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आज भी याद किये जाते हैं कबीर और उनके दोहे

लखनऊ : अब से छह सौ वर्ष पहले पर्यावरण समस्या जैसी कोई बात नहीं थी, लेकिन संत कबीर ने वृक्ष, नदी, पहाड़, वन-पर्वतों के संरक्षण की बात कही है। ‘वृक्ष कबहुं नहिं फल भखैं, नदी न सिंचै नीर..’ यही नहीं, जल ही जीवन है का नारा भी उन्होंने दिया। आज विज्ञान चरम पर है, जिसे कबीर दास नश्वर कहते थे। उनकी वाणी मनोवैज्ञानिकता पर आधारित होती थी। इसके साथ ही, उन्होंने काशी में भक्ति आंदोलन चलाया, जिसमें देश भर के सौ से अधिक दलित उपेक्षित वर्गो से संत शामिल हुए। कबीर ने कहा- जिस ईश्वर-अल्लाह को तुम मंदिर-मस्जिद में ढूंढ़ने जाते हो, वे तुम्हारे हृदय में हैं। उन्हें पाने का उपाय तुम्हें गुरु बताएंगे। ‘पत्थर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूं पहाड़..। इसी तरह वह कहते हैं – मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में..’। जिस तरह मृग की नाभि में कस्तूरी होती है और वह वन-वन में ढूंढ़ता फिरता है, पत्थर तथा काष्ठ में अग्नि होती है और मेहंदी की हर पत्ती में लाली छिपी रहती है, वैसे ही आत्मा रूपी हरि सबके दिल में विराजमान हैं, लेकिन हम उन्हें यहां-वहां ढूंढ़ते फिरते हैं। कबीर सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाने वाले पहले संत और विचारक माने जाते हैं। रूढ़ धार्मिक शास्त्रों, पूजा उपासना संबंधी जड़ता, जाति-वर्ण संबंधी भेदभाव और जीवन के अंतर्विरोधों को उन्होंने निर्ममता से अस्वीकार कर दिया। ‘मांगन मरन समान है..’ कहकर उन्होंने साधुता को भिक्षा पर जीवन निर्वाह से उन्होंने पहली बार अलग किया। ‘सत्य बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप..’ के जरिए अध्यात्म संबंधी भ्रम को मिटाकर उन्होंने नए अध्यात्म की रचना की। जप-तप और ज्ञान को वे कुछ खास लोगों तक सीमित नहीं रहने देना चाहते थे, तभी तो उन्होंने अपने दोहे में कहा-‘संतो सहज समाधि भली.. जहां जहां जाऊं सोई परिकरमा जो कछु करूं सो पूजा..’। इसके माध्यम से वे समाज के सभी वर्गो के लिए सभी स्तरों पर नए आदर्शो की सृष्टि करते हुए भी अपनी रचनाओं से नैतिक व मानवीय लड़ाई लड़ रहे थे। कबीरदास बौद्धिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक संत थे। छह सौ वर्ष पहले जिस बौद्धिकता की बात उन्होंने कही, आज भी लोग वहां तक नहीं पहुंच पाते हैं। ‘मसि कागद छुयो नहिं कलम गह्यो नहिं हाथ..’ इस पंक्ति का पढ़ाई-लिखाई से कोई तात्पर्य नहीं है, लेकिन इसमें गूढ़, लेकिन प्रासंगिक बातें कही गई हैं। वे आत्मवादी संत थे। आत्मा के बारे में वे कहते हैं-‘आत्मा अनंत है, अपार है, अकथ्य है, रूप रंग से परे है। उस आत्म का वर्णन कलम और स्याही से कैसे कर सकते हैं।’ उन्होंने आम लोगों को समझाते हुए कहा, ‘पंडित मुल्ला जो लिख दीन्हा, छांड़ि चले हम कुछ नहिं लीन्हा..’, इस तरह लोक जीवन के स्तर पर वे अध्यात्म की गहरी समझ पैदा कर रहे थे। उन्होंने सिर्फ किताबें पढ़ने नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान अर्जन पर अधिक जोर दिया। ‘पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ..’ और ‘पढ़ना लिखना दूरि करो, पुस्तक देई बहाय..’ आदि बातें कहीं।

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