उत्तर प्रदेश

आज भी जिन्दा हैं परम्परायें

(03 सितम्बर – राजर्षि जयन्ती पर विशेष)

-डा. अरविन्द सिंह

सर्य देवता धीरे धीरे अस्ताचल गामी हो रहे थे । तभी कही दूर से घन्टा बजने की आवाज आयी – देखते देखते विभिन्न छात्रावासों के बाहर श्वेत धवल कुर्ता धोती में छात्र पक्तिवत खडे होते चले गये । बहुत ही नयनाभिराम दृश्य था। प्रत्येक दिशाओं से चलकर छात्रो की पंक्तियाॅ उदय प्रताप इण्टर कालेज स्थित सन्ध्या हाल की तरफ पहुॅच रही थी। मैं अपनी उत्सुकता न रोक सका – यू ही एक छात्रावास के छात्रांे के साथ चलते हुये मैने एक छात्र से अपनी बातचीत शुरू की –

क्या नाम है आपका?

जी मेरा नाम मनीष है।

आप किस छात्रावास से है?

मैं छात्रावास पाॅच से हूॅ।

आपने हाथ में यह क्या ले रखा है?

पंचपात्र,आचमनी तथा आसनी।

आचमनी से आप क्या करते है?

आचमनी में हम जल ले कर आचमन शुध्दी करते है।

पंचपात्र से आप क्या करते है तथा इसे पंचपात्र क्यों कहा जाता है?

पंचपात्र जल संग्रह का साधन है, यह ताॅबे से निर्मित है, ताॅबा सूर्य का धातु है और संध्या के वक्त हम सूर्य की ही उपासना करते है।

बच्चे संध्या पूजन के उपरान्त अपने छात्रावासेंा को रवाना हो चुके थे। संध्या कराने के उपरान्त जब विद्यालय धर्म गुरू का आगमन हुआ तो मैने उनके चरणो में अपना प्रणाम निवेदन करने के उपरान्त, इस एक सौ आठ सालीय विद्यालयी परम्परा का आधुनिक वैज्ञानिक परिवेश में उपादेयता की जिज्ञासा उनके समक्ष रखी? धर्म गुरू ने धीर गम्भीर आवाज में मुझे सम्बोधित करते हुये कहा – ‘‘ शरीर मात्र साधन है, संसार का भी और सत्य का भी। शरीर न शत्रु है और न मित्र है। शरीर मात्र साधन है। आप चाहे तो इससे पाप करे, चाहे तो संसार में प्रविष्ट हो जाये और चाहे तो परमात्मा में प्रवेश पा लें। हमें व्यक्तित्व परिष्कृत करने हेतु शरीर, विचार एवं भाव के धरातल पर शुध्दीकरण की प्रक्रिया से गुजरना होगा। हमारा शरीर ग्रन्थियो से भरा हुआ है, भाव अशुध्द है और विचार नकारात्मक हैं।

शरीर शुध्दी का पहला चरण है, शरीर की ग्रथियों का विर्सजन। पूज्य राजर्षि एक अध्यात्मिक व्यक्ति थे । राम और बुध्द उनके आर्दश थे । उनकी मान्यता थी । अध्यात्मिक चेतना की मजबूती के बगैर एक छात्र दृढ राष्ट्रभक्ति एवं पराक्रमश्च के विन्दू तक नही पहुॅच सकता। अतः विद्यालय की स्थापना के समय से ही इस विन्दू को दृष्टीगत रखते हुये विद्यालय में संध्या उपासना की परम्परा प्रारम्भ की गयी। 25 नवम्बर 1909 को विद्यालय की स्थापना हुयी तथा 1909 में ही इस संध्या हाल का निर्माण हुआ। अब आप ही बताईये – युग पुरातन या समय नया हो। शरीर, विचार और भाव के धरातल का शुध्दीकरण क्या जीवन यापन के लिये आवश्यक नहीं है? शारिरीक शुध्दता क्या स्वास्थय के लिये आवश्यक नहीं है।

छात्रावास छॅ हमारा अगला पडाव था। अभी शायद कुछ और परम्पराओं से मुलाकात होनी थी। गृहपति महोदय ने जानकारी दी – आज भी बच्चे भूमि पर बैठ कर भोजन करते है। भोजन के पूर्व गो ग्रास ( गाय माता को पहला ग्रास ) निकाला जाता है। कृतिम अग्नि का प्रयोग नही होता । भोजन लकडी पर बनता है। मसाला सिल बट्टे पर पिसा जाता है। इन जानकारियों के साथ हम छात्रावास से बाहर आये। शाम गहराने लगी थी। आकाश में तारें निकल आये थे। सूर्य देवता कब के जा चुके थे। मैं आकाश में ध्रुव तारे को देखता हुआ सोच रहा था – हमारी परम्परायें और संस्कृतियाॅ शायद ध्रुव तारे की तरह है, जो हमें हमारी मंजिल का पता देती है। जो राष्ट्र अपनी संस्कृतियों को विस्मृत करता है, उसकी दास्ता तक नहीं होती है इतिहास के पन्नो में। पूज्य राजर्षि को इन बातो का इल्म था। तभी तो उन्होने विद्यालय में इतनी पुख्ता परम्पराओं की नीव डाली जो आज 108 साल बाद भी जिन्दा है। शायद इस सन्देश के साथ की बच्चो ! परम्परायें, संस्कृतियाॅ तुम्हे सम्बल देगी और तुम इस देश को रखना मेरे बच्चो सम्भाल के!

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