अब पहले जैसे नहीं रहे रिश्ते
मातोश्री में घटता भाजपा नेताओं का सम्मान
सुधीर जोशी
मुंबई ही नहीं समूचे महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना का नाम कभी अलग अलग नहीं लिया जाता था, लेकिन अब दौर बदल गया है। दौर बदलते ही रिश्ते भी बदल गए हैं। अब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के आवास मातोश्री (जो कभी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की दमदार आवाज का प्रतीक था) में भाजपा नेताओं का सम्मान लगातार कम होता जा रहा है। पहले हर महत्वपूर्ण फैसले के समय शिवसेना तथा भाजपा के नेता सामूहिक बैठकें किया करते थे, अब तो शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने कुछ विधायकों के साथ बैठकर निर्णय लेते हैं। महत्वपूर्ण फैसला लेने से पहले उद्धव ठाकरे भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से शायद ही विचार-विमर्श करते होंगे। शिवसेना की बदली फिजा को देखकर ही पिछले दिनों शिवसेना के वरिष्ठ नेता तथा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मनोहर जोशी को यहां तक कहना पड़ा था कि शिवसेना को नसीहत देना अपना अपमान करा लेने की तरह ही है। जिस मनोहर जोशी को शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे बहुत सम्मान देते थे, उसी मनोहर जोशी को उद्धव ठाकरे की सभा में मंच पर उतार दिया गया था। शिवसेना में आया यह बदलाव भले ही शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नज़रिए से शिवसेना के भविष्य के लिए अच्छा नजर आता हो लेकिन सच्चाई तो यही है कि मुंबई मनपा समेत सभी उन महानगरपालिकाओं में जहां चुनाव हुए हैं, वहां भाजपा का जनाधार बढ़ा है। मुंबई मनपा में शिवसेना के लिए महापौर समेत सभी महत्वपूर्ण पद छोड़ देने के बावजूद शिवसेना प्रमुख का आक्रामक रवैय्या यही बता रहा है कि गठबंधन टूटने के बाद भी शिवसेना प्रमुख शांत नहीं बैठे हैं। राज्य विधानसभा के बजट सत्र में किसानों की कर्जमाफी के मुद्दे पर जिस तरह से शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अपने विधायकों तथा मंत्रियों से कहा कि वे आक्रामकता न छोड़े, इससे यह स्पष्ट हो गया कि मातोश्री भाजपा पर अपना दबाब बनाए रखना चाहती है।
शिवसेना के इस रुख को भाजपा के खेमें में पसंद नहीं किया जा रहा है। भाजपा तथा शिवसेना के रिश्तों में कड़वाहट दूर हो तथा वे पारदर्शक हों, इस मुद्दे को लेकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे तथा शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को खुद होकर सामने आना होगा। फडणवीस तथा ठाकरे इन दोनों को अपनी अपनी पार्टी के चार पांच मंत्रियों को लेकर पारदर्शकता पर चर्चा करनी चाहिए। चर्चा के दौरान उन सभी विषयों पर बातचीत हो, जिसे लेकर भविष्य में टकराव होने की आशंका है। इन टकराव को कैसे खत्म किया जाए इस बारे में सभी की राय लेकर कोई ऐसी रणनीति बने कि दोनों दलों के बीच की खटास पूरी तरह से समाप्त हो जाए। हालांकि इन दिनों भाजपा शिवसेना के बीच कटुता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि उसे खत्म करना आसान काम नहीं है। जब तक बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेय की विचारधारा दोनों दलों की ओर अपनायी नहीं जाती तब तक कटुता कम नहीं होगी। भाजपा ने जिस तरह से शिवसेना का मन रखने के लिए महापौर समेत सभी प्रमुख पदों पर अपना एक भी उम्मीदवार नहीं उतारा, यही बता रहा है कि शिवसेना के मुकाबले भाजपा काफी सरस है। शिवसेना के कुछ स्वार्थी नेताओं का कहना है कि शिवसेना का विस्तार करने के लिए भाजपा को किसी भी पद पर आसीन नहीं होने देना है, लेकिन इस तरह की मानसिकता से शिवसेना क्या वास्तविक रूप से प्रगति कर पाएगी, यही सबसे बड़ा सवाल है। अपनी प्रगति के लिए दूसरे का रास्ता बंद करना ठीक नहीं है। भाजपा नेताओं को इस बात का दुख है कि शिवसेना के विधायक तथा मंत्री राज्य विधानसभा के बजट अधिवेशन में बिना कारण तनाव पैदा कर विपक्ष की तरह की भूमिका ही निभाई। दूसरे के अधिकार को छीनने के कारण शिवसेना के प्रति राज्य के लोगों में यह भाव उमड़ा है कि शिवसेना को सिर्फ सत्ता की चाहत है। भाजपा ने यह उम्मीद जतायी थी कि शिवसेना को मनपा के सभी प्रमुख पद देने के बाद शिवसेना शांत बैठ जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बजट सत्र में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अपने विधायकों से जिस तरह से कहा कि वे आक्रामकता बनाए रखें तभी यह स्पष्ट हो गया कि शिवसेना भाजपा के प्रति उग्रता नहीं छोड़ना चाहती। राज्य में देवेंद्र फडणवीस की सरकार सत्तारुढ़ हुए 2.5 साल से ज्यादा समय हो चुका है, लेकिन 2.5 साल के कार्यकाल में एक दिन भी ऐसा नहीं लगा कि दोनों दलों में निकटता हो।
भाजपा नेता प्रमोद महाजन तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की अगुवाई में शिवसेना-भाजपा के बीच गठबंधन के दौर में भाजपा के हर नेता के लिए मातोश्री में विशेष आदर था। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भले ही भाजपा से गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर दिया हो लेकिन भाजपा नेता चाहते हैं कि शिवसेना के साथ उसके रिश्ते अच्छे हो जाएं। भाजपा नेताओं का मानना है कि केवल सत्ता के लिए रिश्तेदारी के स्थान पर हिंदुत्व की रक्षा के लिए दोनों दलों के बीच अच्छे संबंध होने चाहिए। मुंबई मनपा पर एकछत्र राज्य पाने के बावजूद शिवसेना भाजपा से आखिर क्या चाहती है। मुंबई मनपा पर सत्ता स्थापित करते समय शिवसेना खुद को मुंबई मनपा का सबसे बड़ा राजनीतिक दल मानती है लेकिन जब विधानसभा में सत्ता की बात आती है तब वह खुद को भाजपा से कहीं कम नहीं मानती, बस यही दोनों दलों के बीच दरार का मुख्य कारण है। मुंबई मनपा में सत्ता पाकर इठलाने के मातोश्री के साहब को इस बात का मंथन करना चाहिए कि भाजपा के नेताओं से मातोश्री में बैठकों का दौर शुरु किया जाए। समान विचारधारा के बल पर दोनों दल एक साथ आए थे और महज सीटों के बंटवारे को लेकर दोनों दलों के नेताओं में इतना टकराव बढ़ गया कि दोनों एक साथ बैठना क्या बोलना भी नहीं चाहते। मातोश्री में भाजपा नेताओं के प्रति सम्मान पाने वाले चंद नेताओं में केंद्रीय गृह मंत्री नितीन गडकरी, वित्त मंत्री सुधीर मुनगंटीवार, राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, शिक्षा मंत्री विनोद तावड़े का समावेश है, पर ये नेता भी बदले हुए माहौल में मातोश्री में दस्तक देने से घबरा रहे हैं। वर्तमान में राज्य की सत्तारूढ़ सरकार में शामिल शिवसेना नेताओं का कहना है कि सरकार में उनको बहुत कम महत्व दिया जाता है। चूंकि देवेंद्र फडणवीस सरकार शिवसेना के समर्थन पर चल रही है, इसलिए शिवसेना की मनमानी पर पर्दा डालना मुख्यमंत्री की मजबूरी है। मुख्यमंत्री नहीं चाहते कि राज्य में मध्यावधि चुनाव हो। उन्हें इस बात का भी अंदाजा है कि शिवसेना कितना भी विरोध करे लेकिन वह सरकार ने अपना समर्थन वापस नहीं लेगी। लड़ते झगड़ते ढाई साल से ज्यादा समय बीत चुका है और शेष समय भी इसी तरह बीता लिया जाएगा। दरअसल मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस न तो शिवसेना को भाजपा से आगे देखना चाहते हैं और न ही उससे रिश्ते तोड़ना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि शिवसेना छोटे भाई की भूमिका में रहे पर शिवसेना खुद को भाजपा से पीछे ही नहीं देखना चाहती। मातोश्री के साहब की मंशा है कि राज्य में शिवसेना का मुख्यमंत्री हो लेकिन फरवरी माह में हुए मनपा चुनाव के नतीजे को देखते हुए उद्धव ठाकरे को यह सोचना होगा कि सिर्फ दो मनपाओं में सत्ता पाकर राज्य में मुख्य़मंत्री बनाने का सपना साकार नहीं हो सकता। मातोश्री में होने वाले फैसलों, बैठकों, सलाहकारों की सलाह में भाजपा की हिस्सेदारी जितनी कम होगी, दरारों का दायरा उनता नही ज्यादा बढ़ता जाएगा। मातोश्री तथा वर्षा के बीच कटुता को कम करने के लिए दोनों तरफ से प्रयास होने चाहिए और सभी गिले शिकवे भूलकर दोनों दलों को फिर एक साथ आने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि मुंबई मनपा में जिस तरह का जनादेश मिला है, उससे यह बात साफ हो गई है कि किसी भी दल में आज की तारीख में भी बहुमत पाने की क्षमता नहीं है, इसलिए कलह, टकराव, आलोचना, एक दूसरे को नीचा दिखाने की नियत को विराम नहीं दिया गया तो सत्ता दोनों के हाथ से फिसल सकती है।