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अब सोशल मीडिया पर दलितों के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने पर जेल होगी

-संजय रोकड़े

देश को आजादी मिले सत्तर सालों से अधिक समय बीत गया है लेकिन भारतीय समाज में आज भी दलितों को जलालत और अपमान की जिंदगी बसर करना पड़ रहा है। आजाद भारत में भी दलितों को जाति के नाम पर गुलामों की जिंदगी जीना पड़ रहा है। शारीरिक और मानसिक अपमान झेलना भी इस वर्ग की नियती सी बन गई है। हालाकि इस वर्ग की सामाजिक सुरक्षा के लिए भारतीय संविधान में अनेक कानून बनाए गए है लेकिन इस संविधान प्रदत्त कानूनों को अमल में लाने वाली सरकारों ने इस तरफ ध्यान नही दिया और इसी के चलते आज दलितों की ये स्थिति बनी है। हालाकि आजाद भारत में जैसे -जैसे सामाजिक और तकनीकी बदलाव होते जा रहे है वैसे-वैसे इस तबके की सुरक्षा को लेकर कानून भी बदलते और बनते जा रहे है। समाज में जब से सोश्यल मीडिय़ा का चलन बढ़ा है तब से आमजन के जीवन पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। सोश्यल मीडिय़ा की जन-जन तक पहुंच के चलते ही गौहत्या, राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्र जैसे विवादित मुद्दों ने नई बहस को जन्म दिया है। सोश्यल मीडिय़ा पर दलितों को अपमानित करने की एक सोची समझी रणनीति के तहत काम किया जा रहा है। इन षडय़ंत्रकारी नीतियों ने हाल के दिनों में अनेक बेगुनाह दलितों को जातिगत अपमान का शिकार बनाया है। जब यह माामला हद से गुजरते हुए दिखने लगा तो दिल्ली हाई कोर्ट ने  बीते दिनों इसे कानून के दायरे में लाकर दंडनीय अपराध करार दिया है। अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय के किसी व्यक्ति को अपमानित करने की मंशा से दिए गए हों तो वह दंडनीय अपराध होंगे। मतलब साफ है कि सोशल मीडिया पर दलित समुदाय के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने पर अब जेल हो जाएगी। चाहे निजी हों या सार्वजनिक।

यह टिप्पणी एक महिला की ओर से अपनी एक रिश्तेदार महिला के खिलाफ दर्ज कराई गई प्राथमिकी निरस्त करते हुए न्यायालय ने की है। न्यायमूर्ति विपिन सांघी ने फैसला सुनाते हुए कहा कि सभी के खिलाफ दिया गया कोई सामान्यीकृत बयान जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय के व्यक्ति पर लक्षित नहीं हो, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (उत्पीडऩ रोकथाम) कानून की धारा 3 (1)(7) के तहत अपराध नहीं होगा । मेरे ख्याल से इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि अभद्र पोस्ट लिखने वाले ने (सोशल मीडिया अकाउंट की) प्राइवेसी सेटिंग निजी कर रखी है या सार्वजनिक। इसके साथ ही न्यायमूर्ति सांघी ने कहा कि कानून की धारा 3(1)(7) के तहत यह जरूरी नहीं है कि अनुसूचित जनजाति समुदाय के व्यक्ति की मौजूदगी में ही जानबूझकर अपमान किया गया हो या अपमान की मंशा से धमकाया गया हो। हाई कोर्ट ने कहा कि यदि पीडि़त, जो अनुसूचित जनजाति समुदाय का व्यक्ति है, मौजूद नहीं है और उसके पीठ पीछे उसे सार्वजनिक तौर पर अपमानित करने की मंशा से टिप्पणी की गई है तो कानून लागू होगा। यह मामला एक महिला द्वारा ‘धोबी’ समुदाय के खिलाफ फेसबुक पर अभद्र टिप्पणी के चलते सामने आया था। बहरहाल देश में आज भी सामाजिक न्याय प्रदान की जमीनी हकीकत निराशाजनक है। सामाजिक न्याय प्रदान करने के मामले में आज भी हम कहां खड़े है यह यक्ष प्रश्र है। सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए कल्याण संबंधी कानून बनाए जाने और कदम उठाए जाने के सत्तर साल बाद भी यह एक सवाल है जो गणराज्य के लोग देश के नीति निर्माताओं से सवाल पूछ सकते है। भारत में जाति-पांति, छुआछूत, लैंगिक और सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों के खिलाफ कानून में अनेक दंडात्मक प्रावधान पहले से भी हैं, मगर हकीकत यह है कि आज भी बहुत सारी जगहों पर बहुत सारे लोग प्रत्यक्ष रूप से जातिगत आधार पर भेदभाव करते नजर आते हैं। जाति के आधार पर लोगों को प्रताडि़त कर उन्हें समाज की मुख्यधारा से अलग जीवन बसर करने को मजबूर किया जाता है।

जातिगत भेदभाव के चलते ही भारत विश्व में 12 वीं सबसे बड़ी असमान अर्थव्यवस्था बन कर रह गया है। यहां आज भी 45 फीसदी संपत्ति धन कुबेरों द्वारा नियंत्रित होती है। समाज का बहुसंख्य दलित-शोषित- पीडि़त आज भी जानवरों से बदतर जिंदगी जीने को मजबूर है। हाल ही में वित्तीय एजेंसी क्रेडि़ट सुइस की एक रिर्पोट सामने आई है। इसके आकड़े चौकाने वाले है। इस रिर्पोट के आकड़ों को देखे तो पाएगें कि भारत की कुल संपत्ति में से लगभग आधी संपत्ति सबसे अमीर 1 फीसदी लोगों के हाथों में है। शीर्ष 10 फीसदी के हाथों में इसका करीब 74 फीसदी हिस्सा है। इस बीच, सबसे गरीब 30 प्रतिशत लोगों के पास कुल संपत्ति का 1.4 प्रतिशत ही है। यहां सामाजिक और आर्थिक बदलावों के बावजूद जाति वर्गीकरण गहरे से पैठ बनाए हुए है। इसका असर भी अक्सर हिंसक और मानसिक प्रताडऩा देने वाला ही होता है। बतौर उदाहरण एक मामला तमिलनाडु के तिरुनेलवल्ली जिले का लेते है। जाति के नाम पर बाल मन पर क्या जुर्म ढाएं जाते है उसकी एक बानगी यहां पेश करते है। तिरुनेलवल्ली जिले के सरकारी स्कूलों में आज भी बच्चों को अपनी जातिगत पहचान बताना अनिवार्य है। इसके लिए बच्चों को अपनी जाति की पहचान जाहिर करने वाले प्रतीक धारण करने पड़ते हैं। हाथ में लाल, पीले, नीले, हरे, सफेद आदि रंगों के धागे बांध कर, माथे पर अलग-अलग रंगों के तिलक लगा कर या फिर गले में अपनी जाति के नेताओं की तस्वीरों वाले लॉकेट पहनने पडते है। इस तरह के प्रतीकों से ये पहचान की जाती है कि वे तथाकथित उच्च जाति के हैं या निम्न। हालाकि इस बात की जानकारी जिले के शिक्षा अधिकारियों को पिछले कई सालों से है लेकिन वे इस मामले में आखें मुंदे है। कुछ साल पहले जब निम्न कही जाने वाली जाति के कुछ विद्यार्थियों ने इस प्रथा का विरोध किया तो उन्हें स्कूल छोडने पर मजबूर किया गया। हालाकि जब यह मामला मीडिय़ा के माध्यम से प्रकाश में आया तो तिरुनेलवेली के जिला कलेक्टर ने पहल करते हुए शिक्षा अधिकारियों से सवाल-जवाब किया।

इसके साथ ही ये हिदायत भी दी कि हाथ में रंगीन धागे बांध कर, गले में लॉकेट और माथे पर अलग-अलग रंगों के तिलक लगा कर अपनी जाति जाहिर करने की प्रथा को जल्द ही समाप्त किया जाए , मगर उस पर अभी तक कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा सका है। हैरान करने वाला विषय तो ये है कि यहां सरकार को तनीक भी संवैधानिक मूल्यों की परवाह नहीं है। इस तरह जाति के आधार पर भेदभाव की परिपाटी को पोस कर आखिर वह बच्चों को किस तरह की शिक्षा देना चाहती है। बहरहाल इस तरह के जातिगत भेदभाव केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं है। अब तो यह सोश्यल मीडिय़ा के माध्यम से हर घर और हर वर्ग तक पहुंच गया है। बीते समय जोधपुर में एक दलित किशोर को इसलिए उसके अध्यापक ने बुरी तरह पीट दिया कि उसने सवर्ण बच्चों के लिए रखे बर्तनों में से अपने लिए खाने की थाली उठा ली। आज भी अनेक प्रदेशों के स्कूलों में दलित और सवर्ण बच्चों के लिए अलग-अलग मध्याह्न भोजन तैयार किया जा रहा है। अलग-अलग पंक्ति में बिठा कर खाना परोसा जा रहा है। आकडंों की माने तो आज भी 39 फीसदी सरकारी स्कूलों में खाने के दौरान बच्चों को अलग बैठाया जाता है। विद्यालय नैतिकता, बराबरी और आपसी भाईचारे का पाठ पढ़ाने की जगह है, अगर वहां इस तरह बच्चों को बांट कर देखा और व्यवहार सिखाया जाता है तो आखिर समरसता की नींव मजबूत करने का सपना किसके बूते देखा जा सकता है। इस तरह के मामलों में जिम्मेदारों को शिकायतें भी मिलती है लेकिन इस कान सुन उस कान से अनसुना कर दिया जाता है। खैर। जातिवाद और ऊंच-नीच के आधार पर बना भेदभाव का यह मर्ज आज से नही है। दुखद तो यह है कि जो अपमान कभी सार्वजनिक मौकों पर हुआ करता था वह अब सोश्यल मीडिय़ा के चलते पल- पल में देखने को मिलता है। अब इस सोश्यल मीडिय़ा के कारण तथाकथित नीची जाति के लोगों को प्रताडि़त करने की शिकायतें भी आए दिन मिलने लगी है। अनुसूचित जातियों पर अत्याचार रोकथाम के संबंध में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग 2010 की एक रिर्पोट के अनुसार हर 18 मिनट में किसी दलित के खिलाफ कोई न कोई अपराध होता है।

इधर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की 2012 की रिर्पोट के आकड़े बयां करते है कि इस साल 37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने को मजबूर थे जबकि 54 प्रतिशत अल्पपोषित थे। दलित घरों में जन्म लेने वाले प्रति एक हजार बच्चों में से 83 की उनके पहले जन्मदिन से पूर्व ही मौत हो गई थी। इन आकडों के इतर देश में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव का आलम यह है कि आज भी चौबीस फीसदी गांवों में दलितों के घरों में चिटिठ्यां नही भेजी जाती है। इतना ही नही, अभी भी 28 फीसदी गांवों में दलितों को पुलिस थानों में जाने से रोका जाता है। हालाकि इन सब भेदभावों के कारण ही मानव विकास सूचकांक में 188 देशों में से भारत का स्थान 130 वां है। बावजूद इसके हम है कि जातिगत भेदभाव से उपर उठना ही नही चाहते है। विचित्र स्थिति है कि जो लोग छुआछूत, जातिवाद और सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए प्रयास करते हैं, उन्हें तरह-तरह से परेशान किया जाता है। चिंतनीय तो ये भी है कि सरकारें शरारती तत्वों के खिलाफ कठोर कदम उठाने को तैयार ही नही है। क्या दलितों को सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय दिलाने की जिम्मेदारी सरकारों की नही है। गैर बराबरी और भेदभाव रहित शिक्षा का समान अवसर प्रदान करवाने का सरोकार सरकारों का नही है। छिपी बात नहीं है कि जब से जाति के आधार पर राजनीतिक समीकरण बनाए और प्रचारित किए जाने लगे हैं, तब से समाज में जातिवाद की जडें और गहरी हुई हैं। राजनीतिक दलों ने समाज को जातियों के आधार पर बांट दिया है। हर राजनीतिक दल किसी न किसी जाति और समुदाय की रहनुमाई का बढ़-चढ़ कर दावा करता है। ऐसे में सरकारों से तो जातिवाद मिटाने की उम्मीद धुंधली होती गई है। अब दलितों की सामाजिक समानता व बेहतरी के लिए जो भी बदलाव होगें वह न्यायपालिका ही कर सकती है। इसका ताजा उदाहरण सोशल मीडिया पर दलित समुदाय के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने पर अब जेल होगी।

(लेखक मीडिय़ा रिलेशन पत्रिका का संपादन करने के साथ ही सम-सामयिक विषयों पर कलम चलाते है।)

 

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