सहारनपुर में जातीय हिंसा की गूंज दूर तक जाएगी
मायावती को अपनी राजनीति पर खतरा बढ़ता दिखायी दिया तो वे भागी-भागी सहारनपुर का दौरा करने गयीं। सबसे ज्यादा हिंसाग्रस्त शब्बीरपुर में उन्होंने सभा की और दलितों को आगाह किया कि वे किसी और संगठन की बजाय सिर्फ बसपा के बैनर तले ही विरोध प्रदर्शन आदि करें। इससे वे सुरक्षित रहेंगे। जाहिर है उनकी चिंता अपनी राजनीति है लेकिन उनके दौरे से हिंसा और भड़की। उनकी सभा से लौटते दलितों पर राजपूतों की ओर से हमले हुए दलितों ने भी जवाबी हमले किए।
योगी सरकार की कठिन चुनौती, दलित राजनीति के नये समीकरण
-नवीन जोशी
मई के अंतिम सप्ताह में उत्तर प्रदेश के गृह सचिव मणि प्रसाद मिश्र और एडीजी (कानून व्यवस्था) आदित्य मिश्र सहारनपुर के अशांत गावों में घर-घर घूमकर जिला प्रशासन की नाकामी के लिए क्षमा मांगते हुए राजपूतों और दलितों से शांति एवं संयम रखने की अपील कर रहे थे। इससे यह साबित हो जाता है कि जिला प्रशासन ही नहीं, प्रदेश सरकार ने भी इस सवर्ण-दलित टकराव को बहुत लापरवाही से लिया। स्थितियां लगातार बिगड़ती गयीं, मध्य अप्रैल से शुरू हुई हिंसा मई के तीसरे सप्ताह तक जारी थी। कम से कम दो मौतें हुईं, पचासों घायल हुए और एक सौ से ज्यादा घर फूंके गये। आक्रोशित दलितों ने आक्रोश में धर्म-परिवर्तन करने का ऐलान तक किया। पिछले दो साल से सक्रिय भीम सेना नामक संगठन का इस बीच प्रभाव बढ़ा। उसने दलित उत्पीड़न का आक्रामक प्रतिकार किया और दिल्ली के जंतर-मंतर में उग्र प्रदर्शन करके सारे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। इस नये घटनाक्रम पर राजनीतिक प्रेक्षकों, पार्टियों और नेताओं के कान खड़े हुए। दलित आधार के लिए जूझ रही बसपा और भाजपा नेतृत्व के माथे पर चिंता की रेखाएं उभरी हैं। इन पक्तियों के लिखे जाने तक भी सहारनपुर में बहुत तनाव है। प्रदेश सरकार ने वरिष्ठ अधिकारियों के दल अशांत गांवों में तैनात कर रखे हैं, जिलाधिकारी और एसएसपी को निलंबित किये जाने के बाद भी दोनों समुदायों का आक्रोश शांत नहीं हुआ। दोनों तरफ गुस्सा कायम है और देख लेने की धमकियां उछाली जा रही हैं। राजपूतों और दलितों के बीच सद्भावना वार्ताएं कराने के प्रयास हो रहे हैं।
योगी सरकार के लिए यह बड़ी चुनौती बन गयी है। उनके शासन के दो-ढाई महीनों में कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी है जबकि अखिलेश सरकार में बढ़ते अपराध और हिंसा के खिलाफ भाजपा सबसे ज्यादा आक्रामक थी। लूट, हत्या और गैंगरेप की घटनाएं बढ़ी हैं। यमुना-एक्सप्रेस-वे में 24 मई की रात जो जघन्य वारदात हुई, वह बताती है कि अखिलेश राज से अब तक कुछ बदला नहीं है, न अपराधियों पर लगाम लगी है, न ही पुलिस चुस्त हुई है। खैर, जंतर-मंतर पर भीम सेना के बड़े प्रदर्शन के बाद मायावती को अपनी राजनीति पर खतरा बढ़ता दिखायी दिया तो वे भागी-भागी सहारनपुर का दौरा करने गयीं। सबसे ज्यादा हिंसाग्रस्त शब्बीरपुर में उन्होंने सभा की और दलितों को आगाह किया कि वे किसी और संगठन की बजाय सिर्फ बसपा के बैनर तले ही विरोध प्रदर्शन आदि करें। इससे वे सुरक्षित रहेंगे। जाहिर है उनकी चिंता अपनी राजनीति है लेकिन उनके दौरे से हिंसा और भड़की। उनकी सभा से लौटते दलितों पर राजपूतों की ओर से हमले हुए़ दलितों ने भी जवाबी हमले किए़ भीम सेना का रुख काफी आक्रामक है। प्रशासन ने उनके कुछ नेताओं को नक्सली तक कह दिया था।
दलित राजनीति के मोर्चे पर इस समय सबसे ज्यादा हलचल है। दलितों के एकजुट समर्थन के सहारे चार बार यूपी की सत्ता हासिल करने वाली बहुजन समाज पार्टी बिखराव के दौर से गुजर रही है। कांग्रेस की अखिल भारतीयता का अपहरण करने में लगभग कामयाब हो चुकी भारतीय जनता पार्टी दलितों का राष्ट्रव्यापी समर्थन पाने की जी-तोड़ कोशिश में है और दलित राजनीतिक नेतृत्व में बन रहे निर्वात में भीम सेना की हुंकार गूंज रही है।
कोई दो साल पहले नौकरी की तलाश में भटकते दो युवकों विनय रत्न और चंद्रशेखर ने तय किया कि उन्हें अपने दलित समाज की उन्नति के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने चाहिए। शिक्षा ही सबसे अच्छा रास्ता सूझा। सो, सहारनपुर के फतेहपुर भादों गांव में एक पाठशाला खोली गयी। दलित बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा के लिए। यह कारवां तेजी से बढ़ा। बताते हैं कि आज पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और शामली जिलों में ऐसी 350 पाठशालाएं हैं। अभियान सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं रहा। कुएं से पानी पी लेने जैसे मुद्दों पर दलित उत्पीड़न, महिलाओं पर अत्याचार और भेदभाव के कई मुद्दे भी उठने लगे। इस तरह भीम सेना बनी। पाठशालाओं के साथ सदस्यता बढ़ती गयी। उत्पीड़न के खिलाफ आवाज दबायी जाने लगी तो वह और जोर से उठने लगी। अप्रैल मध्य में शब्बीरपुर में सवर्णों के हाथों एक दलित युवक की मौत के विरोध को प्रशासन ने दबाया तो वह भड़क उठा। भीम सेना के नेता चन्द्रशेखर ने आक्रामक बयान दिये और इलाके के दलित उनके आह्वान पर निकल आये। जंतर-मंतर पर भीम सेना के प्रदर्शन की अनुगूंज कोई तीन दशक पहले कांशीराम के ऐसे ही प्रदर्शनों की याद दिलाती है, जिनसे अंतत: बहुजन समाज पार्टी का जन्म हुआ था। इस प्रदर्शन में सवर्ण-विरोध और भाजपा-संघ विरोधी स्वर भी बहुत मुखर हुए। भीम सेना का कोई राजनीतिक कार्यक्रम घोषित नहीं हुआ है लेकिन उसमें दलितों को आकर्षित करने वाले राजनीतिक चुम्बक के संकेत देखे जा सकते हैं। गुजरात में पटेलों और महाराष्ट्र में मराठों के हालिया प्रदर्शनों के तेवर भी इसमें देखे गये।
2014 के लोकसभा चुनाव में पूरे सफाये और उत्तर प्रदेश के हाल के विधान सभा चुनाव में बहुत बड़ी पराजय के बाद मायावती बहुजन समाज पार्टी को बचाये रखने का रास्ता ही खोज रही थीं कि भीम सेना ने उनकी नींद उड़ा दी है। दलित नेतृत्व कहीं और उभरना उन्हें क्यों मंजूर होगा। सहारनपुर जिले में दलित अत्याचार की बड़ी वारदात के बावजूद शांत बैठी मायावती 23 मई को भागी-भागी सहारनपुर गयीं तो सिर्फ इसलिए कि बीते रविवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर भीम सेना के आह्वान पर हजारों दलितों की भीड़ जमा हो गयी थी। चिंता की लकीरें भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के माथे पर भी देखी जा रही हैं। बाबा साहेब अंबेडकर की वैचारिकी और क्षेत्रीय दलित नेताओं के आंदोलन ने स्वतंत्रता-आंदोलन के समय से महाराष्ट्र में चाहे जितनी लहरें उठायीं हों, सत्ता की राजनीति से दलित सशक्तीकरण का प्रयोग कांशीराम ने ही सफल करके दिखाया। ‘बामसेफ’ और ‘डीएस-4’ के आंदोलनों से होते हुए 1984 में बहुजन समाज पार्टी बनाकर कांशीराम ने सम्पूर्ण दलित, बल्कि ‘बहुजन समाज’ को राजनीतिक रूप से गोलबंद किया।
वे दलित-वंचित जातियों को यह विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि उनकी दयनीय हालत के लिए सवर्ण मानसिकता वाले राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं और इसे बदलने के लिए उन सबका बहुजन समाज पार्टी को सत्ता तक पहुंचाना जरूरी है। कांशीराम की आवाज पंजाब और महाराष्ट्र जैसे दलित बहुल राज्यों में क्यों अनसुनी रही, यह अलग विश्लेषण की मांग करता है लेकिन उत्तर प्रदेश के दलित समाज ने बसपा को सिर-आंखों पर बैठाया। पिछले दो-ढाई दशक से यूपी और राष्ट्रीय स्तर पर भी मायावती की राजनीतिक चमक-धमक इसी दलित- समर्पण की देन रही मगर 2014 और 2017 के चुनावों ने साबित कर दिया कि वे दलित समाज की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं। उनकी अपनी उपजाति के जाटवों को छोड़ दें तो बाकी दलित जातियां बसपा से छिटकी हुई हैं। बल्कि, भीम सेना के उभार में नये जाटव नेतृत्व के उभार के संकेत मिल रहे हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर परिवर्तन की लहर ने 2014 में दलित वोटरों को नरेंद्र मोदी की तरफ झुकाया तो 2017 के विधानसभा चुनाव में वे मायावती से मोहभंग के कारण भाजपा की अप्रत्याशित भारी विजय का कारण बने। नरेंद्र मोदी के लखनऊ में बाबा साहेब की अस्थियों के सामने मत्था टेकने, दलित बस्तियों में बौद्घ भिक्षुओं की यात्राओं, अमित शाह प्रभृति का दलित बस्तियों में खाना खाने और बड़े पैमाने पर दलितों-पिछड़ों को टिकट देने की भाजपाई रणनीति ने यूपी फतह करा दी। अब इसी प्रयोग को भाजपा दूसरे राज्यों में दोहराने जा रही है, खासकर वहां जहां जल्दी ही विधान सभा चुनाव होने है। नरेंद्र मोदी का कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा भी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का दलित-आधार बनाने और उसे मजबूत करने की मांग करता है। कभी अविजित मानी जाने वाली कांग्रेस की अखिल भारतीयता के पीछे दलित-मुस्लिम जनाधार मुख्य हुआ करता था। इसी जनाधार के खोते जाने से कांग्रेस हाशिए पर जाती रही और आज भाजपा को अपनी अखिल भारतीयता पर पक्की मुहर लगाने के लिए ही दलित समर्थन की सबसे ज्यादा जरूरत है। इसलिए भीम सेना के एकाएक उभार पर भाजपा चौकन्नी है। योगी सरकार बनने के दो महीने में ही पश्चिम यूपी के दलित उत्पीड़न कांड और उससे उपजा भीम सेना का आक्रोश भाजपा के लिए बड़ा सिरदर्द बन सकता है। उसके ध्यान में निश्चय ही है कि तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में दलित वोट कितने महत्वपूर्ण हैं। एक मात्र बड़ा राज्य जहां अभी कांग्रेस सत्ता में है और जिसे भाजपा उससे छीन लेना चाहती है, उस कर्नाटक में दलित अभी कांग्रेस के साथ दिखते हैं। यह समीकरण वह तोड़ना चाहती है। मतलब यह कि भाजपा के एजेंडे में दलित अभी सबसे ऊपर हैं। भाजपा की मुश्किल यह भी है कि उसके और उससे जुड़े संगठनों के मूल चरित्र में बड़ा बदलाव लाये बिना उसका दलित-हितैषी चेहरा विश्वसनीय नहीं बन सकता। दलित-प्रेम के तमाम नारों, अभियानों और कार्यक्रमों के बावजूद आये दिन होने वाले दलित-उत्पीड़नों से उसका दामन दागी बना रहता है।
बहरहाल, दलित समाज इस समय राजनीतिक नेतृत्वहीनता की स्थिति में है। भीम सेना के उभार में वे एक नई उम्मीद देख सकते हैं। ऐसा हुआ तो बसपा और हाशिये पर जाएगी एवं भाजपा की उम्मीदों को झटका लग सकता है। शांति कायम होने से ही सहारनपुर के सवर्ण-दलित तनाव का पटाक्षेप नहीं हो जाएगा। उसकी अनुगूंज दूर तक जाएगी। योगी सरकार के लिए तो कठिन चुनौती है ही, दलित राजनीति में नए समीकरण बनने की संभावना है।