कर्म इच्छा प्रेरित होते हैं। हम सब के भीतर अनेक अभिलाषाएं हैं। वे कर्म के लिए प्रेरित करती हैं। हम बिना कर्म किए रह नहीं सकते। महाआलसी भी भोजन आदि तमाम कर्म करते ही हैं। वैदिक पूर्वजों ने दो तरह के कर्म बताए। पहला-प्रेय और दूसरा श्रेय। प्रेय श्रेणी में प्रिय कर्म आते हैं। वे व्यक्तिशः भिन्न भिन्न होते हैं। जो कर्म जिसे प्रिय है वही उसे प्रेय है। लेकिन श्रेय कर्मो की सूची सामाजिक विकास का परिणाम है। नदियां जल देती हैं। कृषि सहित तमाम आवश्यकताओं के लिए जल की जरूरत होती है। जल संरक्षण और प्रदूषण से रक्षा श्रेय कर्म है। वनस्पतियों का संरक्षण संवर्द्धन भी श्रेय कर्म है। प्रेय और श्रेय में टकराव के कारण अन्तर्विरोध पैदा होते हैं। सिग्रेट पीना हमारा प्रेय है, धुंवा समाज को क्षति पहुंचाता है। धुवा न फैलाना और पर्यावरण की रक्षा श्रेय है। इसके लिए संसार और प्रकृति का ज्ञान जरूरी है। उपनिषद् के ऋषियों ने ज्ञान को श्रेयस्कर सूची में डाला। स्वयं के ज्ञान के साथ प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करना सबसे श्रेय कर्म है। कठोपनिषद् की कथा में आत्मज्ञान का अभिलाषी युवा नचिकेता यम से यही प्रश्न पूछ रहा था। यम ने उसे प्रेय विषय और भोग उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया। नचिकेता आत्मज्ञान की प्राप्ति पर डटा रहा। यम ने कहा, “प्रेय और श्रेय अलग अलग है। वे भिन्न भिन्न फल देते हैं। दोनो आकर्षित करते हैं, बांधते भी हैं। इन दोनों में श्रेय ग्रहण करने वाला श्रेष्ठ होता है और प्रेय के चक्कर में फंसने वाला हीन।” (वही 1.2.1) गीता प्रेस गोरखपुर के भाष्य में “श्रेय को आनंद स्वरूप परब्रह्म पुरूषोत्तम की प्राप्ति का उपाय बताया गया है। लेकिन मूल मंत्र में श्रेय श्रेष्ठ कर्म हैं।
आनंद की प्यास प्राकृतिक है। यह श्रेय भी है। उसे प्राप्त करने की इच्छा के प्रयत्न श्रेयस्कर हैं। संसार और व्यक्ति के बीच प्रेमपूर्ण सम्बंधों का विस्तार आनंद है। लोकमंगल से जुड़े सारे कर्म श्रेय हैं। यम ने नचिकेता को सही बताया कि “श्रेय और प्रेय दोनो ही मनुष्य के सामने आते जाते हैं। बुद्धिमान लोग दोनो पर अलग अलग विचार करके जान लेते हैं सम्परीत्य विविभक्ति धीरः। विद्वान श्रेय को प्रेय की तुलना में श्रेष्ठ जानकर स्वीकार करते हैं। मंदबुद्धि वाले योगक्षेम के लिए दोनो के साधनरूप प्रेय का वरण करते हैं।” (वही 1.2.2) भोगों के साधन रूप प्रेय लोकमंगल के साधन रूप श्रेय की तुलना में निस्संदेह हेय हैं लेकिन योगक्षेम जीवन निर्वहन के साधन प्रेय होकर भी त्याज्य नहीं है। वे भले ही आत्मज्ञान से पृथक हैं लेकिन आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए भी जीवन निर्वाह के साधन अनिवार्य हैं। उपनिषद्कार का जोर आत्मज्ञान पर है। संभवतः इसीलिए उसने योगक्षेम को भी प्रेय सूची में डाला है। बेशक वे प्रेय हैं लेकिन हेय नहीं हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगक्षेमं वहाम्यहम – जीवन निर्वहन का आश्वासन दिया था। आत्मज्ञान श्रेयस्कर है, परम श्रेय है। योगक्षेम प्रेय है लेकिन अपरिहार्य है।
उत्तरवैदिक काल में व्यक्तिगत सम्पत्ति का विकास हो चुका था। इसलिए संपदा को लेकर तमाम अन्तर्विरोध थे। उपनिषद् साहित्य में इसकी अनुगूंज है। कठोपनिषद् की ज्ञान कथा का नायक नचिकेता भी पिता द्वारा बूढ़ी गायों के दान पर क्षुब्ध है। उपयोगी संपदा का संरक्षण और व्यर्थ संपदा बनी बूढ़ी गायों का त्याग यही सूचना देता है। आदर्श जीवन मूल्यों पर संपदा का श्रेय सिद्धांत लागू हो रहा है। इसीलिए उपनिषद् का वक्ता ऋषि ज्ञान को श्रेय और भौतिक संपदा को हेय बताते हैं। यम ने नचिकेता से यही बात कही, “नचिकेता तुमने प्रिय रूपवान, प्रिय लगने वाले सभी भोगों को ठीक से सोचकर त्याग दिया है। तुम वित्त संपदारूप बेड़ी में नहीं फंसे। इसमें बहुत मनुष्य फंस जाते हैं। (वही 1.2.3) अंतिम वाक्य ध्यान देने योग्य है – यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः। यहां वित्त संपदा की बेड़ी में फसने वाले अल्पसंख्यक नहीं हैं, बहुत सारे मनुष्य हैं। वित्त का प्रभाव बहुव्यापी है। उपनिषद् का ऋषि वित्त के प्रभाव को गलत बताने का सामाजिक दायित्व निर्वहन कर रहा है। संपदा का प्रभाव आधुनिक काल में और भी ज्यादा बढ़ा है। जीवन मूल्य टूट रहे हैं। परिवार बिखर रहे हैं।
अर्थ का प्रभाव जीवनमूल्यों पर घातक है। जीवन की गुणवत्ता लोकमंगल दृष्टिकोण में है। संप्रति यश और प्रतिष्ठा का मानक वित्त संपदा है। नए उपनिषद् उगे नहीं। प्राचीन उपनिषदों का आधुनिक दृष्टिकोण से पुनर्पाठ ही विकल्प है। यम ने नचिकेता से कहा, “विद्या और अविद्या दोनो विख्यात हैं। यह दोनो विपरीत और भिन्न-भिन्न फल देती हैं। नचिकेता तुम विद्या के अभिलाषी हो।तुम सामान्य कामनाओं के लोभ में नहीं फंसे।” (वही 4) उपनिषद् दर्शन में ‘विद्या और अविद्या’ की खासी चर्चा है। यहां अविद्या का अर्थ अज्ञान या मूर्खता नहीं है। उपनिषदों में सांसारिक ज्ञान को अविद्या कहा गया है। इस तरह सारे भौतिक विज्ञान, अर्थशास्त्र समाज विज्ञान आदि अविद्या हैं। ऐसे ज्ञान मनुष्य चेतना के मुक्त होने में बाधा हैं। लेकिन विद्या मुक्त कतरी है – स विद्या या विमुक्तए। पहली उपनिषद् ईशावास्य0 में भी विद्या व अविद्या है। यहां दोनो की साधना पर जोर दिया गया है। बताया गया है कि अविद्या के जानकार मृत्यु पार कतरे हैं और विद्या के उपासक अमृत पाते हैं। (ईशावास्य0-11) लेकिन कठोपनिषद् में नचिकेता को विद्या प्रेमी और अविद्या से दूर रहने वाला कहा गया है। यम ने कहा, “अविद्या से प्रभावित लोग स्वयं को बुद्धिमान और ज्ञानी समझते हैं। वे मूर्ख लोग उस अंधे जैसे होते हैं जिसे अंधा ही राह दिखाता है। वे लक्ष्य तक कभी नहीं पहुंचते।” (कठोपनिषद् 1.2.5)
अविद्या या सांसारिक ज्ञान व्यर्थ नहीं होता। वह भले ही मुक्ति नहीं देता लेकिन अभ्यास और अध्ययन से ऐसी समझदारी के प्रति व्यर्थता का अनुभव कराता है। संसार व्यर्थ नहीं है। विद्या का मार्ग भी इसी संसार यात्रा से प्रारम्भ होता है। लेकिन ऊपर वाला मंत्र ज्यों का त्यों मुण्डकोपनिषद् में भी आया है। यह ईशावास्योपनिषद् की स्थापना से भिन्न है। यम “अविद्यारत लोगों को वित्तमोह से ग्रस्त बताते हैं। ज्ञान या विद्या से प्रमाद रखने वाले ऐसे लोगों को प्रत्यक्ष जगत् के अलावा अन्य लोक नहीं समझ में आते। ऐसे लोग मानते हैं कि यह प्रत्यक्ष लोक ही सही है इसके अलावा कुछ भी नहीं है। इस प्रकार सोचने वाले अभिमानी बार-बार मेरे (यम) वश में आते हैं।” (वही 6) प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होती। अप्रत्यक्ष पर संदेह अस्वाभाविक नहीं होता। संदेह भी ज्ञान यात्रा का उपकरण है। अप्रत्यक्ष परलोक को न मानना एक निष्कर्ष हो सकता है लेकिन शीघ्रता में निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होता। प्रत्यक्ष सामने है। वही स्वयं प्रमाण है। उसे सही मानना उचित है। उपनिषद् काल में यथार्थवादी दर्शन की धारा वाले लोग परलोक नहीं मानते थे। यहां यम ने उन्हें खासी धमकी दी है। लेकिन बिना जाने ही मानना कोई सुंदर बात नहीं हो सकती।
ज्ञान सर्वसुलभ है लेकिन इसकी प्राप्ति और अनुभूति विरल है। उपनिषद् साहित्य में आत्मतत्व को गूढ़ और रहस्यपूर्ण बताया गया है। पदार्थज्ञान हस्तांतरणीय है। वह प्रयोग सिद्धि द्वारा प्रत्यक्ष है। अनुभूति वैयक्तिक होती है। उसे दोहराना या प्रवचन से समझाना कठिन होता है। उपनिषद्काल में भी आत्मतत्व सार्वजनिक बोध का विषय नहीं था। इकाई के भीतर अनंत का बोध संभव है लेकिन उसका पुनर्कथन कठिन। समस्या दोतरफा है। वक्ता शब्दों द्वारा ही अनंत की व्याख्या को विवश है। भाषा से ज्ञान देने की सीमा है। श्रोता की अपनी समस्या है। वक्ता और श्रोता के बौद्धिक तल एक नहीं होते। यम ने नचिकेता से कहा, “बहुत सारे लोगों को यह ज्ञान सुनने को नहीं मिलता। बहुत से लोग सुनकर भी नहीं समझ पाते। इस ज्ञान का कुशल वक्ता आश्चर्यजनक होता है। तत्व उपलब्ध कुशल ज्ञानी और वक्ता आश्चर्यमय है।” (वही 7) इस मंत्र में ‘आश्चर्य’ शब्द दोबार आया है। सुस्पष्ट है कि उत्तरवैदिक काल के दार्शनिक वातावरण में भी ‘आत्मज्ञान’ सार्वजनीन बोध में नहीं था। इसे दुर्लभ और आश्चर्यजनक बताया गया है। आखिरकार यह आत्मज्ञान था क्या? प्रश्न बड़ा है।
- हृदयनारायण दीक्षित