हम देंगे राजनैतिक विकल्प: एसपी सिंह
अपने जीवन के 34 महत्वपूर्ण साल प्रशासनिक सेवा को समर्पित करने के दौरान भी और अब जब सेवानिवृत्ति की तारीख नजदीक है, तब भी सीने में घुटन पहले जैसी है। समाज में आंखों के सामने जो कुछ घटित हो रहा है उसे देख उनका मन उन्हें कचोटता है और आगे बढ़कर कुछ कर गुजरने को प्रेरित करता है। उन्होंने जिन मुद्दों को लेकर युवाओं के साथ आवाज बुलन्द की, वह सूबाई सरकार को नागवार गुजरी और नतीजा पहले उनका तबादला हुआ और फिर प्रतीक्षारत कर दिया गया। ऐसा नहीं है कि उनका पहली बार तबादला हुआ। इससे पहले भी पूरी सेवा के दौरान 47 बार उनका तबादला हुआ। यानि औसतन एक पद पर बमुश्किल आठ महीने ही वे बिता पाये। इसी बीच थक-हारकर वे नौ साल के अध्ययन अवकाश पर भी चले गए। बात हो रही है 1982 बैच के आईएएस अधिकारी डा. सूर्य प्रकाश सिंह यानि एसपी सिंह की। सवर्ण क्षत्रिय जाति में जन्म लेने के बावजूद जाति में उनका विश्वास न के बराबर है। घर परिवार से भी मजबूत हैं। उम्र के इस पड़ाव पर बिना कुछ किए भी आराम से अपना शेष जीवन सुख से बिता सकने में सक्षम हैं लेकिन कुछ बदलाव लाने की चाहत उन्हें ऐश-ओ-आराम का जीवन जीने से दूर करती है। आमजन की भांति उनका भी लगभग हर राजनैतिक दल से मोहभंग हो चुका है। उनकी निगाहों में हर दल ने झूठे वादे कर जनता को सिर्फ ठगने के इतर और कुछ भी नहीं किया। जब उप्र लोकसेवा आयोग के मुखिया ने मेधावी छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करना शुरू किया तो छात्र आन्दोलन की राह पर चल पड़े। ऐसे में इन आन्दोलित छात्रों को नैतिक संबल प्रदान करने में डा. सिंह ने किंचित मात्र भी देर नहीं लगायी। नकल माफियाओं के खिलाफ खड़े हुए और आवाज बुलन्द की। नतीजतन सरकार ने उन्हें अपनी राह का रोड़ा मान किनारे लगा दिया। सरकार ने उनसे अधिकार तो सारे छीन लिए लेकिन वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी आज भी हैं। सामाजिक और राजनैतिक दोनों व्यवस्थाओं में बदलाव का बिगुल उन्होंने फूंक दिया है। हो सकता है वे भविष्य में एक राजनैतिक विकल्प लेकर हमारे आपके बीच आयें या फिर उनका वरदहस्त प्राप्त कर कुछ युवा विधानसभा व संसद की दहलीज लांघें। हमेशा अपनी बात को बहुत ही बेबाकी से रखने वाले डा. एसपी सिंह से दस्तक टाइम्स के सम्पादक रामकुमार सिंह से भी उसी लहजे में बात की और हर मीठे और कड़वे सवालों का मुस्कुरा कर जवाब दिया।
आपको राजनैतिक विकल्प बनने की जरूरत कब और क्यों महसूस हुई?
नए विकल्प और प्रयोग होते रहने चाहिए। यह प्रजातंत्र के लिए आवश्यक है, नहीं तो प्रजातंत्र ठहर जायेगा। देश की जनता अब स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करने लगी है। जनता को राजनैतिक दल ठगते आये हैं। कभी मंदिर के नाम पर तो कभी मस्जिद के नाम पर, कभी पिछड़े-अगड़ों के नाम पर। अपने हिसाब से सभी ने नारा दिया और लोगों को ठगा। कुर्सी पर बैठने के बाद नेताओं ने अपनी जाति, धर्म और क्षेत्र की भी सिर्फ बात ही की। अब इसके बाद क्या बचता है। एक तरफ सांपनाथ है तो दूसरी तरफ नागनाथ। गांधीजी ने स्वराज की बात की थी। लेकिन क्या आज तक स्वराज आया। स्वराज की स्थापना अब तक नहीं हो सकी। सिर्फ धर्म और जाति के ठेकेदार ही स्थापित हुए। ऐसे में विकल्प तो देने की जरूरत है ही। हम इसी दिशा की ओर काम भी कर रहे हैं।
क्या आप मानते हैं कि राजनीति में नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है? बिल्कुल, लोकनीति समाप्त हो गयी है। राजनीति अब स्वार्थ केन्द्रित हो गयी है।
यह विकल्प देने के पीछे आपका उद्देश्य क्या है?
मेरा कोई उद्देश्य नहीं है। मैं तो युवाओं से बात कर रहा हूं। युवाओं में जिस तरह से नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, उससे चिन्तित होना स्वाभाविक है। पैसे देकर डिग्री हासिल की जा रही है। थर्ड क्लास फस्र्ट क्लास में उत्तीर्ण हो जा रहा है। मेधावी छात्रों को भी अब इसी राह पर चलना पड़ रहा है। इसके बाद भी युवाओं को क्या हासिल हो रहा है। वे मध्यस्थ बनकर रह गए हैं। समाज में अपराध भी इसी कारण बढ़ रहे हैं, रोज घटनायें हो रही हैं। युवा नेताओं के आगे-पीछे छुटभैये बनकर घूम रहे हैं। ऐसे भटके हुए लोगों को कुछ तो दिशा दिखानी होगी।
आप जो कुछ भी करते हैं, उसे सरकार अपने खिलाफ मानती है। ऐसा क्यों?
मैं सरकार के खिलाफ नहीं हूं। मैंने कुछ मुद्दे उठाये हैं, जैसे बेरोजगारी, किसानों के बकाया राशि आदि। यह सब सरकार के खिलाफ नहीं है। हां, इतना जरूर है कि यह सब समस्या सरकार की कमी के ही कारण पैदा हुई है। किसानों को मुआवजा नहीं दिया गया। 300 से अधिक किसानों की मौत हो गयी। गन्ना किसानों का 11 हजार करोड़ रुपए का भुगतान बाकी है। अब यह स्थिति सरकार की कमी के ही कारण तो उत्पन्न हुई। यह सरकार की आलोचना नहीं सच्चाई है। यही वजह है कि लोग परिवर्तन चाहते हैं। विकल्प को जनता स्वीकार कर लेगी। उप्र में सुशासन की कमी है। जनता अच्छा शासन चाहती है। भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए अच्छा प्रशासन, चेक एण्ड बैलेंस व प्रक्रिया होनी चाहिए। एक दो लोगों को पकड़ लेने और मंत्री को बर्खास्त करने से, जैसा कि अभी दिल्ली सरकार में हुआ, भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा। ऐसा करके हम सिर्फ टहनी काट रहे हैं, जड़ों तक नहीं जा रहे। सरकार यह काम तो कर सकती है। रही बात लोगों की तो उन्हें बदलने में काफी समय लगेगा। बस मैं तो यही मुद्दे उठा रहा हूं।
आप सेवा के दौरान नौ साल अध्ययन अवकाश पर रहे? (बीच में टोकते हुए) क्या गलत किया मैंने। यदि मैंने कुछ गलत किया है नियम विरूद्ध है तो सरकार बर्खास्त कर दे मुझे। मैं तो नौकरी ही छोड़ रहा था। वीआएस दे दें मुझे। मैंने अध्ययन अवकाश पर जाकर कोई अपराध नहीं किया यह सर्विस रूल्स में है। सरकार में कार्यवाई करने का नैतिक बल नहीं है।
क्या आप मानते हैं कि राजनैतिक मूल्यों के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों में भी गिरावट आयी है?
देखिए, मूल्य कहां से आते हैं, परिवार, समाज और शिक्षा से यह आते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि किसी की मां नकल करके परीक्षा में पास होगी तो वह अपने बच्चों को भी वही समझायेगी कि बेटा तू भी नकल कर ले पास हो जायेगा। शिक्षा ही आधार है। शिक्षा जीवन मूल्य के साथ-साथ ज्ञान भी देती है। शिक्षा के केन्द्र प्रभावशाली लोगों के हाथों में है। एमपी, एमएलए व मंत्रियों ने शिक्षण संस्थायें खोल रखी हैं। इनमें वे जैसे हैं, वैसी ही शिक्षा भी दी जा रही है। यहां नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है। यदि बैंको का राष्ट्रीयकरण हो सकता है तो फिर शिक्षा का क्यों नहीं। क्यों नहीं निजी स्कूलों में और सरकारी स्कूलों में भी गुणवत्ता युक्त शिक्षा मिल रही है। यूपी में जैसे आज मानव संसाधन विकास का अभाव है। राज्य सरकार इसे बढ़ाने के लिए बजट का मात्र 3.2 फीसदी ही खर्च करती है।
यानि यह माना जाये कि आपकी लड़ाई व्यवस्था परिवर्तन की है?
यह व्यवस्था में जो विकृति आयी है उसके लिए जनजागरण है, कोई लड़ाई नहीं है। यह काम मैंने अकेले शुरू किया था। देखते ही देखते 65 लाख बच्चों (युवाओं) ने फोन करके मेरा समर्थन किया। लोगों का समर्थन और उत्साहवर्धन मुझे नयी ऊर्जा देता है। यह मेरे लिए कोई करियर नहीं है। न ही रिटायरमेंट के बाद मुझे राजनीति में करियर बनाना है। एमएलए बनकर विधानसभा में खादी का कुर्ता पहनकर जाने का हमारा कोई उद्देश्य नहीं है। हम चाहते है हालात बदलने चाहिए।
तो, क्या आप किसी राजनैतिक मूवमेंट की तरफ बढ़ रहे हैं?
ऐसा है यह सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन की लड़ाई है। मेरा यह मानना है कि जातियों को खत्म न किया जाये बल्कि सभी को समान अवसर उपलब्ध कराये जायें। इस देश में एक सरकार ने 40 साल गरीबी हटाओ के नाम पर शासन किया। क्या गरीबी खत्म हो गयी। एक पार्टी ने मंदिर के नाम पर करीब सात साल राज किया। फिर मण्डल आया। मण्डल से निकले नेताओं और दलों ने अपने परिवार और क्षेत्र का भी भरण पोषण किया न कि अपनी जाति का। दलितों के नाम पर सत्ता हासिल की गयी लेकिन दलितों का सशक्तिकरण हुआ नहीं। उलटे नेता सशक्त हो गये। यानि सभी ने लोगों को अलग-अलग मुद्दों को लेकर ठगा और छला। अभी बिहार में चुनाव हो रहे हैं। ईमानदारी की बात करने वाले दल 50-50 हेलीकाप्टरों से प्रचार कर रहे हैं। यह कहां से आये, कारपोरेट सेक्टर ने इन्हें मुहैया कराया। चुनाव में 75 फीसदी फंडिंग का कोई हिसाब किताब ही नहीं है। यानि अब साधारण व्यक्ति जिसके पास न तो बाहुबल है और न ही धनबल वह तो चुनाव ही नहीं लड़ सकता तो फिर वह एमपी या एमएलए कैसे बनेगा।
आप युवाओं को राजनीति में लाने के लिए प्रेरित करेंगे?
क्यों नहीं। युवाओं की अपनी समस्यायें हैं। शिक्षा है, बेरोजगारी है तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिनका हल ये युवा ही निकालेंगे। ऐसे में युवाओं को ही विकल्प भी तैयार करना होगा। मैंने पहले वास्ट नामक संस्था बनायी थी अब ‘उप्र बचाओ, उप्र बनाओ’ अभियान चला रहा हूं। दरअसल, राजनैतिक परिवर्तन कर सामाजिक परिवर्तन किया जा सकता है।
यह माना जाये कि आप राजनैतिक दल बनाकर प्रत्याशी मैदान में उतारेंगे?
यह हो सकता है। युवा जैसा सोचें। राजनैतिक दल नहीं भी बना तो प्रत्याशी तो हम लड़ायेंगे ही।
तो क्या किसी राजनैतिक दल का साथ नहीं लेंगे?
नहीं, ऐसा नहीं है। हम किसी भी राजनैतिक दल के साथ जा सकते हैं लेकिन वह दल हमारे सवालों का जवाब दे दे। मसलन, पार्टी यह बता दे कि वह मंदिर कब बनायेगी हम उसके साथ चले जायेंगे। अरे कोई हमारे सवालों का जवाब दे तो हम पार्टी की सदस्यता ले लेंगे। यह हम सारी पार्टियों से कह रहे हैं। पार्टियां बतायें कि उन्होंने सत्ता में आने पर अल्पसंख्यक, ओबीसी, दलितों आदि के लिए क्या किया?
आप भी केजरीवाल बनने की ओर अग्रसर हैं?
केजरीवाल, अरे हम केजरीवाल से बेहतर बनेंगे। उन्हें तो प्रशासनिक अनुभव भी नहीं है। इसीलिए रोज परेशान हो रहे हैं। बनाओ तो हमें केजरीवाल। केन्द्र से लड़कर सरकारें नहीं चलतीं। आन्दोलन चलाना और सरकार चलाना दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है। हम पारदर्शिता के साथ काम करना चाहते हैं। अच्छा प्रशासन देना चाहते हैं। अरे, दाल के दाम क्यों बढ़े, क्या यह सुशासन है। अब छापेमारी करके हजारों टन दाल पकड़ी जा रही है, निर्यात किया जा रहा है। पहले क्यों नहीं किया। यह अव्यवस्था है।
आखिर आपकी अपनी विचारधारा व सिद्धान्त क्या हैं?
सिर्फ दो शब्द, सुशासन और स्वराज। हमने समाजवाद लोहिया से लिया, गांधी से अन्त्योदय, बिनोबा से सर्वोदय अम्बेडकर से समता और सामाजिक न्याय। हमने साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच का रास्ता चुना है। केवल साम्यवाद और पूंजीवाद चुन लेने से भला नहीं होगा। हम आर्थिक नीति और सामाजिक चिन्तन भी तैयार कर रहे हैं। हम समस्या नहीं समाधान की बात कर रहे हैं।
इन मुद्दों पर आपके साथी ब्यूरोक्रेटस आपके साथ हैं क्या?
कुर्सी सबको बहुत प्यारी है। बहुत कम में इतना साहस होता है। इस्तीफा देकर आने का साहस नहीं है किसी में। तीन महीने के एक्सटेंशन के लिए तो ऐड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं। हां, यह बात सही है कि नए ब्यूरोक्रेट्स सुनते हैं मेरी बात को। उनमें से बहुत लोग मेरे साथ हैं। जो रिटायर हो गए हैं वे अब साथ आ रहे हैं लेकिन मेरा उनसे सवाल यह होता है कि उन्होंने यह काम खुद से पहले क्यों नहीं शुरू किया।
=(साथ में जितेन्द्र शुक्ला/राघवेन्द्र प्रताप सिंह)