दस्तक-विशेषसाहित्य

अब हाशिये पर नहीं है व्यंग्य विधा

 डॉ.सुमन सिंह
प्रो. हरीश नवल का नाम व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में अपरिचित नहीं है। ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय के साथ की व्यंग्यत्रयी को सशक्त बनाने वाले इस व्यंग्यकार ने जीवन को भरपूर ऊर्जा और सृजनात्मकता से जिया है। कैंसर जैसी बीमारी को परे धकेल जीवन -पथ पर निरंतर आगे बढ़ते, अदम्य जीवनी शक्ति से भरे, अपनी समर्थ लेखनी से नित नवीन कृति सिरजते हरीश जी के जीवन के अन्य विविध पक्षों से पाठकों को परिचित कराने का लघु प्रयास भर है, दस्तक की साहित्य संपादक डॉ. सुमन सिंह से उनकी यह बातचीत )

आपके व्यक्तित्व निर्माण में आपके परिवेश व परवरिश की क्या भूमिका रही?
मेरा पारिवेश साहित्यिक था। दादा जी पं. त्रिलोकनाथ आज़म उर्दू के शायर थे…सूफ़ी शायर। पिता हरिकृष्ण नवल अंग्रेज़ी के लेखक, पत्रकार और माँ महेश्वरी देवी हिंदी से रत्न और भूषण पढ़ी हुई थीं। बचपन में ही मुझे और मेरे बड़े भाई हरेंद्र जी को दादा जी ने पुस्तकालय जाने की आदत डाल दी थी। हम दोनों छुट्टियों में पुस्तकालय खुलते ही पहुँच जाते और बंद होने पर ही लौटते। यह घर के एकदम समीप हरिश्चन्द्र लाइब्रेरी थी जिसकी सुबह की शिफ्ट सात बजे से दस बजे तक चलती थी…..।
कब पता चला कि मन में कहीं गहरे रचनात्मकता के बीज छुपे हुए हैं?
बचपन में ही। परिवार के सदस्यों से रात में सोने से पूर्व कहता कि ‘मेरी कहानी सुनो’ और सुनाता….मैं विषय की माँग करता और उनके दिए विषय पर तुरंत कल्पना कर के कहानी बनाकर सुनाता। सब उत्साह बढ़ाते। दादा जी अक्सर कहते थे कि ‘हरीश बड़ा होकर लेखक बनेगा।
आपको कब लगा कि दादा जी का कहा सही मायने में मूर्त हो रहा है?
सुमन जी, मैंने लिखना बहुत छोटी आयु में आरम्भ किया। नवमी कक्षा में था, मेरे लेख देहरादून की पत्रिका ‘सर्वहितकारी’ में प्रकाशित होने लगे.., यह सन 1962 का समय था। 1963-64 में दिल्ली की पत्रिका ‘नीलम’ में मेरा पत्रात्मक लेख छपा। 1964 में मैंने व्यंग्य लिखा ‘मिस्टर कमेंट्रीदास ‘ जो 1965 में आगरा की हास्य-व्यंग्य पत्रिका (नोक-झोंक) में प्रकाशित हुआ और मुझे पारिश्रमिक भी मिला। इसी दौरान मुझे लगने लगा था कि दादा जी की बात सच हो रही है। उस समय मैं बी. ए. ऑनर्स प्रथम वर्ष का छात्र था।
जब आपको पहला पारिश्रमिक मिला तब कैसा अनुभव हुआ था?
मुझे लगा कि मैं कमाऊ पूत हो गया हूँ। मेरे पिता का देहांत 32 वर्ष की अल्पायु में हो गया था, तब मैं महज पांच वर्ष का था। मुझे लगा अब मैं मां के लिए अपने अर्जित पैसे से कुछ ला सकूँगा।
पारिश्रमिक राशि कितनी थी, क्या किया उसका आपने?
पंद्रह रुपए का मनी ऑर्डर आया था। आठ आने पोस्टमैन को दिए थे। माँ को पतीसा मिठाई अच्छी लगती थी, लाया और वे ‘पपीहा ‘ नामक उपन्यास पढ़ना चाहती थीं वह भी ख़रीद लाया और बाक़ी पैसे उन्हें देकर ढेरों आशीर्वाद पाए।
बिना मुखिया वाला घर कैसे सम्हला, क्या आपके भीतर का बच्चा असमय बड़ा हो गया था?
बिना मुखिया का घर नहीं था। दादा-दादी, चाचा जी सभी थे लेकिन पिता के अल्पायु देहावसान और माँ का 27 साल की छोटी आयु में वैधव्य सालता था। मुझसे दो साल बड़े भाई हरेंद्र जी और तीन साल छोटी बहन हिमांशु बाला थीं जिनकी जि़म्मेदारी महसूस करने लगा था। माँ सारा दिन खटती थीं। दादी बेटे को खोने से दुखी थीं और माँ को ताने देती रहती थीं। ऐसी परिस्थितियां किसी भी बच्चे का बालपन छीन दायित्वबोध से भर देतीं हैं।
नियमित और गंभीर साहित्य-सृजन कब शुरू हुआ?
नियमित और गम्भीर साहित्य सृजन एम.ए. कर रहे थे तब से शुरू हुआ। ‘मित्रत्रयी’ नाम से हम तीन मित्र साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, विग्रह आदि पत्रिकाओं में छपने लगे। साथ ही साथ हम तीनों अपनी-अपनी विधाओं में अपने-अपने नाम से भी लिखते रहे।हम में से राकेश जैन (सिंधुराज) ने जल्द लेखन छोड़ दिया। सुरेश ऋतुपर्ण एक कवि के रूप में और मैं व्यंग्यकार के रूप में उभरने लगे। कह सकते हैं कि 1975 से, जब मुझे प्राध्यापक नियुक्त हुए चार वर्ष हो चुके थे। लेखन के क्षेत्र में प्रतिष्ठा मिलने लगी थी। मैं धर्मयुग, सारिका, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि पत्रिकाओं और नवभारत टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान, जागरण, भास्कर, नवज्योति, अमर उजाला, आज आदि पत्रों में छपने लगा था।
साहित्य की किस विधा में लिखना आपको अधिक प्रिय है?
गद्य, व्यंग्य और संस्मरण लेखन प्रिय है।व्यंग्य लेखन को मैं प्रथम स्थान पर रखता हूँ।
लेखन में व्यंग्य विधा को कैसे परिभाषित करेंगे?
विधा के रूप में टिप्पणी, कथा, निबंध, रिपोर्ट, लेख किसी भी शैली में लिखा जा सकने वाला गद्य जो विसंगति, विद्रूप, पाखंड आदि का पर्दाफ़ाश करे और जिसकी परिणति करुणा में हो सके। भले ही वह कचोटे,गुदगुदाए, हँसाए, वह व्यंग्य हो सकता है। यह व्यंग्य रचना का सूचक है, वैसे व्यंग्य किसी भी विधा में हो सकता है जैसे कहानी, उपन्यास आदि।
लेखन क्षेत्र की अब तक की उपलब्धि जो आपके लिए उल्लेखनीय हो?
सबसे बड़ी उपलब्धि आत्मिक-संतोष की है। व्यंग्य ने अभिव्यक्ति दी, नाम-यश दिया। व्यंग्य ने सामाजिक दायित्वों की ओर मुखरित किया। दर्जनों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मान, पुरस्कार का भागीदार बनाया। आत्मविश्वास और आत्मविश्लेषण बख्शा ।
आप कैंसर जैसी बीमारी से जूझ रहे हैं, कब पता चला कि आपको कैंसर है?
सुमन जी, कैंसर के बारे में 2014 में पता चला। रीढ़ की हड्डी में ट्यूमर हो गया था इसलिये थोड़ी हड्डी काट कर स्टील का टुकड़ा लगाया गया। तीन सर्जरी हुई, रेडियोथेरपी का दौर चला। (हँसते हुए) अस्पताल दर्शन का सुख ख़ूब मिला। जो लेवल चार से अधिक नहीं होना चाहिए वह तीन सौ चौंसठ हो गया था। लेकिन मैं न तो निराश- हताश हुआ न ही दुखी। मेरी कैंसर से लड़ाई नहीं हुई वरन् मैंने उसका अभिनंदन किया। मेरी पत्नी स्नेह सुधा और माँ को पहले से ही पता था कि मुझे कैन्सर है, मुझे तनिक बाद में ज्ञात हुआ। हमने हिम्मत से काम लिया। विशेषकर सुधा ने तो ताल ठोक ली। मेरे सहकर्मी प्राध्यापक डॉक्टर हरेन्द्र कुमार जो मेरे शिष्य रहे थे, उन्होंने उल्लेखनीय जि़म्मेदारी का निर्वाह कर मेरी तीमारदारी में फ़ौज खड़ी कर दी। मेरे साले साहिब शशिकांत जी ने सेवा में दिन-रात एक कर दिया। सुधा जी के दूसरे भाई उनकी पत्नी बच्चों सबने कमर कस ली थी। मेरे मित्रों की शुभकामनायें, बुज़ुर्गों के आशीर्वाद और मेरे आशवादी दृष्टिकोण ने मुझे बचा लिया। मैं अक्सर देखने आने वालों को सांत्वना देता या उनके आँसू रोकने की कोशिश करता था। डॉक्टर जिन पर मैंने कविताएँ भी लिखीं थीं, मेरे पास आकर ठहाके लगाने को मजबूर हो जाते थे। थेरपिस्ट, नर्से, अन्य स्टाफ़ मेरे पास से जाना नहीं चाहते थे। विनम्रतापूर्वक कहूँगा कि उस संकट के समय में भी मैंने अपनी जीवनीशक्ति को क्षीण नहीं होने दिया।
जहाँ तक लेखन का सवाल है, मैं उन दिनों एक उपन्यास रचना के लिए शोध कर रहा था । यह उपन्यास ‘रेतीले टीले का राजहंस ‘ जैन धर्म तेरापंथ के आचार्य तुलसी की जीवनी पर आधारित है। इसमें पर्याप्त शोध करना आवश्यक था ,क्योंकि आचार्य तुलसी हाल ही के युगपुरूष थे। 1997 में उनका देहावसान हुआ था इसलिए हाल ही का इतिहास था। प्रामाणिक तथ्य जुटाने थे,उनके परिवार, कार्यस्थल, शिष्य, अनुगामी को देखना-मिलना ज़रूरी था। व्यवधान आया पर मैं बिंदु जुटाता रहा। मानसिक तैयारी चलती रही। 2015 में अस्पताल से विदा होकर, उपचार प्रक्रिया के दौरान तनिक स्वस्थ होते ही उसे पूरा किया। इस दौरान मैंने व्यंग्य संकलन’माफ़िया ज़िंदाबाद’ भी तैयार किया जो प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ ।
मतलब कैंसर जैसी बीमारीे भी आपकी जीवनी शक्ति के आगे हार गयी?
जानता नहीं सुमन जी कैन्सर हारा या नहीं पर जीवनीशक्ति जीत गयी।
इन दिनों क्या लिख रहे हैं?
इन दिनों एक व्यंग्य उपन्यास लिख रहा हूँ। साथ ही एक संस्मरणात्मक उपन्यास भी जो आधा लिखा जा चुका है। व्यंग्य आलेख , समीक्षा और संस्मरण भी यदा कदा लिखता रहता हूँ। हाँ, याद आया एक पुस्तक अभी आई है ‘कुछ व्यंग्य की कुछ व्यंग्यकारों की ‘इसमें व्यंग्य-आलोचना और कुछ व्यंग्यकारों के संस्मरण हैं।
जीवन में आपको सर्वाधिक प्रेरणा किससे मिली?
इस मामले में मैं बहुत सौभाग्यशाली हूँ सुमन जी, जीवन के हर क्षेत्र में यथोचित प्रेम और प्रेरणा पाता रहा। जहाँ तक सर्वाधिक प्रेरणा का प्रश्न है तो वह मुझे अपने स्कूल के विद्वान शिक्षक श्री धर्मभानु ‘सुकुमार’ जी से मिली। पितामह आज़म जी से बहुत सीखा। वे 94 वर्ष की आयु तक जिए, हम उनके साथ ही रहते थे। माँ का अग्निपथ प्रेरक रहा। पत्नी स्नेह सुधा से, अपने विद्यार्थियों, बच्चों से, सहयात्री मित्रों से भरपूर प्रेम, उत्साह और बल मिला।
समकालीन व्यंग्य लेखन के बारे में आपका क्या विचार है, इस विधा में कौन आपको बेहद प्रिय है?
आज व्यंग्य विधा एक लोकप्रिय विधा है। पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य अनिवार्य सा हो गया है। नए व्यंग्यकार बहुत प्रतिभा संपन्न हैं। मुझे नई पीढ़ी पर भरोसा है। बस एक बात खटकती है कि आज व्यंग्यकार खेमों में बंटे दिख रहे हैं। फे़सबुक पर आरोप-प्रत्यारोप नज़र आते हैं, जिससे मुझे तकलीफ़ होती है। अख़बार और पत्रिका में व्यंग्य लेखकों से भेदभाव किया जा रहा है। व्यंग्यकार अब व्यंग्य उपन्यास लिखने में अधिक रुचि ले रहे हैं। व्यंग्यालोचन के प्रति दिलचस्पी बढ़ रही है। सुखद यह है कि व्यंग्य शिविर और व्यंग्य यात्राएँ उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। चार पीढ़ियों के व्यंग्यकार आज एक प्लेटफार्म पर दिखाई दे रहे हैं, ये संकेत विकास के हैं। अब व्यंग्य हाशिए पर नहीं है। बस आपसी सद्भावना व्यंग्यकारों में रहे, इसी की आवश्यकता है। सबसे प्रिय व्यंग्यकार मुझे आज भी परसाई ही लगते हैं …।
भविष्य को लेकर क्या योजनाएँ हैं?
योजनाएं विशेष तो नहीं हैं। हाँ, कुछ नया करने का विचार आता रहता है। लगता है सबके साथ मैं भी आगे बढूँ। मेरे सहयात्री व्यंग्यकार बहुत प्रतिभा संपन्न हैं। उनके साथ प्रतिस्पर्धा है… स्वस्थ प्रतिस्पर्धा, वह अन्तस को आलोकित करती रहती है।

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