12 जनवरी 2019। ये तारीख अब इतिहास का हिस्सा कहलाएगी। दो अलग-अलग पालों में अपनी ताकत एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करते आए दो दल एक हो गए। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी। ताज की बड़ी लड़ाई के लिए ताज होटल में प्रेस कॉन्फ्रेन्स के लिए पहुंचे अखिलेश और मायावती के चेहरे दमक रहे थे। संशय की कोई गुंजायश नहीं। आशंकाओं का पहरा नहीं। पुरानी टीसों का निशान नहीं।
ये नए मिजाज का रिश्ता है। जहां हर चीज बराबरी पर रहनी चाहिए। दोनों नेताओं की पृष्ठभूमि में जो बोर्ड लगा, वहां बसपा और सपा के चुनाव चिन्ह की लंबाई-चौड़ाई तक बराबर रखी गई। जिसके ठीक नीचे लिखा था ‘प्रेस वार्ता’। प्रेस अगर सपा के लाल रंग में दिखा तो वार्ता बसपा के नीले रंग में। बायीं ओर मायावती का चेहरा। दायीं ओर अखिलेश का चेहरा। अखिलेश ने मायावती को पीले फूल भेंट किए। पश्चिमी परंपरा में दोस्ती का प्रतीक–पीले फूल जिन्हें बड़ी सावधानी से लाल रंग के रैपर में लपेटा गया था। ठीक ऐसा ही एक गुलदस्ता मायावती ने अखिलेश को दिया लेकिन इस बार रैपर का रंग नीला हो चुका था। जब बोलने की बारी आई तो पहले माइक पर पोजीशन मायावती ने संभाली।
अगर प्रतीकों में किसी की कोई दिलचस्पी हो और रिश्तों को निभाने की दिशा में ये पहला कदम माना जाए तो यकीन जानिए, ये पहला कदम बड़ा ठोस रखा गया है।
मायावती और अखिलेश बैठ भी नहीं पाए थे कि दसियों मोबाइल जेबों से निकलकर इतिहास का हिस्सा मेमोरी कार्ड में सुरक्षित कर लेना चाहते थे। हालांकि, ये तस्वीर मेमोरी कार्ड से डिलीट हो भी गई तो शायद मेमोरी से न हो।
मायावती ने किया गेस्ट हाउस कांड का जिक्र
मेमोरी से तो 2 जून 1995 का दिन भी डिलीट नहीं हो पाया है। इसीलिए आज भी मायावती ने इसका जिक्र किया। कहा कि देशहित को गेस्ट हाउस कांड से ऊपर रखती हूं। गेस्ट हाउस कांड। न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि देश की लोकतांत्रिक राजनीति का एक काला दिन। अजय बोस की किताब, ‘बहनजी- अ पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ मायावती’ में गेस्ट हाउस कांड का जिक्र बड़ी तफसील से किया गया है। उस दिन लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में जो कुछ हुआ, वो शर्मसार कर देने वाला था। बाबरी विध्वंस के बाद 1993 में बसपा और सपा साथ आए और सरकार बनाई। लेकिन जून 1995 में बसपा ने अचानक समर्थन वापसी का एलान कर दिया। इससे बौखलाए कुछ सपा कार्यकर्ता, गेस्ट हाउस के कमरा नंबर एक में घुस गए जहां मायावती ठहरी थीं। उन पर हमला हुआ, कपड़े फाड़ने की कोशिश की गई।
किसी तरह उन्हें बचाया गया। लेकिन एक न भूलने वाली टीस, मायावती के जेहन में बस गई।
आज उस टीस का कुछ हिस्सा घुल गया है। आज बहुत कुछ धुल गया है। बसपा और सपा 38-38 सीट पर लड़ने वाले हैं। नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनावों की लैबोरेटरी में जिस तरह इस गठबंधन के प्रयोग ने अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की है वो भाजपा की नींद उड़ाने वाली होनी चाहिए। अमित शाह भले राष्ट्रीय अधिवेशन में काडर का हौसला बढ़ाने के लिए 75 सीट का दावा ठोकें, भीतर ही भीतर वो जानते होंगे कि एक-एक सीट पर लड़ाई कितनी कड़ी होने वाली है।
आंकड़ों में दिलचस्पी हो तो….
2014 लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बीच भाजपा को उत्तर प्रदेश में 42.6 फीसदी वोट मिले, सपा को 22.3 फीसदी और बसपा को करीब 20 फीसदी। यानी, दोनों का वोट शेयर मिला लिया जाए तो वो भाजपा को कड़ी टक्कर देता है।
हालांकि, इस गठबंधन के सामने बड़ी चुनौती उम्मीदवारों के चुनाव की होगी, रूठों को मनाने की होगी, समीकरणों को साधने की होगी। हर बार की तरह 2019 की दिल्ली का रास्ता भी उत्तर प्रदेश से होकर ही जाना है। इस गठबंधन ने लोकसभा चुनाव की लड़ाई को बेहद दिलचस्प तो बना ही दिया है।