आज भले ही हिंदुत्व को लेकर बवाल मचा है, पर धर्म की असल परिभाषा सदियों पहले ही समझा दी थी….
स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन को देश में युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। 2 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे नरेंद्रनाथ की आज 155वीं जयंती है। रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आने के बाद नरेंद्रनाथ ने करीब 25 साल की उम्र में ही संन्यास ले लिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के देहांत के बाद स्वामी विवेकानंद ने पूरे देश में रामकृष्ण मठ की स्थापना की थी। जानिए- स्वामी विवेकानंद से जुड़ी कहानियां और किस्से, जो हर युवा को बदलाव के लिए प्रेरित करती हैं।
उनका जन्म गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट के एक कायस्थ परिवार में विश्वनाथ दत्त के यहां हुआ। स्वामी जी के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था। नरेंद्रनाथ के पिता वेस्टर्न कल्चर में ज्यादा विश्वास रखते थे, उसी हिसाब से जीवन भी जीते थे। और चाहते थे कि उनका पुत्र भी वैसा ही करे, पर नरेंद्र ने 25 साल की उम्र में घर-परिवार छोड़कर संन्यासी का जीवन अपना लिया। परमात्मा को पाने की लालसा के साथ तेज दिमाग ने युवक नरेंद्र को देश के साथ-साथ दुनिया में फेमस कर दिया । हिंदू धर्म को दुनिया में फैलाने और परिभाषित करने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही जाता है।
जब बताया मां का महत्व–
एक बार किसी ने उनसे सवाल पूछा कि- मां की महिमा संसार में किस कारण से गाई जाती है? तो मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा कि जाओे और पांच सेर वजन का एक पत्थर ले आओ, जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उससे कहा, अब इस पत्थर को किसी कपड़े में लपेटकर अपने पेट पर बांध लो और चौबीस घंटे बाद मेरे पास आओ तो मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा। स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति ने पत्थर को अपने पेट पर बांध लिया और चला गया। पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना कम करता रहा, किन्तु हर क्षण उसे परेशानी और थकान महसूस हुई। शाम होते-होते पत्थर का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिए मुश्किल हो गया। वो थका मांदा स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला मैं इस पत्थर को अब और अधिक देर तक बांधे नहीं रख सकूंगा। एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मै इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी नहीं उठाया गया। मां अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोती है और ग्रहस्थी का सारा काम करती है। संसार में मां के सिवा कोई इतना धैर्यवान और सहनशील नहीं है। इसलिए मां से बढ़ कर इस संसार में कोई और नहीं।
स्वामी विवेकानंद की पहचान शिकागो धर्म संसद के बिना भी अधूरी है। बता दें कि 1893 में अमेरिका के शिकागो में धर्म संसद हुई थी, जिसमें उन्होंने दुनिया को बताया था, कि हिंदू क्या है, और हिंदुस्तान का दुनिया में क्या महत्व है ? जब स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण की शुरुआत ‘मेरे अमेरिकी भाइयो और बहनों’ कहकर की थी जिसके बाद सभागार कई मिनटों तक तालियों की गूंज हर तरफ गूंजती रही।
स्वामी विवेकानंद के भाषण की खास बातें-
अमेरिका के बहनों और भाइयों, आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है और मैं आपको दुनिया की प्राचीनतम संत परम्परा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जातियों, संप्रदायों के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी है, जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी। मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इजरायल की वो पवित्र यादें संजो रखी हैं जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है।
भाइयों, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा, जिन्हें मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज़ करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है – ‘रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम… नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव…’ इसका अर्थ है – जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है, जो देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, परंतु सभी भगवान तक ही जाते हैं।
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इनकी भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस न होते, तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है । मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से, और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
जब विदेशी महिला के बेटे बने-
स्वामी जी जब शिकागो में थे, तब एक विदेशी महिला ने उनसे कहा कि वो उनसे शादी करना चाहती है। स्वामीजी बोले, मैं संन्यासी हूं। महिला ने कहा, मैं आपके जैसा गौरवशाली पुत्र चाहती हूं, ये तभी संभव है जब आप मुझसे विवाह करेंगे। इस पर उन्होंने कहा- आज से मैं ही आपका पुत्र बन जाता हूं। महिला स्वामीजी के चरणों में गिर गई और बोली, आप साक्षात ईश्वर हैं।
गंगा नदी नहीं हमारी मां है–
एक बार अमेरिका में कुछ पत्रकारों ने स्वामीजी से भारत की नदियों के बारे में प्रश्न पूछा, आपके देश में किस नदी का जल सबसे अच्छा है? स्वामीजी बोले- यमुना. पत्रकार ने कहा आपके देशवासी तो बोलते हैं कि गंगा का जल सबसे अच्छा है। स्वामी जी का उत्तर था, कौन कहता है गंगा नदी हैं, वो तो हमारी मां हैं। यह सुनकर सभी लोग स्तब्ध रह गए।
संस्कृति वस्त्रों में नहीं चरित्र में–
एक बार स्वामी जी विदेश गए। उनका भगवा वस्त्र और पगड़ी देख लोगों ने पूछा, आपका बाकी सामान कहां हैं? स्वामी जी बोले, बस यहीं है। इस पर लोगों ने मजाक किया। फिर स्वामी जी बोले, हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से अलग है। आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं और हमारा चरित्र करता है।
मृत्यु-
जीवन के आखिरी दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा- कि एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है। उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और सुबह दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहां एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द और उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की। स्वामी विवेकानंद ने 4 जुलाई 1902 को बेलूर में इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।