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अमेरिका का पेरिस जलवायु समझौते से अलग होना

_अवधेश कुमार
अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का पेरिस जलवायु समझौते से अलग होने का ऐलान पूरी दुनिया के लिए बड़े आघात जैसा है।  लंबी कवायद के बाद तो दिसंबर 2015 में 195 देशों के बीच पेरिस में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और धरती के बढ़ते तापमान को कम करने को लेकर एक सहमति बनी थी और स्वयं अमेरिका ने उसकी अगुवाई की थी। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने निजी पहल करके भारत सहित कई विकासशील देशों को संमझौते से सहमत कराया था। वह अमेरिका अगर आज समझौते से अलग हो जाता है तो फिर इसका हस्र क्या होगा बताने की आवश्यकता नहीं है। वायुमंडल जिस खतरनाक अवस्था में पहुंच गया है वहां से उसे सामान्य स्थिति में लाकर जीवमंडल को नष्ट होने के खतरे से बचाना पूरी मानवता की जिम्मेवारी है। डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिका, जिस पर इसे सफल बनाने की सबसे बड़ी जिम्मेवारी है, अगर वही इसमें नहीं रहेगा तो फिर यह संभव नहीं होगा। हालांकि, ट्रम्प ने यह नहीं बताया कि समझौते से औपचारिक रूप से अमेरिका कब और किस तरह बाहर निकलेगा। उन्होंने यह भी कहा है कि वो इस पर बातचीत जारी रखेंगे, लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि अगर समझौता को अपने अनुकूल बनाने के प्रयास में वे सफल नहीं हुए तो भी कोई दिक्कत नहीं। यही नहीं उन्होंने यह भी कहा कि वह उनकी अमेरिका फर्स्ट की जो नीति है समझौता उसके विरुद्ध जाता है। उनके अनुसार इसे स्वीकारना अमेरिका को सजा देना है क्योंकि इसके चलते 2025 तक अमेरिका में 27 लाख नौकरियां चली जाएंगी। वे इसे बराक ओबामा के आत्मसमर्पण करने का समझौता कहते हैं। ऐसा कहने के बाद वे फिर उस समझौते का हिस्सा बन जाएंगे ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है।
तो अब यह मानकर चलना होगा कि अमेरिका इस समझौते मंें नही है। इसका मतलब है कि वैश्विक तापमान कम होने की जो कोशिशें आरंभ हुईं थीं उनको झटका लगेगा। किंतु क्या वे जो कारण दे रहे हैं उन्हें स्वीकार किया जा सकता है? क्या वो तथ्यों पर खरे उतरते हैं? तो पहले हम ट्रंप द्वारा समझौते से पीछे हटने के लिए दिए गए प्रमुख कारणों पर नजर दौड़ाएं। ट्रम्प कहते हैं कि पेरिस समझौता में भारत और चीन जैसे प्रदूषित देशों के लिए कोई खास सख्ती नहीं की गई है। उनके अनुसार समझौते में भारत, चीन और यूरोप को कई सहूलियतें दी गई हैं। ट्रम्प ने भारत पर विकसित देशों से कई अरब डॉलर की मदद लेने का आरोप लगाया। वो कह रहे हैं कि पेरिस समझौते में अमेरिका के साथ भेदभाव किया गया है। चीन को कोयले के सैकड़ों प्लांट लगाने की इजाजत दी गई है। ये हम नहीं कर सकते लेकिन वे कर सकते हैं। 2020 तक भारत का कोयले का उत्पादन दोगुना हो जाएगा। इसके बारे में सोचा जाना चाहिए। यही नहीं, यूरोप को भी कोयले का प्लांट बनाने की इजाजत दी गई है। और सबसे बाद वे कह रहे हैं कि समझौते से हमारे ऊपर आर्थिक और वित्तीय बोझ पड़ेगा।
कुल मिलाकर उनके निशाने पर इस मामले में चीन के साथ भारत भी आया है। आश्चर्य की बात है कि अमेरिका का राष्ट्रपति सही तथ्यों पर बात नहीं कर रहे हैं। यह बात ठीक है कि 2015 में भारत को 3.1 अरब डॉलर (करीब 19 हजार करोड़ रु.) की मदद मिली, लेकिन इसमंें अमेरिका का हिस्सा केवल 10 करोड़  डॉलर (करीब 600 करोड़ रु.) था। भारत हर साल अमेरिका से सैन्य साजो सामान के अलावा करोड़ों डॉलर के अन्य सामान खरीदता है। जिस सहायता की वे बात कर रहे हैं वो पेरिस समझौता से पहले का है। भारत ने वैसे भी पेरिस समझौते में स्वीकार किया है कि अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए उसे विदेशी मदद नहीं चाहिए। क्या ट्रंप को यह जानकारी नहीं दी गई? दूसरे, कार्बन उत्सर्जन के जरिए प्रदूषण फैलाने के मामले में अमेरिका और चीन के मुकाबले भारत काफी पीछे हैं। जून 2016 की वर्ल्ड एनर्जी सांख्यिकी समीक्षा के मुताबिक, चीन सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला देश है जो दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन का अकेले 27.3 प्रतिशत उत्सर्जन करता है। किंतु इसके बाद अमेरिका का ही स्थान है। अमेरिका 16.4 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। और भारत?  भारत मात्र 6.6 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन करता है। इंडिया स्पेंड की मई 2015 की रिपोर्ट के अनुसार भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक स्तर का लगभग 20वां हिस्सा है जबकि दुनिया की आबादी का छठा हिस्सा भारत में रहता है। ब्रिटेन, जर्मनी, कनाडा और अमेरिका के लोग भारत के लोगों के मुकाबले 5 से 12 गुना ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि भारत को निशाने पर लेने से पहले ट्रंप को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। ट्रंप का यह कहना भी गलत है कि भारत को इस समझौते के जरिए 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की मंजूरी मिल जाएगी। पेरिस समझौते के मुताबिक भारत को फॉसिल फ्यूल यानी जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता साल 2005 की तुलना में साल 2030 में 30-35 प्रतिशत तक कम करनी होगी। भारत एक समय अपनी कुल बिजली का 75 प्रतिशत उत्पादन कोयले से करता था, जो घटकर अगस्त 2016 तक 61 प्रतिशत हो चुका है। भारत धीरे-धीरे नाभिकीय उर्जा, सौर उर्जा, वायु उर्जा आदि की ओर बढ़ रहा है। ट्रंप के विचारों के विपरीत भारत अपनी वैश्विक जिम्मेदारियों को निभाने में हमेशा से आगे रहा है।
कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि डोनाल्ड ट्रपं गलत तथ्यों के आधार पर समझौते को ठुकरा रहे हैं। चुनाव के दौरान भी उन्होंने इस समझौते की आलोचना की थी, लेकिन तब उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया था। वास्तव में किसी ने सोचा नहीं था कि अमेरिका में कोई नया प्रशासन पूर्व प्रशासन द्वारा किए गए अपने वैश्विक समझौते और वायदे से मुकरने की सीमा तक जाएगा। ट्रंप के इस कदम के बाद बराक ओबामा को भी उनके विरोध में खुलकर सामने आना पड़ा है। ओबामा ंने एक बयान जारी करं ट्रंप की आलोचना करते हुए कहा है कि समझौते का पालन न कर अमेरिका आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को खराब करेगा। यह एक प्रकार से भावी खतरे के प्रति आगाह करना है। वास्तव में अगर दुनियाभर में कार्बन उत्सर्जन बढ़ता रहा तो धरती का तापमान भी बढ़ता रहेगा। इससे समुद्र का स्तर बढ़ेगा। समुद्र का स्तर बढ़ने का मतलब अनेक जगह जल प्लावन। कहीं-कहीं बाढ़ का भयावह प्रकोप होगा। कितने द्वीप डूब जाएंगे। ज्यादा तूफान आएंगे। कई देशों में भयानक सूखा पड़ेगा। कई प्रकार की बीमारियां पैदा होगी जिनका इलाज मुश्किल होगा। इन्हीं स्थितियों  से बचने के लिए दुनियाभर के देशों ने पेरिस में कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने पर सहमति व्यक्त की थी। पेरिस समझौते के पीछे उद्देश्य यह था कि हर देश, चाहे वह अमीर हो या गरीब, कार्बन उत्सर्जन कम करने के अपने लक्ष्य तय करेगा। यह तय किया गया था कि किसी भी तरह से वैश्विक औसत तापमान को 2 डिग्री से ज्यादा बढ़ने से रोका जाए। पेरिस समझौते में शामिल अमेरिका समेत सभी विकसित और विकासशील देशों के लिए यह जरूरी था कि वे हर पांच साल में अपनी योजना दें जिसमें यह बताएं कि वे किस तरह से जलवायु परिवर्तन को रोकेंगे।
इस तरह समझौते में काफी लचीलापन था। देशों को वैश्विक प्रतिबद्धता को मानते हुए भी अपने स्तरों पर काफी स्वायत्तता दी गई थी। ऐसे समझौते से अलग होना दुनिया के लिए भयावह संकेत है। जाहिर है, इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए। जर्मनी, फ्रांस तथा इटली जैसे प्रमुख यूरोपीय देशों ने ट्रपं की इसके लिए निंदा की है। किंतु इतना ही पर्याप्त नहीं है। क्या कोई रास्ता है जिससे ट्रंप को इसे स्वीकारने के लिए मजबूर किया जाए? शायद नहीं। तो फिर? क्या अमेरिका के बगैर इस समझौते को लागू करने की दिशा में विश्व समुदाय आगे बढ़ सकता है? अमेरिका अगर दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषण फैलाने वाला देश है और उसे कुछ और वायदे पूरे करने हैं तो फिर उसके बगैर धरती को प्रदूषण मुक्त करना संभव नहीं हो सकता। वैसे भी दुनिया के इस प्रमुख देश के अलग हटने के बाद समझौते की महिमा कम हो जाएगी। भारत जैसे देश, जिसने पिछले वर्ष 2 अक्टूबर को समझौते का अनुमोदन कर दिया, आगंे बढ़ेंगे लेकिन शेष सभी देश ऐसा करेंगे इसमें संदेह है। लेकिन भावी पीढ़ी को वायुमंडल के भयानक प्रकोपों से बचाना है तो पेरिस समझौते को सफल बनाना ही होगा। सवाल है कि यह होगा कैसे?

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