अजब-गजब

आज भी इज्जत से लिया जाता है इन तवायफों का नाम

तवायफ शब्द के साथ इज्ज़त शब्द हज़म नहीं हुआ न आपको! लेकिन ये सच है कि एक ज़माने में तवायफों से तहज़ीब सीखने बड़े-बड़े लोग आते थे. तवायफों को संगीत, नृत्य और गाने में महारत हासिल थी. इतिहास की कुछ ऐसी तवायफों के बारे में हम आपको बता रहे हैं जो काफी इज़्जतदार मानी जाती थी और आज भी जिनका नाम सम्मान से लिया जाता है.आज भी इज्जत से लिया जाता है इन तवायफों का नाम

इतिहास की तवायफें

गौहर जान

मशहूर तवायफ गौहर जान के माता-पिता आर्मेनियाई थे गौहर का असली नाम एंजलिना योवर्ड था. उनके पिता का नाम विलियम योवर्ड और मां का नाम विक्टोरिया था. दुर्भाग्य से उनके माता-पिता की शादी चल नहीं पाई और 1879 में, जब एंजलिना सिर्फ 6 साल की थी, उनका तलाक़ हो गया. इसके बाद विक्टोरिया ने कलकत्ता में रहने वाले मलक जान नाम के शख्स से शादी कर ली. उसी ने एंजलिना को नया नाम दिया. गौहर जान. गौहर की मां खुद भी बहुत अच्छी डांसर थी.जल्द ही गौहर ने भी ये हुनर सीख लिया. जल्द ही वो ध्रुपद, ख़याल, ठुमरी और बंगाली कीर्तन पारंगत हो गईं. उनकी शोहरत फैलने लगी.

बेग़म हज़रत महल

इन्हें ‘अवध की बेग़म’ भी कहा जाता था. इनका असली नाम मुहम्मदी ख़ानम था. फैज़ाबाद में पैदाइश हुई. पेशे से तवायफ़ हज़रत महल को खवासिन के तौर पर शाही हरम में शामिल किया गया. आगे चल के अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने उनसे शादी कर ली. उसी के बाद उन्हें हज़रत महल नाम दिया गया.1856 में जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्ज़ा कर लिया, वाजिद अली शाह कलकत्ता भाग गए. नवाब की फरारी के बाद हज़रत महल ने कमान संभाली. 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के नाक में दम करने वालों की लिस्ट में बेग़म का नाम प्रमुखता से था. उन्होंने अपने बेटे बिरजिस कादरा को अवध का राजा घोषित किया. नाना साहेब के साथ मिलकर अंग्रेजों से खून लोहा लिया.

ज़ोहरा बाई 

ज़ोहरा बाई को भारतीय शास्त्रीय संगीत के पिलर्स में से एक माना जाता है. उनके संगीत का प्रभाव उनके बाद के फनकारों पर साफ़ देखा जा सकता है. तवायफों की गौरवशाली विरासत में उनका नाम गौहर जान के साथ बड़े ही आदर से लिया जाता है. अपनी मर्दाना आवाज़ के लिए मशहूर ज़ोहराबाई आगरा घराने से ताल्लुक रखती थी. उस्ताद शेर खान जैसे संगीतज्ञों से तालीम हासिल हुई थी उन्हें. ज़ोहराबाई की ख़ासियत थी कि उनकी एक से ज़्यादा विधाओं पर पकड़ थी. जिस रवानी से वो ‘ख़याल’ में डूबती-उतरती थी, उतनी ही सहजता से वो ठुमरी या ग़ज़ल भी पेश किया करती थी.

रसूलन बाई

बनारस घराने की इस महान फनकार का जन्म 1902 में एक बेहद गरीब घराने में हुआ था. अगर उनके पास कोई दौलत थी तो वो थी अपनी मां से हासिल संगीत की विरासत. पांच साल की उम्र से ही उन्हें उस्ताद शमू ख़ान से तालीम हासिल होनी शुरू हुई, जिसकी वजह से उनके गायन की नींव बेहद मजबूत हुई. बाद में उन्हें सारंगी वादक आशिक खान और उस्ताद नज्जू ख़ान के पास भेजा गया था. रसूलन बाई वो कलाकार है जिनका ज़िक्र उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान बेहद आदर से किया करते थे. उन्हें ईश्वरीय आवाज़ कहा करते थे.

आज भले ही लोग तवायफों को नीची निगाह से देखते हैं, मगर एक ज़माने में तवायफें ही राजाओं और नवाबों को शिष्टाचार सिखाती थीं. इन तवायफों के लिए कोठे वाली शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, ये बहुत बड़ी कलाकार थी.

Related Articles

Back to top button