ज्ञान भंडार

अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते कदम

जीसैट-6’ और ‘एस्ट्रोसैट’ उपग्रहों की सफल स्थापना

इस सफल उड़ान ने उस अमेरिका का भी दर्प दमन कर दिया है जिसने भारत-रूसी ‘क्रायो डील’ को खारिज करा देने में कोई कोर कसर न छोड़ी थी। यह उपक्रम उसी चुनौती का माकूल जवाब भी है, लेकिन वक्त का मिजाज तो देखिए, वही अमेरिका अब हमारा सहभागी बनने जा रहा है।

Captureअंतरिक्ष संधानकर्ता देश का सपना होता है कि वह 36,000 किमी. की ऊंचाई वाली भू-स्थिर/भू-समकालिक (जीएसओ) कक्षा में उपग्रह को स्थापित कर सकने की क्षमता प्राप्त कर ले। भारतीय रॉकेट जीएसएलवी मार्क -2की 27 अगस्त 2015 की सफल उड़ान (मिशन जीएसएलवी-डी 6) से यह उपलब्धि अर्जित करके भारत भी उन पांच राष्ट्रों-अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और जापान के विशिष्ट क्लब में शामिल हो चुका है जो जीएसओ (जियो स्टेशनरी आर्बिट) में उपग्रह स्थापित करने में सक्षम हैं।
ढाई-तीन हजार किग्रा या इससे भी वजनी उपग्रहों की स्थापना के लिए प्रयुक्त रॉकेटों के ऊपरी चरण में क्रायोजेनिक इंजन संलग्न किया जाता है और भारत ने भी इसमें महारत हासिल कर ली है। इसरो के वैज्ञानिकों की प्राय: दो दशकों की तपोनिष्ठा के उपरांत भारत को यह उपलब्धि हासिल हुई है। सद्य: उड़ान स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन संलग्न जीएसएलवी-मार्क-2की लगातार दूसरी सफल उड़ान है। इसकी भार वाहन क्षमता 2.5 टन है। इस सफलता की भी एक कहानी है। 1991 में ही इसरो ने रूसी अंतरिक्ष संगठन ग्लाव कास्मॉस (अब रास कास्मॉस) से क्रायोजेनिक इंजन और उसके तकनीकी ज्ञान (टेक्निकल नो हाऊ) के हस्तांतरण का समझौता किया था। तब रूसी महासंघ विघटन के कगार पर था और अमेरिकी दबाव में उसने न तो क्रायोजेनिक इंजन दिया और न ही उसका तकनीकी ज्ञान। अमेरिका का तर्क था कि क्रायोजेनिक इंजनों का इस्तेमाल भारत प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी में कर सकता है जो नितांत अवैज्ञानिक अवधारणा थी। जीएसएलवी राकेट के सबसे ऊपरी चरण (तीसरे) में अत्यंत निम्न तापीय क्रायोजेनिक प्रयुक्त किए जाते हैं जिनमें ईंधन के रूप में द्रव हाइड्रोजन (.253 डिग्री.सेल्सियस) और आक्सीकारी के रूप में द्रव आक्सीजन (.183 डिग्री. सेल्सियस) प्रयुक्त किये जाते हैं। ऐसे निम्न तापीय इंजन तो प्रक्षेपास्त्रों में प्रयुक्त ही नहीं किए जा सकते हैं।
चूंकि अनुबंध पत्र पर हस्ताक्षर हो चुके थे, अत: इंजनों की आपूर्ति तो करनी ही थी। तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति बोरिस यल्तसिन ने बीच का एक रास्ता निकाला। उन्होंने क्रायोजेनिक इंजन का तकनीकी ज्ञान तो देने से मना कर दिया, लेकिन 6 इंजनों के साथ एक और अतिरिक्त इंजन की आपूर्ति कर दी जिसमें से हम 6 इंजनों का इस्तेमाल कर चुके हैं। इनमें से मात्र तीन उड़ानें ही सफल रही हैं। ये उड़ानें जीएसएलवी ‘मार्क-1श्रेणी की थीं जिनकी भार वहन क्षमता 1.8 टन है। बहरहाल, जब रूस ने ऐसी बाधा उत्पन्न की तो उसी समय भारत सरकार ने महेन्द्रगिरि, तमिलनाडु में द्रव प्रणोदन प्रणाली केंद्र (एलपीएससी) की स्थापना की जहां पर स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के विकास की प्रक्रिया आरंभ हुई और अब 20 वर्षों के बाद भारत को इसमें कामयाबी हासिल हुई है जो बहुत बड़ी उपलब्धि है।
अच्छी-खासी तैयारी के साथ जीएसएलवी की छठीं उड़ान में पहली बार स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया। 15 अप्रैल, 2010 को जीएसएलवी-डी 3 ने सायं 4.27 बजे श्री हरिकोटा से उड़ान भरी। प्रक्षेपण के 293 सेकंड तक (दूसरे खंड के प्रज्ज्वलन तक) रॉकेट की दिशा और पथ एकदम ठीक था, लेकिन इसी के बाद यान पथभ्रष्ट हो गया। अपने पथ से विचलित होते ही रॉकेट 2000 किग्रा. वजनी उपग्रह ‘जीसैट-4’ के साथ बंगाल की खाड़ी में जा समाया और हमारी आशाओं पर तुषारापात हो गया।
खासी मशक्कत के बाद तकनीकी बाधा पार कर ली गई। स्वदेशी क्रायोजनिक संलग्न जीएसएलवी की अगली उड़ान कामयाब रही। इसरो के लिए जीएसएलवी यान की तकनीकी परिपक्वता सबसे बड़ी चुनौती थी और उसका यही आसन्न संकट भी था। खुशी की बात है कि अब इसरो ने वह बाधा पार कर ली है। स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन संलग्न राकेट की अगली उड़ान (जीएसएलवी-डी-5) की आयोजना हमने पहले 19 अगस्त, 2013 को थी, लेकिन लिफ्ट ऑफ के 75 मिनट पूर्व ज्ञात हुआ कि इसके दूसरे चरण के प्रणोद टैंक से द्रव ईंधन का रिसाव होने लगा जो रॉकेट के प्रथम चरण और उससे संलग्न चारों बूस्टरों को गीला कर चुका था, फलस्वरूप उड़ान स्थगित कर दी गई।
विश्लेषण करने पर ज्ञात हुआ कि तकनीकी बाधा रॉकेट के दूसरे चरण के प्रणोद टैंक को लेकर उत्पन्न हुई थी जो एल्यूमूनियम की मिश्रधातु ‘एफ्नार 7020’ निर्मित थी जिसमें ऐन वक्त पर रिसाव आरंभ हो गया और द्रव ईंधन यान पर बहने लगा। फिर इसरो के वैज्ञानिकों ने एल्यूमूनियम की दूसरी मिश्र धातु 2219 प्रयुक्त की और गतिरोध समाप्त हो गया। इस बार रॉकेट के पहले और दूसरे चरणों को बदल दिया गया और पहले चरण के साथ संलग्न बूस्टरों की मरम्मत की गई क्योंकि वे गीले हो चुके थे। इनमें इस बार नए इलेक्ट्रानिक कलपुर्जे लगाए गए और लीजिए ‘इसरो’ ने खासी मशक्कत के बाद छू लिया बुलंदियों का एक नया आसमान।
सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से जीएसएलवी-डी 5 ने 5 जनवरी, 2014 को सायं 4.18 बजे उड़ान (आठवीं) भरी। लिफ्ट आफ के 5 मिनट बाद स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन में प्रज्ज्वलन आरंभ हुआ और इसने 720 सेकंड तक प्रज्वलित रहकर 1982 किग्रा. वजनी भारत के संचार उपग्रह ‘जीसैट-14’ को 36,000 किमी. की ऊंचाई वाली भू-स्थिर कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया। इसरो के इंजीनियरों की मेहनत रंग लाई और इस प्रकार इसरो की चुनौतियों और आशंकाओं पर विराम लग गया। जीएसएलवी की ताजी नौंवीं उड़ान ( मिशन जीएसएलवी-डी6) 27 अगस्त, 2015 को श्रीहरिकोटा से संपन्न हुई। राकेट ने सायं 4.52 बजे उड़ान भरी और लिफ्ट ऑफ के17 मिनट बाद इस पर सवार 2117 क्रिगा. वजनी हमारे नवीनतम संचार उपग्रह ‘जीसैट-6’ को भूस्थिर अंतरण कक्षा में स्थापित कर दिया। शीघ्र ही इसका कक्षोन्नयन कर इसे भू-स्थिर कक्षा (36000 किमी.) में पहुंचा दिया जाएगा। उपग्रह की कार्यकारी अवधि नौ वर्ष आकलित की गई है। ‘जीसैट.6’ इसरो द्वारा निर्मित 25वां संचार उपग्रह है और ‘जीसैट’ शृंखला में 12वां उपग्रह है। जीएसएलवी मार्क-2 की लगातार दूसरी सफल उड़ान ने सिद्ध कर दिया है अब भारत ने भी क्रायोजेनिक तकनीक में दक्षता अर्जित कर ली है। अब हम अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हैं। हमारा अंतरिक्ष बजट भी काफी कम हो गया है। जितनी प्रक्षेपण राशि हम फ्रैंचराकेट एरियन के लिए देते थे वह राशि अब घटकर मात्र एक तिहाई रह गई है।
इस सफल उड़ान ने उस अमेरिका का भी दर्प दमन कर दिया है जिसने भारत-रूसी ‘क्रायो डील’ को खारिज करा देने में कोई कोर कसर न छोड़ी थी। यह उपक्रम उसी चुनौती का माकूल जवाब भी है, लेकिन वक्त का मिजाज तो देखिए, वही अमेरिका अब हमारा सहभागी बनने जा रहा है। ‘निसार’ (नासा इसरो सार मिशन) नासा और इसरो का संयुक्त मिशन है जो 2020-21 तक वजूद में आएगा। इस मिशन में जीएसएलवी मार्क-2 राकेट प्रयुक्त किए जाएंगे जिससे वैश्विक पर्यावरणीय परिवर्तनों और आसन्न खतरों का अध्ययन संभव होगा।

जीएसएलवी मार्क.-2 की लगातार दूसरी सफल उड़ान ने सिद्ध कर दिया है अब भारत ने भी क्रायोजेनिक तकनीक में दक्षता अर्जित कर ली है। अब हम अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हैं। हमारा अंतरिक्ष बजट भी काफी कम हो गया है। जितनी प्रक्षेपण राशि (500 करोड़ रुपये) हम फ्रेंच राकेट एरियन के लिए देते थे वह राशि अब घटकर मात्र एक तिहाई रह गई है।

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