत्मरक्षा के सिद्धांत’ को प्रतिष्ठित करना चाहता है और इसके साथ ही वह दुनिया को आश्वस्त करना चाहता है कि उसकी मंशा दूसरे देशों के लिए खतरा या फिर सैन्य शक्ति बनने की नहीं है। हालांकि हथियार निर्यात पर लगी पाबंदी पर ढील देने के साथ-साथ अमेरिका के साथ मिलकर मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली को विकसित करने का विषय इस नयी रक्षा नीति में निहित है, इसलिए प्रशांत महासागर के पानी में थोड़ी गरमाहट पैदा होनी स्वाभाविक है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या जापान के लिए नयी नीति अनुकूल वातावरण का निर्माण कर पाएगी ? यदि ऐसा नहीं हो पाया तो क्या एशिया-प्रशांत क्षेत्र पुन: 70 वर्ष पीछे के युद्धोन्मादी वातावरण में लौट जाएगा? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो मस्तिष्क में बार-बार उभरते हैं, इसलिए यह जरूरी है कि वस्तुस्थिति को सभी आयामों के साथ स्पष्ट किया जाए। सवाल यह भी उठता है कि वह अमेरिका, जिसने जापान के लिए नया संविधान दिया था जिसका अनुच्छेद 9 जापान के ‘शांतिवाद के सिद्धांत’ प्रतिपादित कर रहा है, जापान के इस नए बदलाव का स्वागत क्यों कर रहा है?
दरअसल, जापान ने 1945 में जिस संविधान को अपनाया था वह अमेरिका द्वारा प्रायोजित था क्योंकि अमेरिका जापान की युद्धोत्तेजक प्रवृत्तियों को पूरी तरह से नष्ट कर देना चाहता था। इसलिए इस संविधान के अनुच्छेद 9 यह प्रावधान किया गया कि-(1) न्याय और व्यवस्था पर आधारित अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए ईमानदार इच्छा के साथ, जापान के लोग हमेशा के लिए युद्ध का त्याग करते हैं, संप्रभुता राष्ट्र का अधिकार है और वे सैन्य बलों का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय विवादों को निपटाने के लिए करेंगे। (2) पिछले पैराग्राफ में निहित उद्देश्य को पूरा करने के क्रम में थल, जल और वायु सेना के साथ-साथ अन्य युद्ध क्षमताओं, को कभी बनाए नहीं रखा जाएगा। राज्य की युद्धप्रियता के अधिकार को मान्यता नहीं दी जाएगी। इसी अनुच्छेद 9 ने जापान को सेल्फ डिफेंस फोर्सेज तक सीमित कर दिया। परिणाम यह हुआ कि सात दशकों तक जापान की सेना सभी अन्तरराष्ट्रीय संघर्षों से दूर रही, लेकिन जब जापान की बागडोर शिंजो अबे संभाली तो उन्होंने इस नीति में बदलाव लाने के लिए आक्रामक ढंग से कोशिशें शुरू कर दीं। सामान्य रूप से वैश्विक चिंतक जापान की इस नयी नीति के पीछे मुख्य कारण चीन का माना जा रहा है। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में चीन एक महाशक्ति के रूप में उभरा है जिसने एशिया प्रशांत के देशों पर अपनी धौंस जमानी शुरू कर दी। फलत: ‘साऊथ चायना सी’ के मुद्दे पर दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से उसका विवाद चल रहा है और ‘ईस्ट चायना सी’ के अधिकारों को लेकर जापान के साथ उसका लगातार तनाव बढ़ रहा है।
चीन की यह आक्रामकता केवल जापान के लिए ही नहीं बल्कि अमेरिका के लिए भी सिरदर्द बनी हुई है। इसलिए उसकी इस आक्रामकता पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका द्वारा कोशिशें शुरू कर दी गयीं। लेकिन यह खतरा केवल एकल आयामी नहीं है बल्कि चीन ने उत्तर कोरिया को एक आज्ञाकारी सिपहसालार बना रखा है जो परमाणु शक्ति से सम्पन्न भी है।
उत्तर कोरिया का टकराव सामान्यतया तो दक्षिण कोरिया के साथ है, लेकिन वास्तविकता में वह दक्षिण कोरिया के जरिए अमेरिका को उकसाता है इसलिए यह माना जा सकता है कि उसे दिशा-निर्देश देने वाला चीन ही है जो कि प्रशांत महासागर में चुनौतीविहीन ताकत बनना चाहता है। इसे ही देखते हुए अमेरिका ने हवाई और गुआम में बैलिस्टिक टर्मिनल हाई अल्टीट्यूड एरिया डिफेंस सिस्टम तैनात करने का निर्णय लिया था। उत्तर कोरिया इन तैयारियों के कारण ही दक्षिण कोरिया को कई बार फिजिकल रेस्पांस की धमकी दे चुका है जिसमें परमाणु हमला भी शामिल होगा।
चार द्वीपों को लेकर रूस और जापान में पिछले 60 वर्षों से संघर्ष की स्थिति है। इन द्वीपों को रूस दक्षिणी कुरील के नाम से व्यक्त करता है ओर जापान उत्तरी क्षेत्र (नार्थ टेरिटोरीज) के रूप में। ये हैं-कुनाशिर (कुनाशिरी), इतुरुप (इतोरफू), शिकोतन और हाबोमाई आइलेट्स। हाबोमाई समूह जापानी द्वीप होद्ैदो के नेमुरो से कुछ किलोमीटर दूरी पर है। 1855 में रूस और जापान के मध्य शिमोदा की संधि हुई थी जिसके जरिए जापान को चार दक्षिणी द्वीपों का स्वामित्व प्राप्त हुआ था और रूस को उत्तरी क्षेत्र पर, लेकिन इसके बावजूद दोनों के बीच विवाद बना हुआ है, जिसके चलते जापान और रूस के बीच मित्रता स्थापित नहीं हो सकी। रूसी राष्ट्रपति पुतिन रूस को पुन: सोवियत काल की प्रतिष्ठा दिलाना चाहते हैं और क्रीमिया, ईरान, सीरिया पर जिस तरह का रुख रूस का है उससे यह स्पष्ट हो रहा है कि इन ‘एक्टिंग प्वाइंट्स’ की प्रतिध्वनि भविष्य में प्रशांत क्षेत्र तक पहुंच सकती है। चूंकि चीन-रूस निकटता बढ़ रही है, इसलिए इस शंका को और अधिक बल मिल रहा है। यह स्थिति बताती है कि प्रशांत क्षेत्र में दो समूहों के निर्माण की संभावनाएं हैं जिनमें से एक में अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया हो सकते है और दूसरे में रूस, चीन और उत्तर कोरिया। इन समूहों से जुड़े देशों में जापान की सैन्य क्षमता कम और सिद्धांत उदार हैं। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि जापान अपनी नीति में परिवर्तन करे।
उक्त स्थिति के प्रकाश में जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और भारत से सहायता के साथ एशिया प्रशांत में बन रहे ‘रणनीति चतुर्भुज’ को देखा जा सकता है। शिंजो अबे चाहते हैं कि जापान इस समूह में सक्रिय, सक्षम और प्रभावशाली भूमिका में रहे। यह तभी संभव है कि जब वह अपनी रक्षा क्षमता में परिवर्तन व परिवद्र्धन करे। इस दृष्टि से जापान की संसद में पारित हुआ विधेयक जापान की रक्षानीति में सहायक साबित हो सकता है। नये रक्षा विधेयक में नियम 10 सुरक्षा संबंधी कानूनों को सेल्फ डिफेंस फोर्सेज (एसडीएफ) पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के लिए संशोधित करता है जिसमें अनुच्छेद 9 के तहत आत्मरक्षा पर लगा सामूहिक प्रतिबंध भी शामिल है। नया कानून जापान को संयुक्त राष्ट्र-प्राधिकृत सैन्य संचालनों, जिसमें विदेशी या बहुराष्ट्रीय सैन्यबल हों, के लिए रसद समर्थन हेतु विदेशों में एसडीएफ को तैनात करने की अनुमति प्रदान करता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सैन्य बलों की तैनाती तीन शर्तों के अधीन है, जो निम्नलिखित हैं-जापान और करीबी सहयोगी पर हमाला किया गया हो, जापान के अस्तित्व पर खतरा हो और हमले के अलावा कोई अन्य उपाय न बचा हो …आदि।
प्रधानमंत्री अबे ने जापानी जनता के शांतिपूर्ण जीवन की रक्षा हेतु और भविष्य में युद्ध को रोकने के लिए नयी रक्षा रणनीति को जरूरत के रूप में पेश किया जबकि उनके विपक्षियों में से किसी ने इसे जापान-अमेरिका के संघर्ष के उलझाव के रूप में पेश किया, किसी ने जापान को सैन्यवाद की ओर ले जाने वाले कदम के रूप और किसी ने अनसुलझे युद्धों के जाल में फंसाने वाली व्यवस्था के रूप में। जो भी हो, 19 सितंबर 2015 को जापानी संसद ने एक ऐसे प्रस्ताव को पारित कर उसे कानून में तब्दील कर दिया जिसके द्वारा जापानी सेना का प्रयोग देश के बाहर भी किया जा सकेगा। ये बदलाव एशिया-प्रशांत में जिस नयी गतिकी (न्यू डायनॉमिक्स) का निर्माण करेंगे और दुनिया को एक नये शीतयुद्ध की ओर ले जाने का काम कर सकती है। =
चार द्वीपों को लेकर रूस और जापान में पिछले 60 वर्षों से संघर्ष की स्थिति है। इन द्वीपों को रूस दक्षिणी कुरील के नाम से व्यक्त करता है और जापान उत्तरी क्षेत्र (नार्थ टेरिटोरीज) के रूप में। ये हैं-कुनाशिर (कुनाशिरी), इतुरुप (इतोरफू), शिकोतन और हाबोमाई आइलेट्स।