संपादकीय

संपादकीय : जल बंटवारे पर उबाल

editorial-13-sept_14_09_2016कावेरी जल बंटवारे को लेकर बने विस्फोटक हालात से साफ है कि ऐसे विवादों को हल करने में न्यायिक निर्णय पर्याप्त सिद्ध नहीं होते। यह दायित्व राजनेता उठाएं।

कावेरी जल बंटवारे को लेकर कर्नाटक में लोगों की भावनाएं भड़की हुई हैं। हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ ने वहां गंभीर स्थिति पैदा कर दी है। इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक की अपील पर तमिलनाडु को रोज दिए जाने वाले जल की मात्रा 15,000 से घटाकर 12,000 क्यूसेक कर दी। कावेरी जल विवाद बहुत पुराना है। इसे हल करने के लिए बने न्यायाधिकरण ने 2007 में अपना फैसला दिया। लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। उस पर फैसले का इंतजार है। इस बीच अंतरिम आदेश ने खासकर कर्नाटक में विस्फोटक स्थिति बना रखी है।

सर्वोच्च न्यायालय ने पांच सितंबर को कर्नाटक से कहा था कि वह 10 दिन तक वह तमिलनाडु के लिए 15,000 क्यूसेक पानी छोड़े। तमिलनाडु ने 40,000 एकड़ क्षेत्र में लगी सांबा की फसल के लिए कावेरी नदी से 50.52 टीएमसी फुट पानी मांगा था। कर्नाटक के किसान संगठनों का कहना है कि उनके राज्य के पास अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। कर्नाटक में इस बार मानसून अच्छा नहीं रहा। इस कारण वहां जल संकट है। विशेषज्ञों का कहना है कि जब बरसात पूरी होती है, तो उस सीजन में कावेरी में इसके किनारे बसे चारों राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी की कृषि संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त पानी होता है। मगर अच्छी बारिश नहीं होने पर स्थिति बिगड़ जाती है। मुद्दा है कि क्या उस हाल में भी सभी राज्यों को उसी अनुपात में पानी मिलना चाहिए, जो सामान्य बारिश के साल के लिए तय है? जब न्यायाधिकरण का फैसला आया तो कर्नाटक ने कहा कि जल बंटवारे का फॉर्मूला तय करते समय इसका ध्यान नहीं रखा गया कि नदी बहाव के निचले इलाकों में भूजल स्तर ज्यादा होता है। बंटवारा मात्र नदी में जल बहाव के आंकड़ों के आधार पर किया गया। यह कर्नाटक से नाइंसाफी है।

इस संदर्भ में गौरतलब है कि शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ पानी की मांग बढ़ रही है। इससे ऐसी समस्याएं और गंभीर हुई हैं। उधर कर्नाटक के ताजा हालात का सबक है कि ऐसे संकटों को हल करने में न्यायिक निर्णय पर्याप्त सिद्ध नहीं होते। यह दायित्व राजनेताओं को लेना होगा। मगर मुश्किल यह है कि राज्यों के अंदर अलग-अलग दलों में ऐसे मसलों पर भावनाएं भड़काने की होड़ लग जाती है। तमिलनाडु और कर्नाटक दोनों जगहों पर फिलहाल हालात ऐसे ही हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। तो क्या सभी राज्यों की भागीदारी से जल बंटवारा संबंधी मामलों में कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई जा सकती? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंसा पर दुख जताते हुए तमिलनाडु और कर्नाटक के नेताओं से संवेदनशीलता दिखाने की अपील की है। मगर ऐसा लगता है कि समाधान के लिए केंद्रीय राजनेताओं को ही पहल करनी होगी। ऐसी समस्याएं राष्ट्रीय एकता तथा सद्भाव के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं।

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